बौद्धकालीन शिक्षा : शिक्षा के उद्देश्य | शिक्षा के गुण | शिक्षा की विशेषता

बौद्ध परम्परा के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

बौद्ध धर्म की शिक्षा का उद्देश्य 
बौद्धकालीन शिक्षा के गुण 

बौद्ध दर्शन का शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Buddhist Philosophy on Education) 

बौद्ध दर्शन के अनुसार शिक्षा संसारिक दुःखों से मुक्ति दिलाने या निर्वाण प्राप्ति का साधन है। शिक्षा वह प्रक्रिया है जो उसे अष्टांग मार्ग की प्राप्ति में मदद करती है।
बौद्धकालीन शिक्षा
बौद्धकालीन शिक्षा


(A) बौद्ध दर्शन में शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education in Buddhist Philosophy)-बौद्धकालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे


1.सदाचार की शिक्षा देना-

बौद्धकालीन शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों को सदाचार या नैतिक व्यवहार की शिक्षा देना था। इसके लिए पंचशील व्रत की व्यवस्था थी।
ये पंचशील व्रत निम्नलिखित थे 
(1) मैं प्राणी-हिंसा से दूर रहने का व्रत लेता हूँ। 
(2) मैं चोर कर्म से विरत रहने का व्रत लेता हूँ। 
(3) मैं व्यभिचार से विरत रहने का व्रत लेता हूँ। 
(4) मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा लेता हूँ। 
(5) मैं नशीली वस्तुओं से विरत रहने की शिक्षा लेता हूँ।

2. चिंतन तथा मनन प्रक्रियाओं को तीव्र बनाना 

बौद्ध धर्म में चिंतन तथा मनन करने की प्रक्रियाओं पर बहुत बल दिया जाता था। इस चिंतन तथा मनन द्वारा व्यक्ति को परम शांति मिलती थी।

3. शिक्षा द्वारा निर्वाण की स्थिति को प्राप्त करना—

बौद्धकालीन शिक्षा द्वारा मनुष्य आध्यात्मिक सुधार कर भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो सकता है।

4. व्यक्तित्व का विकास-

बौद्ध दर्शन की शिक्षाओं का अनुसरण कर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का भी पूर्ण विकास कर सकता है।

5. सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास 
व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहते हुए उसे अनेक उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं। इस उत्तरदायित्व को समाज में

अच्छी तरह कैसे निभा सकता है इसकी जानकारी हमें बौद्ध-दर्शन द्वारा मिलती है।

इसके अलावा बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग के आधार पर बौद्ध शिक्षा के उद्देश्यों को इस तरह भी रख सकते हैं


1. छात्र को सम्यक् दृष्टि प्रदान करना (To Provide Right Vision to the students) 

सबसे मुख्य उद्देश्य शिक्षा का होता है मानव के अज्ञान को दूर करके उसकी सोच ऐसी बना देना जिससे वह वस्तुओं के वास्तविक रूप को पहचान दे सके।

2. छात्र को सम्यक् वाणी में व्यवहार करने के योग्य बनाना (To enable the students to behave in Right speech) 

वही व्यक्ति श्रेष्ठ होता है जो अपनी वाणी को संयमित रखता है, अपने वश में रखता है। वह वाणी के वश में न होकर वाणी को अपने वश में रखता है। इस प्रकार शिक्षा का एक उद्देश्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना भी है कि वह अप्रिय वाणी न बोलकर मधुर तथा संयमित वाणी का प्रयोग करे।

3. छात्र को संकल्प करने में सहायता प्रदान करना (To help the student in making Right Resolve) 

शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को इस योग्य भी बनाना है कि वह अपने प्राप्त ज्ञान के अनुसार ही आचरण करने का संकल्प ले सके।

4.विद्यार्थी को सम्यक् कर्म करने योग्य बनाना (To enable the students to do the Right conduct) 

शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थी को अहिंसा, अस्तेय तथा इन्द्रियों का संयमित रूप में आचरण करते हुए सम्यक् कर्म करने योग्य बनाना है।

5.छात्रों को सही उपायों से अपनी आजीविका कमाने योग्य बनाना (To enable the students to earn their livelihood by Right Means)-

प्राचीन काल से ही व्यक्ति के जीवनयापन की मुख्य समस्या रही है-आजीविका की समस्या। शिक्षा को इस समस्या के समाधान में सहायक होने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि शिक्षा व्यक्ति को इस योग्य बनाए कि वह अपनी आजीविका नेक नीति से कमा सके।

6. विद्यार्थी को बुराई पर विजय प्राप्त करने के लिए लगातार उचित प्रयास करते रहने के योग्य बनाना (To enable him to make Right Efforts to win the Evil) 

शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति बुरे संस्कारों को स्वयं पर हावी न होने देने तथा इस बात के लिए प्रेरित करना कि वह भविष्य में भी बुरे विचारों को मन में न रखकर अच्छे विचारों को मन में लाये।

7. उसे उचित स्मृति प्रदान करना (To Provide him Right Mindfulness) 

शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि उसे ऐसी स्मृति (Memory) प्रदान करे ताकि वह हमेशा सच्ची तथा अच्छी बातों को याद रख सके।

8. विद्यार्थी को सम्यक् समाधि योग्य बनाना 

शिक्षा का उद्देश्य होता है कि व्यक्ति में उपर्युक्त सातों गुणों को विकसित कर उसे समाधि की उस अवस्था तक पहुँचाया जाए जिससे उसे निर्वाण प्राप्ति हो सके।

अत: हम निष्कर्ष के तौर पर सरल तथा स्पष्ट शब्दों में कह सकते हैं कि बौद्ध दर्शन में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव का सर्वांगीण विकास करना था। मानव के सर्वागीण विकास के साथ-साथ शारीरिक व्यायाम, मानसिक शिक्षा, भौतिक कल्याण तथा नैतिक जीवन के अभ्यास पर विशेष ध्यान दिया जाता है। 

बौद्धकालीन शिक्षा के गुण (Merits of Buddhist Education)


(1) इस दर्शन में आध्यात्मिक व व्यावहारिक विषयों में समन्वय स्थापित किया गया है अर्थात् इसमें आध्यात्मिक विकास में सहायक विषयों के साथ-साथ आजीविका कमाने योग्य बनाने वाले विषयों को भी शामिल किया गया है।

(2) बच्चों के विषय में इनकी धारणा मनोवैज्ञानिक है, वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर शिक्षा देने पर आग्रह इसकी महती विशेषता है। 

(3) मानसिक विकास हेतु शारीरिक स्वास्थ्य व विकास पर बल देकर ये शारीरिक मूल्यों के प्रति अपना आग्रह स्पष्ट करते हैं। 

(4) आर्थिक मूल्यों में भी मध्यम मार्ग के सिद्धान्त पर जोर दिया गया है। इसमें जहाँ

एक ओर सांसारिक सुखों के त्याग पर बल दिया गया है और सम्पत्ति रखना निषेध किया गया है वहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि उचित उपायों द्वारा आजीविका कमाने में कोई दोष नहीं। 

(5) बौद्ध दर्शन में वाद-विवाद पर जोर दिया गया है तथा अध्यापकों द्वारा शिष्यों के छोटे समूहों को शिक्षा देना मनोवैज्ञानिक धारणा को व्यक्त करता है। 

(6) सम्यक् संकल्प द्वारा नैतिक बनाने का आग्रह भी इसकी विशेषता है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा-दर्शन हमारे सामने प्रस्तुत करता है। चाहे शिक्षा का उद्देश्य निर्धारण हो या पाठ्यक्रम रचना, छात्र-अध्यापक संबंध हो या शिक्षण विधियाँ, सर्वत्र हमें मध्य मार्ग का सिद्धान्त दिखाई देता है। यही इसकी मुख्य विशेषता है।

बौद्ध शिक्षा की महत्त्वपूर्ण विशेषता


उत्तर–बौद्ध शिक्षा-प्रणाली की विशेषताएँ (Characteristics of Buddhist Education-System)–बौद्ध शिक्षा का निर्माण बौद्ध धर्म के आदर्शों तथा लक्ष्यों के अनुकूल किया गया था। इस बौद्ध शिक्षा-प्रणाली की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार हैं

1. पबज्जा-संस्कार (Pabajja-Ceremony)—

पबज्जा-संस्कार विद्याध्ययन प्रारम्भ करने का प्रतीक था।"पबज्जा" का सरल शाब्दिक अर्थ होता है—"बाह्य गमन" या "बाहर जाना" (Going or out)। इससे स्पष्ट है कि जब बालक को बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा हेतु मठों में 'संघ' की सदस्यता प्रदान की जाती थी तो इस धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन किया जाता था। प्रसिद्ध बौद्ध धर्म ग्रन्थ विनय पिटक (Vinay Pitak) में इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है

बालक अपने सिर के समस्त बालों को साफ करके पीले वस्त्र पहनता था, तदुपरान्त वह मठ विशेष के भिक्षुओं के चरणों में नमन करता था और पालथी लगाकर आसन पर बैठ जाता था। इसके साथ ही प्रमुख बौद्ध भिक्षु के साथ बालक निम्नलिखित शब्दों का उच्चारण करता था

"बुद्धं शरणं गच्छामि । 
धम्मं शरणं गच्छामि।
संघं शरणं गच्छामि॥" 

इसका तात्पर्य यह है कि बालक प्रतिज्ञा करता था कि मैं भगवान बुद्ध की शरण में जाता हूँ। मैं धर्म की शरण में जाता हूँ। मैं संघ की शरण में जाता हूँ। . इसके साथ ही छात्र को निम्नलिखित 10 उपदेश जीवनपर्यन्त पालन हेतु प्रदान किए जाते थे—
(1) जीव हत्या मत करो। 
(2) चोरी मत करो। 
(3) असत्य मत बोलो। 
(4) अशुद्ध आचरण मत करो। 
(5) नशीले द्रव्यों का उपभोग मत करो। 
(6) सौन्दर्य प्रसाधनों का प्रयोग मत करो। 
(7) उचित समय पर भोजन करो। 
(8)सोना, चाँदी एवं अन्य बहुमूल्य वस्तुओं को दान में ग्रहण मत करो। 
(9) नृत्य, संगीत एवं तमाशे आदि का निषेध करो। 
(10) बिना प्रदान किए कोई वस्तु ग्रहण मत करो।

इस अवस्था में बालक शिष्यत्त्व ग्रहण करता था तथा उसे "सामनेर" (Samnera) या "श्रमण" कहा जाता था। इस प्रकार सामनेर निरन्तर 12 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करता था।

2. उपसम्पदा संस्कार (Upsampada Sanskar or Ceremony) 

उपसम्पदा' संस्कार का अभिप्राय था—विद्याध्ययन करने के पश्चात् बौद्ध मठ से मुक्ति। यह संस्कार सामनेर द्वारा लगभग 12 वर्षों तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सम्पादित किया जाता था। यह संस्कार छात्र को पूर्ण भिक्षु के रूप में बौद्ध संघ के मानद सदस्य के रूप में स्वीकृति प्रदान करता था।

उपसम्पदा संस्कार एक उच्चकोटि का प्रजातांत्रिक संस्कार था। यह संस्कार प्रायः बौद्ध मठ के समस्त योग्य बौद्ध भिक्षुओं के सानिध्य में सम्पन्न होता था। प्राय:सभी उत्सुक विद्वान् भिक्षु उस छात्र से अनेकानेक प्रश्न पूछते थे। इन प्रश्नोत्तरों तथा तर्कों के आधार पर ही वे भिक्षु सामूहिक निर्णय लेते थे कि छात्र उपसम्पदा संस्कार के योग्य है अथवा नहीं।

शिष्य जब उपसम्पदा संस्कार का अधिकार प्राप्त कर लेता था, उसे बौद्ध संघ का स्थायी मानद सदस्य मानकर उसे निम्नांकित नियमों का पालन करना होता था—(1) भोजन हेतु भिक्षा ग्रहण करना। (2) सात्त्विक भोजन ग्रहण करना। (3) साधारण वस्त्र धारण करना। (4) 'गोमूत्र' को औषधि रूप में सेवन करना। (5) चोरी न करना।(6) जीव हत्या न करना। (7) अलौकिक एवं चमत्कारों का सहारा न लेना। (8) स्त्री-समागम से दूर रहना।

    उक्त समय में छात्रों के मध्य लैंगिक विभेद नहीं किया जाता था। बालिकाओं तथा स्त्रियों को भी बालकों तथा पुरुषों की भाँति ही एक समान अधिकार प्राप्त थे तथा इन दोनों संस्कारों से गुजरते थे।

3. छात्र चयन सम्बन्धी नियम (छात्र अर्हताएँ)-

बौद्ध काल में समस्त बालकों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त था। समाज के समस्त वर्गों में शिक्षा का पर्याप्त प्रसार था। फिर भी समाज के कुछ विशिष्ट वर्गों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं था; ये वर्ग थे (1) नपुंसक जाति के बालक एवं व्यक्ति। (2) ऋणग्रस्त व्यक्ति। (3) राजकीय सेवारत व्यक्ति।(4) अपराधी एवं चोर, डाकू आदि। (5) राजकीय दण्ड प्राप्त व्यक्ति। (6) विकलांग व्यक्ति।(7) माता-पिता से विमुख व्यक्ति।(8) संक्रामक रोग एवं अन्य गम्भीर रोगों से युक्त व्यक्ति।

इस प्रकार शिक्षा प्रदान करने का आधार जाति, धर्म तथा अन्य सामाजिक भेदभाव नहीं थे। उपर्युक्त व्यक्तियों को भी उनकी शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक सीमाओं के रहते हुए शिक्षा से वंचित किया गया था।

4.विद्या प्रारम्भ करने हेतु प्रवेश आयु (Enrolment Age in School) 

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि 'पबज्जा संस्कार' ही वास्तव में विद्या प्रारम्भ करने हेतु प्रवेश आयु मानी जाती है। इस संस्कार के समय सामनेर लगभग 8 वर्ष की आयु का होता था। विद्या प्रारम्भ करने हेतु प्रत्येक छात्र को बौद्ध संघ में स्थायी रूप से निवास करना पड़ता था। ये बालक बौद्ध संघ के ही किसी भिक्षु को अपना गुरु मानकर विद्या प्रारम्भ करते थे।

5. छात्र-जीवन सम्बन्धी नियम (Rules governing Students-life) 

बौद्ध शिक्षा प्रणाली में छात्रों को अनेकानेक जटिल नियमों का पालन करना अनिवार्य था। इन नियमों का शब्दशः पालन करके ही छात्र शिष्यत्त्व ग्रहण करने का अधिकारी माना जाता था। ये प्रमुख नियम दैनिक क्रियाओं; जैसे भोजन, वस्त्र, स्नान आदि से सम्बन्धित होते थे। इनके अतिरिक्त शिष्य को बौद्ध मठ के आवश्यक नियमों का भी अनुपालन करना अनिवार्य था।

बौद्ध शिक्षा प्रणाली के छात्रोपयोगी ये नियम निम्नलिखित प्रकार से समझे जा सकते हैं


1. भोजन सम्बन्धी नियम–

छात्रों का भोजन अति साधारण, सात्विकता से परिपूर्ण होता था। भोजन उदरपूर्ति हेतु नहीं बल्कि क्षुधा सन्तुष्टि हेतु किया जाता था। प्रत्येक छात्र-शिक्षक दिन के तीन प्रहरों में ही भोजन करने का अधिकारी होता था। कुसमय भोजन ग्रहण करना पूर्ण निषेध था। प्रायः ऐसा देखने में आता है कि शिक्षक एवं छात्र दोनों ही सायंकाल भोजन हेतु निकटस्थ स्थानों पर आमन्त्रित किए जाते थे। अत: बौद्ध मठों में जाकर उन आतिथ्यों को सहर्ष स्वीकार करने की मान्यता प्रचलित थी।

2. भिक्षाटन–

प्रत्येक छात्र बौद्धमठ में एक भिक्षुक गणवेश में निवास करता था। इसके व्यावहारिक प्रयोग हेतु वह छात्र प्रतिदिन सुबह निकटस्थ ग्रामों में भिक्षा याचना हेतु निकलता था। भिक्षुक गणवेश में वह हाथ में भिक्षा पात्र लिए बिना कुछ याचना किए भिक्षा की प्रत्याशा करता था। तात्कालिक प्रबुद्ध नागरिक भी उन्हें अपना ही हिस्सा मानकर सहर्ष दान तथा भोजन सामग्री प्रदान करने हेतु तत्पर रहते थे। इस प्रकार बौद्ध शिक्षा के अन्तर्गत व्यक्ति की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए तथा उसमें जाति, धर्म तथा यश, मान सम्बन्धी धारणाओं को समाप्त करने के लिए प्रत्येक छात्र में मधुरता, याचकता, समाज समंजनशीलता आदि इन गुणों की पूर्ति हेतु प्राथमिकता प्रधान की गई थी। छात्र भिक्षाटन में भोजन-वस्त्र सम्बन्धी पदार्थ ही ग्रहण करने के अधिकारी थे। वे बहुमूल्य वस्तुएँ तथा अन्य वैभवयुक्त आभूषणों आदि को ग्रहण नहीं कर सकते थे। भिक्षा भी वे उस गृह पर समाप्त करते थे, जहाँ से उनकी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति हो जाती थी। इस प्रकार अतिरिक्त मात्रा में खाद्य-पदार्थ आदि का संग्रह निषेध था। ऐसी कठोर आचरण पद्धति एवं व्यवस्था वैदिक आश्रमों में भी नहीं देखी गई थी।

3. वस्त्र-

छात्रों के लिए बौद्ध मठों के अनुकूल भिक्षुक गणवेश हेतु वस्त्र धारण करना अनिवार्य था। वे प्राय: पीले वस्त्र धारण करते थे। सिर मुंडे होते थे। वस्त्रों में कोपीन तथा अधोवस्त्र के अतिरिक्त एक और ऐसा ही ऊपर पहनने हेतु बिना सिलाई किया हुआ कपड़ा होता था, जिसे वे शरीर पर लपेटे रहते थे। सभी मौसमों में उनके ये ही वस्त्र होते थे। इस प्रकार छात्रों में प्राकृतिक अनुकूलता स्थापित करने के गुणों के विकास पर भरपूर जोर दिया जाता था क्योंकि ये वस्त्र संख्या में तीन थे, अत: वे इन्हें "तिसिवरा" के नाम से पुकारते थे।

4.स्नान–

बौद्ध मठों के नजदीक तालाबों, नदियों अथवा झरनों आदि खुले स्थानों पर छात्र स्नान हेतु जाते थे। स्नान प्रात:काल करना अनिवार्य था। छात्रों को स्नान करते समय भी कठोर नियमों का पालन करना होता था; ये नियम निम्नलिखित थे

(1) पारस्परिक शारीरिक क्रिड़ाएँ तथा अन्य क्रियाएँ, जैसे शरीर को रगड़ना, स्पर्श करना आदि का निषेध।
(2) जल क्रीड़ा निषेध। 
(3) शरीर का तेल, औषधि या अन्य पदार्थ से मालिश करने का निषेध। 
(4) तेल, इत्र, सुगन्धित वस्तुओं का शरीर पर लेपन या प्रयोग निषेध । 
(5) स्नान स्थल पर खाँसना, थूकना, शौच करना आदि क्रियाओं का निषेध ।

5. अनुशासन-

छात्र-अनुशासन अत्यधिक कठोर था। प्रत्येक छात्र को बौद्ध मठ की मर्यादाओं का पालन करना अनिवार्य था। बौद्ध मठ की सदस्यता ग्रहण करते ही छात्र को नियम एवं अनुशासनों का तत्परता से पालन करना अनिवार्य था। ये नियम इस प्रकार थे

(1) प्राकृतिक सम्पत्ति के विनाश का निषेध । 
(2) व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा बहुमूल्य आभूषणों, वस्त्रों एवं अन्य दैनिक उपभोग की वस्तुओं का पूर्ण निषेध। 
(3) सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश निषेध। मेला, तमाशा तथा अन्य प्रदर्शनियों आदि में प्रवेश वर्जित। 
(4) शारीरिक सौष्ठव हेतु प्रसाधन सामग्रियों का प्रयोग वर्जित। 
(5) शाब्दिक, शारीरिक अश्लीलता की कठोर वर्जना एवं वक्त का दुरुपयोग जैसे गलत एवं अन्य बातों में समय गुजारना पूर्ण निषेध था।

इन उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त भी अनेक दैनिक नियमों को छात्र अपने जीवन में ढालता था। यदि छात्र इनके अनुपालन में कोई अकर्मण्यता बरतता था तो उसे उपर्युक्त दण्ड दिया जाता था। कभी-कभी तो ऐसे छात्रों को बौद्ध मठों से भी निष्कासित कर दिया जाता था।

शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध–शिक्षक-शिष्यत्व के पारस्परिक सम्बन्धों की अनुपम मिसाल इस काल में दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि वे दोनों परस्पर एक-दूसरे के शैक्षिक एवं भौतिक उत्तरदायित्व के प्रति पूर्ण सजग तथा तत्पर रहते थे। ऐसी व्यवस्था में स्वाभाविक ही है कि शिष्य वैदिक युग की भाँति ही पुत्रवत् स्नेह का अधिकारी था। यदि यह कहा जाए कि इस युग में छात्र का और भी अधिक उच्च स्थान था, तो अतिश्योक्ति नहीं है।
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