किशोरावस्था की सावंगिक विशेषताएँ

किशोरावस्था की सावंगिक विशेषताएँ क्या हैं

किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास

किशोरावस्था की सावंगिक विशेषताएँ
किशोरावस्था की सावंगिक विशेषताएँ 

संवेगात्मक विकास (Emotional Development)

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में समय-समय पर क्रोध, भय, हर्ष,घृणा, प्रेम, वासना, क्षोभ आदि का अनुभव करता है, इन्हें संवेग कहते हैंमानव जीवन में संवेगों का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान हैमनुष्य को संवेगों के द्वारा विभिन्न कार्यों को करने की प्रेरणा तथा शक्ति मिलती हैसंवेगों के उदय होने पर व्यक्ति में अतिरिक्त शक्ति का संचार होता है तथा वह ऐसे-ऐसे कार्य कर दिखाता है जो सामान्य स्थिति में उसके लिए सम्भव प्रतीत नहीं होते हैंभय की स्थिति में व्यक्ति कभी-कभी ऊँचे-नीचे गड्ढों तथा नालों को लाँघ जाता है। क्रोध की स्थिति में कभी-कभी व्यक्ति अपने से शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर देता हैसंवेगों का सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन के भावात्मक पक्ष से होता हैसुखद वस्तु को देखकर प्रसन्न होना, खराब वस्तु को देखकर घृणा आना तथा दूसरों को अभावग्रस्त देखकर दया आना आदि संवेगात्मक स्थिति के कुछ उदाहरण हैं। 

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास (EmotionalDevelopment During Adoles cence)

किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं 


1. भाव प्रधान जीवन (Feeling Dominated Life)-

किशोरावस्था में जीवन अत्यधिक भाव प्रधान होता हैकिशोर-किशोरियों में दया, प्रेम, क्रोध, सहानुभूति, सहयोग आदि प्रवृत्तियाँ प्रबल होती हैं। 


2. विरोधी मनोदशाएँ (Opposite Moods)-

किशोरावस्था में व्यक्ति में विरोधी मनोदशायें दिखाई देती हैंलगभग समान परिस्थितियों में कभी वह अत्यधिक प्रसन्न तथा कभी अत्यन्त दुखी दिखाई देता हैजो परिस्थिति एक अवसर पर उसे उल्लास से परिपूर्ण कर देती है, वही परिस्थिति अन्य अवसर पर उसे खिन्न कर देती है। 


3.संवेगों में विभिन्त्रतायें (Differences in Emotions)-

किशोरावस्था में संवेगों में अत्यधिक विभिन्नतायें होती हैंभिन्न-भिन्न अवसरों पर किशोर-किशोरियों के व्यवहार भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैंवे कभी हतोत्साहित तथा कभी उत्साह से परिपूर्ण, कभी अत्यधिक प्रसन्न तथा कभी अत्यधिक खिन्न, कभी अत्यधिक क्रोधी तथा कभी अत्यधिक सहानुभूतिपूर्ण, कभी अत्यधिक दयालु तथा कभी अत्यधिक रुष्ट दिखाई देते हैं। 


4.काम भावना (Sex Instinct)-

किशोरावस्था में काम भावना व्यवहार के केन्द्रीय तत्व के रूप में कार्य करती हैकाम भावना की तीव्रता के कारण किशोर-किशोरियों में प्रेम संवेग बढ़ जाते हैंस्व प्रेम (Auto-erotism), समलिंगी प्रेम (Homosexuality) तथा विषम लिंगी प्रेम (Hetrosexuality) के रूप में किशोर-किशोरियाँ अपनी काम प्रवृत्ति की संवेगात्मक 

अभिव्यक्ति करते हैं। 


5. वीर पूजा (Hero worship)-

किशोरावस्था में वीर पूजा की भावना विकसित हो जाती हैकल्पनाशील होने के कारण किशोर-किशोरियों की कहानी, उपन्यास, सिनेमा, इतिहास तथा वास्तविक जीवन के नायक नायिकायें अपने आदर्शों तथा वीरोचित गुणों से मुग्ध कर लेते हैंअपने आदर्शों तथा रुचियों के अनुरूप किशोर-किशोरियाँ कुछ वीर वीरांगनाओं का चयन कर लेते हैं तथा उनके कार्यों आदर्शों का अनुकरण करने का प्रयास करते हैं। 


6.स्वाभिगन की भावना (Feeling of Self-Respect)-

किशोरावस्था में स्वाभिमान की भावना प्रबरती हैकिशोर अपने आत्मगौरव तथा सम्मान पर किसी प्रकार का आघात सहन करना नहीं रहता हैस्वाभिमान पर चोट लगने पर कभी-कभी किशोर घर से पलायन कर जाते हैं अथवा आत्महत्या की बात सोचने लगते हैं। 


7.अपराध प्रवृत्ति (Delinquency)-

किशोर को तो बालक समझा जाता है तथा ही प्रौढ़, जिसके कारण उसे संवेगात्मक व्यवहार में कठिनाई का सामना करना पड़ता हैवातावरण में अनुकूलन करने के प्रयास की असफलता से उसमें निराशा की भावना विकसित होने लगती है, जो उसे अपराध प्रवृत्ति की ओर प्रवृत्त करती है। 


8.चिन्ता युक्त व्यवहार (Anxious Behaviour)-

किशोरावस्था में किशोर अनेक बातों के प्रति चिन्तित रहता हैवह अपने रंग रूप, स्वास्थ्य, मान-सम्मान, आर्थिक स्थिति, शैक्षिक प्रगति, भावी व्यवसाय आदि के प्रति सदैव व्यग्र रहता है। 

स्वावला की भावना (Feeling at Independence) -किशोरावस्था में स्वतंत्रता की भावना त्यधिक प्रबल होती हैकिशोर किशोरियां अपने परिवार तथा समाज के आदशों, परम्पराओ नीति-रिवाजों, अंश विश्वासों आदि को मानकर अली स्वतंत जीवन शैली अपनाना चाहते हैंवे तर्क-वितर्क करके सामाजिक आदर्शों की उपयुक्तता को जानना चाहते हैंयदि उसके क्रियाकलापों पर प्रतिबंध लगाये जाते हैं, तब किशोर इन्हें सरलता से स्वीकार नहीं करते हैं, वरन् विद्रोह करने का प्रयास करते हैं। 

किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास के अवलोकन से स्पष्ट है कि किशोरों में क्रियाशीलता की प्रवृत्ति अधिक होती है जिसके परिणामतः इस अवस्था में संवेग अधिक उग्र होते हैं। 


संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Emo tional Development)

किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नांकित हैं-


1.वंशानुक्रम (Heredity)

व्यक्ति वंशानुक्रम से अपने शारीरिक तथा मानसिक गुण योग्यतायें प्राप्त करता हैइन शारीरिक तथा मानसिक गुणों का व्यक्ति के संवेगात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है। 


2. स्वास्थ्य (Health)-

व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य का उसके संवेगात्मक व्यवहार से घनिष्ठ संबंध होता हैस्वस्थ व्यक्ति की अपेक्षा बीमार, रोगग्रस्त अथवा शारीरिक दृष्टि से : कमजोर व्यक्तियों में संवेगात्मक अस्थिरता अधिक होती है। 


3. थकान (Fatigue)

थकान भी व्यक्ति के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती हैथके हुए व्यक्ति में क्रोध, नाराजगी या चिड़चिड़ापन जैसे ऋणात्मक या अवांछनीय संवेग प्रदर्शित करने की अधिक प्रवृत्ति पाई जाती है। 


4.मानसिक योग्यता (Mental Abilities)-

व्यक्ति के संवेगात्मक व्यवहार पर उसकी मानसिक क्षमता का अत्यधिक प्रभाव पड़ता हैअधिक बुद्धिमान व्यक्तियों का संवेगात्मक क्षेत्र विस्तृत होता हैउच्च मानसिक क्षमता वाले बालकों में अपने संवेगों को नियंत्रित करने की अधिक क्षमता होती है। 


5.परिवार का वातावरण (Environment of the Family)-

परिवार के वातावरण तथा सदस्यों का संवेगात्मक व्यवहार भी बालकों के संवेगात्मक विकास को तीन ढंग से प्रभावित करता हैप्रथम, यदि परिवार में शांति, सुरक्षा स्नेह का वातावरण होता है तो बालक का संतुलित ढंग से संवेगात्मक विकास होता हैद्वितीय, यदि परिवार में कलहपूर्ण, अत्यधिक सामाजिक तथा मौज-मस्ती का वातावरण रहता है तो बालकों में अत्यधिक संवेग उत्पन्न हो जाते हैंतृतीय, यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेदनशील होते हैं तथा अत्यधिक संवेगात्मक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो बालक भी अत्यधिक संवेदनशील होकर संवेगात्मक व्यवहार करते हैं

 

6.अभिभावकों का दृष्टिकोण (Attude of Parents)-

बालकों के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण तथा व्यवहार भी बालकों के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता हैबच्चों की उपेक्षा करना, घर से अधिक समय बाहर रहना, बच्चों के संबंध में अत्यधिक चिंतित रहना, बच्चों को अत्यधिक संरक्षण देना, बच्चों को बाल सुलभ अनुभवों से वंचित रखना, बच्चों को अत्यधिक लाइप्यार करना अथवा बच्चों के प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करना जैसे व्यवहार बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार विकसित कर देते हैं। 


7.सामाजिक आर्थिक स्थिति (Socio-Economic Status)--

परिवार की सामाजिक आर्थिक स्थिति भी संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती हैंइन सामाजिक आधिक स्थिति वाले बालक-बालिकाओं में निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति वाले बालक बालिकाओं की तुलना में संवेगात्मक स्थिरता अधिक होती है। 


8. सामाजिक स्वीकृति (Social Acceptance)-

व्यक्ति के द्वारा किये गये कार्यों के फलस्वरूप प्राप्त सामाजिक स्वीकृति भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करती हैव्यक्ति अपने कार्यों की दूसरों के द्वारा प्रशंसा चाहता हैजब उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं होती है तब उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता हैवास्तव में यदि व्यक्ति को अपने कार्यों की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती है तो उसका संवेगात्मक व्यवहार या तो शिथिल हो जाता है अथवा उग्र हो जाता है। 


9.विद्यालय (School)-

विद्यालय का बालकों के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता हैबालक विभिन्न क्रियाओं के द्वारा अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करता हैयदि विद्यालका वातावरण, पाठ्यक्रम, कार्यक्रम, शिक्षक वृन्द इत्यादि बालकों के संवेगों के अनुकूल होते हैं तो उन्हें आनन्द की प्राप्ति होती है तथा उसका स्वस्थ संवेगात्मक विकास होता हैइसके विपरीत विद्यालयी वातावरण से ताल-मेल होने पर, परीक्षा में असफल हो जाने पर, अध्यापकों के अत्यधिक शुष्क व्यवहार आदि के कारण बालकों में अवांछित संवेग जैसे भय, क्रोध, चिड़चिड़ाहट या घृणा आदि उत्पन्न हो जाते हैं


सामाजिक दबाव का किशोर के व्यवहार पर प्रभाव

(Effect of Social Persure on the Behaviour of Adolescent)
    प्राय: अभिभावक एवं माता-पिता अपने बच्चों में अपनी अपेक्षाओं की पूर्ति का लक्ष्य देखने की इच्छा रखते हैं और वह अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के प्रयत्नों में किशोर बालक-बालिकाओं पर कई तरह के दबाव डालते हैं जबकि किशोरों में संवेगात्मक चंचलता एवं तीव्रता के कारण अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं को अनदेखा करते हैं। अत: उनमें आपसी तनाव उत्पन्न होता है। यह तनाव किशोरों के व्यक्तित्व में नकारात्मक तत्वों के बीज के रूप में विकसित होता है क्योंकि माता-पिता की अपेक्षाएँ बच्चों की छोटी आयु में कम होती हैं और जब बालक किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं, यह अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं, जो कि सामाजिक दबाव का काम करती हैं। बाल्यकाल में अभिभावक साधारणतः अपेक्षाओं के रूप में बच्चों में अनुशासन, परिवार के रीति-रिवाज एवं नियम आदि का अनुकरण करवाते हैं। जैसे ही किशोरावस्था आरम्भ होती है, इन अपेक्षाओं का विस्तार और रूप अधिक विस्तृत एवं जटिल होने लगता है क्योंकि अभिभावक बच्चों को कई प्रकार की भूमिकाएँ सौंपते हैं जिनका पहले से उनको कोई ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार अभिभावक अपने नियमों और विश्वास के आधार पर किशोरों को कई प्रकार की भूमिका निभाने के लिये बाध्य भी करते हैं। यदि बालक इन अपेक्षाओं के आधार पर कार्य करने में असफल रहता है तो उसे दण्ड अथवा भविष्य में ऐसा न करने की नसीहत देते हैं। अभिभावकों का यह व्यवहार किशोरों के व्यवहार एवं स्वभाव पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसी प्रक्रिया में दण्ड भी दिये जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि बालक के स्वभाव में बारम्बार उतार चढ़ाव होता है जो कि उनके आपसी सम्बन्धों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं का अधिक समय विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने में लगता हैजैसे-जैसे विद्यार्थी एक कक्षा से दूसरी कक्षा में प्रवेश करते हैं उनकी शैक्षणिक गतिविधियों में परिवर्तन होता है और अध्यापक एवं अभिभावकों की अपेक्षाएँ भी बढ़ती हैंइस प्रकार वह त्रिपक्षीय दबाव से ग्रस्त होते हैं; जैसे शैक्षिक सम्बन्धी दबाव, परिवार की शैक्षिक अपेक्षाएँ एवं उनके आन्तरिक परिवर्तन से उत्पन्न इच्छाएँ मिलकर उस पर दबाव डालती हैं और वह एक असमंजस की अवस्था में रहता हैऐसी अवस्था में ही बालक अपनी सामाजिक दक्षता एवं कौशल को विकसित करने का प्रयास करता हैइस समय उसमें संवेगात्मक द्वन्द्व उत्पन्न होते हैंवह उनके साथ न्याय (Lope) करने का प्रयास करता है और अन्य लोग उससे क्या अपेक्षाएँ रखते हैं उसे समझने की दक्षता पैदा करता हैइसी अन्तराल में वह अपने द्विपक्षीय व्यवहार का अनुभव करता है जैसे दूसरों की अपेक्षाओं की पूर्ति करना और स्वयं की यौन सम्बन्धी इच्छाओं और रुचियों की पूर्ति करना जो उसके नये सम्बन्ध स्थापित करने पर प्रभाव डालते हैंअध्यापक उससे शैक्षिक उपलब्धि की अपेक्षा करते हैं और वह इसकी पूर्ति के लिए प्रयासरत रहता है जबकि वह इसी अन्तराल में अपने नये साथियों, विशेषत: विपरीत लिंग के साथियों की अपेक्षाओं की पूर्ति में टकराव का अनुभव भी कर रहा होता हैइन दोनों पक्षों के मध्य सामंजस्य बनाये रखने के प्रयास में उसके व्यवहार में कई नये लक्ष्य विकसित होते हैं; जैसे-अपने वास्तविक संवेगों को छिपाना, झूठ बोलना, कक्षाओं का बहिष्कार करना, सहपाठियों की विचारधारा का कभी अनुमोदन तो कभी विरोध करना आदिबालक-बालिकाएँ इसी अवस्था में अपनी नयी पहचान स्थापित करने का प्रयास कर रहे होते हैं और अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के नये-नये तरीके ढूंढते हैंकिशोरावस्था में बालक-बालिकाएँ प्रायः तीव्र संवेगात्मक उतार-चढ़ाव और इसके फलस्वरूप अवसाद (depression) की स्थिति में 

जाते हैं और अपने लक्ष्य से भी भटक जाते हैं। वह अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को अधिक महत्त्व . देते हैं और अपने व्यावहारिक जीवन में कई प्रकार के प्रयोग करते हैं जो संभवतः एक स्वाभाविक व्यवहार हैऐसी अवस्था में वह अपने नये मित्रों का साथ देते हैं और उनका व्यवहार अपने माता पिता के प्रति परिवर्तित हो जाता हैवह नये मूल्य, नयी अभिरुचियाँ, नयी आदतें (जैसे धूम्रपान) अपनाने लगते हैंकिशोरावस्था के अंतिम चरण में वह नये प्रयोग करने की और नये अनुभवों का स्वाद चखने की चेष्टा करते हैं और इसी में बालक-बालिकाएँ कुछ असामाजिक गतिविधियों के प्रभाव में जाते हैं। 


Kkr Kishan Regar

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