भारत में संघवाद

भारत के संघात्मक लक्षण

भारत के संविधान में संघात्मक लक्ष्यों के साथ-साथ एकात्मक लक्षण भी पाए जाते हैं इसलिए कहा जाता है कि इसकी आत्मा एकात्मक है भारत के संघात्मक लक्षण निम्नलिखित है
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(1) संविधान की सर्वोच्चता - 

भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है तथा राष्ट्रपति, राज्यपाल आदि राज्याध्यक्षों को संविधान पालन की शपथ लेनी होती है। संविधान की रक्षा एवं पालन कराने का भार न्यायपालिका पर भी है। 
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(2) लिखित संविधान - 

केन्द्र और राज्य के क्षेत्राधिकार लिखे हुए है।
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(3) कठोर एवं लचीला संविधान - 

अधिकांशतः लिखित संविधान कठोर होता है जो समयानुसार मांग के अनुरूप नहीं बदलता किन्तु भारतीय संविधान कठोर एवं लचीला दोनों संगम हैं कुछ धाराओं में साधारण बहुमत से ही संशोधन किया जा सकता है।
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(4) शक्तियों का स्पष्ट विभाजन - 

संविधान में केन्द्र - राज्यों की प्रशासनिक,वित्तीय श्रेणियों का स्पष्ट वर्गीकरण किया गया है जिससे मतभेद की संभावना नहीं रहती । संघ सूची के 97 विषय केन्द्रीय प्रशासन हेतु राज्य सूची में 66 विषय राज्य सरकारों के प्रशासन हेतु तथा समवर्ती सूची में 47 विषय ऐसे हैं जिन पर दोनों ही सरकारें (केन्द्र एवं राज्य) कानून बना सकती हैं किन्तु दोनों में मतभेद की स्थिति में केन्द्र का कानून मान्य होगा।
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(5) न्यायपालिका की स्वतंत्रता - 

संघात्मक शासन में जरूरी है कि न्यायपालिका स्वतंत्र हो। वह निष्पसक्ष होकर केन्द्र-राज्य के विवादों का निर्णय करें तभी संविधान की रक्षा कर सकती हैं।
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(6) द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका - 

संघात्मक शासन व्यवस्था में देश की व्यवस्थापिका के दो सदन होते हैं। भारत में लोकसभा एवं राज्य सभा है। लोक सभा में जनता का प्रतिनिधित्व दिया गया है तो राज्य सभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व दिया गया है।
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(7) दोहरा प्रशासन - 

केन्द्र व राज्यों के प्रशासनिक अधिकारी साथ-साथ राज्यों में रहते हैं जो अलग-अलग प्रतिनिधित्व करते हैं। इन सबके होते हुए भी संविधान की आत्मा एकात्मक है जिसका वर्णन निम्नलिखित प्रकार किया जा सकता है -
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(1) संकट काल में एकात्म - 

संविधान के अनुच्छेद 352, 356, 360. अर्थात युद्ध एवं बाहरी आक्रमण, राज्यों में संविधान के प्रावधानों के अनुरूप शासन की विफलता (राज्यपाल शासन) या वित्तीय आपात के समय समस्त शक्तियां राष्ट्रपति (केन्द्र) के पास हो जाती है
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(2) केन्द्र के पक्ष में शक्तियों का वितरण अधिक - 

संघ सूची 99 विषयों में कानून संघ बनाता है, समवर्ती सूची में कानून सद्यपि केन्द्र व राज्य दोनों बना सकते हैं किन्तु विवाद की स्थिति में कानून केन्द्र का ही मान्य होगा, अवशिष्ट सूची में केन्द्र को अधिकार है । राज्य सूची के विषय को भी राज्य सभा राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर केन्द्र के पक्ष में ले सकती है। अतः पलडा केन्द्र का ही भारी है।
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(3) संघ व राज्य के लिए एक ही संविधान - 

अमेरिका में दोनों संविधान अलग-अलग हैं किन्तु भारत में संविधान एक ही है।
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(4) इकहरी नागरिकता - 

भारत का नागरिक चाहे किसी भी राज्य का निवासी हो, नागकिरता उसे भारत की ही मिलेगी। यह भी केन्द्र को शक्तिशाली बनाता है।
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(5) एकीकृत न्याय व्यवस्था-

यहां संघ एवं राज्यों के लिए पृथक-पृथक न्यायालय नहीं है।
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(6) संसद को राज्यों के पुनर्गठन की शक्ति - 

केन्द्रीय संसद को यह अधिकार है कि वह एक राज्य में से दो राज्य बना दे या किसी राज्य की सीमा का विस्तार कर दें।
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(7) राज्य सभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व-

भारत की राज्य सभा के राज्यों की सीटे समान नहीं है। नागालैण्ड का एक सांसद राज्य सभा में चुना जाता है जबकि बिहार के 16 सांसद राज्य सभा मे आते हैं।
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(8) राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति - 

राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि होता है जो केन्द्र के अनुरूप राज्य के शासना पर नियत्रंण लेता है।
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(9) संविधान संशोधन में केन्द्र की सर्वोच्चता-

संविधान में यदि कोई संशोधन होता है तो उसमें केन्द्र की ही भूमिका है राज्यों की भूमिका नगण्य है।
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इसके अतिरिक्त -

(10) राज्यों की दुर्बल वित्तीय स्थिति है। केन्द्र ही करों का बंटवारा करता है जिसमें केन्द्र को अधिक आय होती है।  (11) राज्य विधान मण्डल के कानूनों (कुछ) पर राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति जरूरी है।
(12) प्रशासनिक एकरूपता है जैसे - आई.ए.एस., नियंत्रक एवं महालेखा निरीक्षक, एकल निर्वाचन आयोग, एक ही न्यायपालिकाआदि।
(13) केन्द्र के विशेष उत्तरदायित्व - अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति या अल्पसंख्यकों के विशेष उत्तरदायित्व के नाम पर केन्द्र राज्यों की शक्तियां अपने पास ले लेता है।

इस प्रकार कहा जाता है कि भारतीय संघ की आत्मा एकात्मक हैं ।
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