गीता एवं शिक्षा | गीता की परिभाषा | गीता की महत्ता | गीता के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | गीता के अनुसार पाठ्यक्रम

गीता एवं शिक्षा

[GEETA AND EDUCATION]

गीता की परिभाषा

(DEFINITION OF GEETA)

श्री विनोबा भावे के शब्दों में गीता पुराने शास्त्रीय शब्दों को नये अर्थों में प्रयुक्त करने की आदि है। पुराने शब्दों पर नये अर्थ की कलम लगाना विचार की अहिंसक प्रक्रिया है । व्यासदेव इस प्रक्रिया में सिद्धस्थ हैं इसलिये गीता के शब्दों को व्यापक अर्थ प्राप्त हुआ और वह तरोताजा बनी रही एवं अनेक विचारक अपनी-अपनी आवश्यकता और अनुभव के अनुसार अनेक अर्थ ले सके। 
गीता एवं शिक्षा | गीता की परिभाषा | गीता की महत्ता | गीता के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य | गीता के अनुसार पाठ्यक्रम
गीता एवं शिक्षा 

विनोबा जी ने गीता की परिभाषा करते हुये कहा है कि "जीवन के सिद्धान्तों को व्यवहार में लाने की जो कला या युक्ति है उसी को योग कहते हैं। सांख्य का अर्थ है कि सिद्धान्त अथवा शास्त्र और योग का अर्थ है "कला" । गीता. सांख्य और योग दोनों से परिपूर्ण है और शास्त्र और कला दोनों के योग से जीवन सौन्दर्य खिलता है। कोरा शास्त्र हवाई महल है। इसलिये गीता उपनिषदों का भी उपनिषद् है और अनुभवी पुरुषों ने यथार्थ ही कहा है कि गीता धर्म ज्ञान का एक "कोष है।

महात्मा गाँधी ने गीता की परिभाषा करते हुये लिखा है "गीता जीती-जागती जीवन देने वाली अमर माता है और लोकमान्य तिलक ने गीता के विषय में कहा है कि गीता हमारे धर्म ग्रन्थों का एक अत्यन्त तेजस्वी और निर्मल हीरा है। अगर हम इन महापुरुषों की दी हुई परिभाषाओं पर विचार करें तो ऐसा लगता है कि गीता धर्म-दर्शन का कोष है। आत्मा की उलझन को सुलझाने वाली शक्ति है, दीन-दुखियों का आधार है और सोते को जगाने वाली है क्योंकि यह हमें कर्त्तव्य और कर्त्तव्य का ज्ञान कराती है।

गीता की महत्ता

(IMPORTANCE OF GEETA)

गीता महाभारत का एक अंश है, जिसमें जगद्गुरु श्री कृष्ण द्वारा शिष्य के प्रतीक रूप में अर्जुन को शिक्षा दी गई है। शिक्षा दर्शन की दृष्टि से गीता अमूल्य निधि है। क्योंकि उसमें सभी प्रचलित दार्शनिक मान्यताओं तथा सिद्धान्तों को समाहार मिलता है। भारतीय शिक्षा दर्शन का सार यदि कहीं देखना हो तो वह है गीता में।

गीता में ज्ञान की व्याख्या इस प्रकार की गई है जिसके द्वारा सब प्राणियों में केवल एक निर्विकार भाव देखा जाता है तथा विविधता में जहाँ एकता दिखाई देती है, उसी को सात्विक ज्ञान कहा जाता है।" ज्ञान प्राप्ति का लक्ष्य न केवल मनुष्य जगत् की एकता को पहचानना है अपितु सम्पूर्ण जगत में दिखाई देने वाली भिन्नताओं के अन्तराल में छिपे हुए सर्वात्मा की अनुभूति करना है जो एक और केवल एकमात्र सत्ता है, गीता के अनुसार शिक्षा वह है जो प्रत्येक व्यक्ति में निहित ब्रह्म अथवा परमात्मा की अनुभूति करवाने में सहायक होती है। आत्मा की अनुभूति शिक्षा द्वारा ही हो सकती है जिनके ज्ञानचक्षु खुल गये हैं, वे ही इस अन्तरात्मा के दर्शन कर सकते हैं, मोहान्ध प्राणी नहीं। गीता दर्शन के शिक्षा उपागम देश काल की सीमा से परे सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक हैं जिनके आधार पर शिक्षा व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है।

हीनयान के शब्दों में "भारतीय चिन्तन के क्षेत्र में लोकप्रियता की दृष्टि से गीता का स्थान अन्य किसी ग्रन्थ से कम नहीं है। इसकी अत्यन्त श्लाघा की गई है तथा आज भी इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती जा रही है।"

गीता की शैक्षिक पृष्ठभूमि

(EDUCATIONAL BACKGROUND OF GEETA)

उत्तर वैदिक काल में उपनिषदों के प्रभाव से यद्यपि वैदिक यज्ञों व कर्मकाण्ड के प्रति जन साधारण की रुचि कम हो गयी थी तथापि मोक्ष प्राप्ति हेतु निवृत्ति मार्ग अर्थात् संन्यास पर अधिक बल दिया जाने लगा था इससे लोगों में सामाजिक दायित्व एवं कर्मशील जीवन के प्रति विरक्ति उत्पन्न होने लगी थी। प्रवृत्ति मार्ग को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा था। निर्गुण ब्रह्म की उपासना एवं ज्ञानमार्ग को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। यह प्रवृत्ति सामाजिक विघटन एवं संसार के प्रति विरक्ति उत्पन्न कर रही थी। इस असन्तुलन को दूर करने व निवृत्ति एवं प्रवृत्ति मार्ग में सामंजस्य एवं समन्वय लाने हेतु एक ऐसे चिन्तन की आवश्यकता थी जो लोगों का ध्यान सामाजिक दायित्वों की ओर आकर्षित कर उन्हें कर्मशील बना सके तथा साथ ही प्रवृत्ति मार्ग से उत्पन्न स्वार्थ भावना को नियन्त्रित कर सामाजिक कल्याण की भावना विकसित कर सके। यह सन्तुलित दृष्टिकोण गीता प्रस्तुत कर सकी। गीता दर्शन से शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम व शिक्षक शिक्षार्थी सम्बन्ध भी प्रभावित हुए।

गीता शिक्षा दर्शन सार्वकालिक है। इसका सम्बन्ध काल विशेष से नहीं है। सामाजिक परिवर्तन सदैव होते रहते हैं और उस परिवर्तन के अनुरूप सामाजिक प्रक्रिया को नियन्त्रित करने के लिए शिक्षक को सदा अवतार की भूमिका निभानी पड़ती है। सामाजिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न कुंठा को दूर करने के लिए शिक्षक को प्रयास करना पड़ता है। गीता में कृष्ण ने तत्कालिक धार्मिक एवं सामाजिक विकृतियों को दूर करके मानव को "निष्काम कर्मयोग का पाठ पढ़ाने हेतु अवतार लेकर शिक्षक की भूमिका निभाई थी। गीता का शैक्षिक दर्शन उपनिषदों के दार्शनिक विचारों की चरम परिणति है जिसमें ज्ञानयोग भक्तियोग से कर्मयोग का समन्वय कर एक सार्वकालिक एवं सार्वदेशीय शिक्षा दर्शन का विकास किया गया है। गीता की शिक्षा का आधुनिक मानव के लिए महत्व प्रदर्शित करते हुए डॉ० रामगोपाल शर्मा लिखते हैं गीता एक विश्व दर्शन है उसकी शिक्षाएँ अर्जुन की तरह कि कर्त्तव्य विमूढ़ हुए प्रत्येक मानव के लिए मार्ग-दर्शन है। गीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्मयोग का सन्देश आज मानव के लिए अत्यन्त उपयोगी है। फल की आसक्ति के त्याग द्वारा ही कर्म स्वार्थ के धरातल के ऊपर उठकर कल्याण का साधन बन सकता है। गीता मनुष्य के सामाजिक स्वरूप पर बल देती है और निःस्वार्थ कर्मशील जीवन का समर्थन करती है। आज मानवता के लिए इस शिक्षा का बहुत महत्व है।"

गीता के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

(AIMS OF EDUCATION ACCORDING TO GEETA) गीता के अनुसार शिक्षा वह है जो प्रत्येक व्यक्ति में निहित ब्रह्म अथवा परमात्मा की अनुभूति करवाने में सहायक होती है। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को उस अज्ञान से मुक्त कराना है, जो भेद उत्पन्न करने वाला है तथा आत्मानुभूति में बाधक है तथा उसे उस प्रकाश में ले जाना है जो भेद में अभेद का दर्शन करवाता है जो सभी प्राणियों में संस्थित परमात्मा की अनुभूति करवाता है। अन्य भारतीय दर्शनों के समान ही गीता का आग्रह भी मनुष्य को वह आध्यात्मिक मुक्ति दिलवाना है, जिसके द्वारा समग्र व्यक्तित्व का रूपान्तरण हो जाता है। जिसके फलस्वरूप मानवीय प्रकृति देवी प्रकृति बन जाती है, नैतिक आचरण सहज बन जाते हैं तथा दैवी संकल्प से कर्म करता है। उसकी शुद्धिकृत प्रकृति का दैवी प्रकृति में समाहार हो जाता है। मुक्ति इस जगत से परे नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए मानवीय जीवन के तनावों को नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, अपितु उन्हें रूपान्तरित करने की आवश्यकता है। मुक्त मनुष्य के शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि नष्ट न होकर इस प्रकार शुद्ध हो जाते हैं कि उनके माध्यम से ईश्वरीय ज्योति के दर्शन किये जा सकते हैं।

शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों का सुन्दर विवेचन गीता में मिलता है। रणभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य खड़े हुए अर्जुन की मानसिक स्थिति व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं सामाजिक कर्तव्य के बीच झूलती सी दिखाई देती है। एक तरफ क्षेत्रिय होने के नाते सामाजिक कर्तव्य उससे अपेक्षा करता है कि उसे युद्ध करना चाहिये क्योंकि वह क्षत्रिय है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया कि उसे व्यर्थ का मानसिक तर्क वितर्क छोड़ देना चाहिए कि उसके लिए क्या करना उचित है तथा क्या अनुचित है, परन्तु अर्जुन इस प्रकार की मानसिक शान्ति प्राप्त करना नहीं चाहता। वह अपने आपको एकदम अकेला तथा अद्वितीय पाता है। गीता के अनुसार मनुष्य को निर्णय लेने की स्वतन्त्रता है तथा कर्म करने की स्वतन्त्रता है तथापि इस स्वतन्त्रता के फलस्वरूप मनुष्य अकरणीय नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर ईश्वर निवास करता है और जब व्यक्ति अन्त करण की प्रेरणा से कोई कर्म करता है तो उसके पीछे ईश्वरीय प्रेरणा विद्यमान रहती है। चूँकि सभी प्राणियों में वही ईश्वर विद्यमान है, इसलिए "स्वभाव' अथवा 'स्व-धर्म की सहज प्रवृत्ति से प्रेरित मनुष्य का कर्म सामाजिक अहित का कारण बन ही नहीं सकता।

सामाजिक परिवर्तन के कारण उत्पन्न कुसमायोजन से निबटने के लिए शिक्षा को अध्यवसाय करना पड़ता है इसी को कर्म कहा जाता है। आज के युग में कर्म की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। मौलिक सृजन, वैज्ञानिक विकास, औद्योगिक क्रान्ति, अधिक उत्पादन, सभी कुछ कर्माश्रित हैं, परन्तु गीताकार मनुष्य को एक तरफ से कर्म के फल से उत्पन्न अहंकार से बचाता है तो दूसरी ओर कर्म के विफल होने की कुंठा से भी उसकी रक्षा करता है। सामाजिक प्रगति के लिए यदि मनुष्य कर्म करता है और उससे समाज आगे बढ़ता है तो इसका श्रेय कर्मकार को नहीं है. बल्कि ईश्वर को है। इस प्रकार कर्म करते हुए भी यदि सफलता नहीं मिलती है तो इसके लिए भी वह उत्तरदायी नहीं है ।

"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" अर्थात् मनुष्य का अधिकार कर्म में है, फल में नहीं। मनुष्य को तो कर्म करने का अधिकार है, शुभाशुभ कर्मों का फल उसे भगवान पर छोड़ देना चाहिये। शिक्षा कर्म की प्रक्रिया में है, उसके द्वारा प्राप्त प्रमाण पत्र में नहीं। प्रत्येक विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी पूरी शक्ति से भरसक प्रयास करना चाहिए, सफलता या असफलता को प्रभु पर छोड़ देना चाहिए। यही अपेक्षा शिक्षक से भी की गई है कि उसे अपना कार्य उत्कृष्ट रूप से पूरे परिश्रम के साथ करना चाहिए और उसके परिश्रम का फल भगवान पर छोड़ देना चाहिए। गीता की कर्मनिष्ठता शिक्षा के कर्म पक्ष में उस पवित्रता को मिश्रित करती है, जिसमें कर्म करते हुए भी व्यक्ति में आसक्ति की भावना नहीं होती।

गीता के अनुसार पाठ्यक्रम

(CURRICULUM ACCORDING TO GEETA)

उपनिषद् के समान गीता में भी पाठ्यक्रम को दो भागों में विभक्त किया गया है - एक को "अपरा विद्या" कहा गया है तथा दूसरे को "परा" संज्ञा दी गई है। अपरा विद्या के अन्तर्गत सभी प्रकार के विज्ञानों का अध्ययन तथा मन एवं बुद्धि से प्राप्त अनुभवात्मक ज्ञान आता है।

परा विद्या के अन्तर्गत आत्मज्ञान आता है। यह ज्ञान, नित्य पूर्ण तथा सनातन है। अपरा प्रकृति के प्रत्येक उपादान के पीछे परब्रह्म ईश्वर की सत्ता विद्यमान है यही पराविद्या का सार है। शिक्षा क्रम शैक्षिक उद्देश्यों तक पहुँचने का मार्ग है। "अपरा "विद्या" के माध्यम से जगत् के पीछे निहित चेतन सत्ता की भूति करवाने के लिए विज्ञान, समाजशास्त्र, साहित्य कला उद्योग सभी सहायक होते हैं। केवल दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए। छात्र जगत् का अध्ययन करते हुए भी उसी को पूर्ण न मानकर उसके पीछे निहित चैतन्य सत्ता को समझे। शरीर को ही सर्वस्व न मानकर इसमें निहित उस दैवी सत्ता को पहचाने।

गीता द्वारा निर्देशित पाठ्यक्रम से शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हो सकेगी। इस प्रकार गीता के अनुसार पाठ्यक्रम बालक को सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करना सिखाता है, अन्तरात्मा की आवाज को सुनने, समझने एवं उनका अनुसरण करने की योग्यता प्रदान करता है। सामाजिक दायित्व को काल एवं देश सापेक्ष होते हैं। परन्तु अन्तरात्मा उसे विवेक से परखने की योग्यता प्रदान करता है।

गीता के अनुसार व्यवहार की कसौटी समाज द्वारा मान्य व्यवहार नहीं अपितु अन्तरात्मा की प्रकृति के अनुरूप व्यवहार है।

गीता में शिक्षक संकल्पना

(CONCEPT OF TEACHER ACCORDING TO GEETA)

गीता में शिक्षक संकल्पना अपने मूलभूत एवं आधारित अर्थों में आदर्शवादी दर्शन के अधिक निकट है जिसके अनुसार गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा साक्षात् परब्रह्म की कोटि में रखा गया है। इसी भावना को प्रतिध्वनित करता हुआ गीतान्तर्गत शिक्षार्थी अर्जुन शिक्षक कृष्ण की अभ्यर्थना आदि देव के रूप में करता है।

गीता के शिक्षा दर्शन में शिक्षा प्रक्रिया के संचालन में शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों की समान सहभागिता है । गीतोक्त शिक्षक संकल्पना के सम्बन्ध में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए श्री अरविन्द कहते हैं-

वास्तव में गीता में तीन मुख्य बातें महत्वपूर्ण हैं - वे तीन बातें हैं- शिक्षक कृष्ण का दिव्य व्यक्तित्व, कृष्ण का अपने शिष्य से विशेष सम्बन्ध एवं शिक्षण का विशेष अवसर। यह शिक्षक स्वयं ईश्वर है जो मानवी रूप में अवतरित हुआ है और शिष्य जैसा कि हम आधुनिक भाषा में कह सकते हैं अपने युग के मानव का प्रथम प्रतिनिधि है जो कृष्ण का घनिष्ठ मित्र है और इस अवतार द्वारा चुना गया साधन है। वह अत्यन्त महान कार्य और संघर्ष में रत है जिसका मुख्य प्रयोजन इस कार्य में भाग लेने वालों को ज्ञात नहीं है। केवल अवतार कृष्ण के अतिरिक्त जो अपने अपरिमित ज्ञान पर्दे के पीछे से निर्देश दे रहे हैं और अवसर एक हिंसात्मक कार्य और संघर्ष की वह संक्रान्त अवस्था है, उस क्षण उसकी प्रक्रिया में विद्यमान नैतिक कठिनाई पीड़ा एवं अन्ध हिंसा स्वयमेव इसके प्रतिनिधि मानव के मन में एक स्पष्ट आघात को बरबस प्रगट करती है।

शिक्षा के सन्दर्भ में उपर्युक्त प्रस्तुति न केवल इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि कृष्ण ईश्वर हैं वरन् इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि मानव के रूप में यथार्थ के धरातल पर टिका हुआ यह महान गुरु अपने शिक्षण के माध्यम से समस्त शिक्षा शास्त्र जो मानव अस्तित्व के लिये सम्भाव्य है - इसकी रूपरेखा प्रस्तुत कर रहा है। वस्तुतः गीता में गुरु शिष्य सम्बन्ध मात्र सूचनागत नहीं है वरन् अस्तित्वगत है । उस स्थिति में शिक्षार्थी का समर्पण और शिक्षक का अनुग्रह एक ही पार्श्व के दो पक्ष बन जाते हैं। गीता का शिक्षक मात्र दान प्रदाता नहीं है वरन् शिक्षार्थी अर्जुन का घनिष्ट मित्र है। उसके दुःख का साक्षी है तथा व्यामोह और ऊहापोह की स्थिति में अर्जुन का मार्गदर्शक है। गीता में अर्जुन का स्थान-स्थान पर श्रीकृष्ण को "अच्युत" कहकर सम्बोधित करना इस आशय को प्रगट करता है कि श्रीकृष्ण न केवल अर्जुन के रथ के सारथी हैं वरन् समस्त जीवन के सारथी हैं। वे अपने रथ और रथी से कभी विलग नहीं होते। स्पष्ट है कि गीता में शिक्षक शिक्षार्थी के अनौपचारिक सम्बन्धों पर बल है। गीता का शिक्षक कृष्ण शिष्य को उस क्षण शिक्षण प्रदान करता है जब उसका मनोवैज्ञानिक विकास अवरुद्ध हो जाता है मानसिक, नैतिक और संवेगात्मक मूल्यों का दिवाला निकल चुका होता है। ऐसे समय में शिक्षक श्रीकृष्ण का कार्य शिक्षार्थी अर्जुन को निम्न जीवन से उच्च चेतना की ओर ले जाना है।

शिक्षा से यह अपेक्षा की जाती हैं कि जिस विद्या को वह अपने छात्रों को देना चाहता है वह स्वयं उसमें निष्णात हो। गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण सृष्टि विज्ञान के प्रकाड पण्डित तत्वदर्शी एवं तत्व ज्ञानी हैं। किन्तु गीता के अनुसार प्रज्ञावान केवल बुद्धिवान व्यक्ति ही नहीं हैं। प्रज्ञावान वह है जो वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं आदि के तथ्यों का उचित रूप में अध्ययन कर उनकी व्याख्या करने में सक्षम है। इस अर्थ में गीता का शिक्षक प्रज्ञावान है जिन्होंने अपने शिष्य के गूढ़ से गूढ़, जटिल से जटिल प्रश्नों के धैर्यपूर्वक विधिवत् समाधान प्रस्तुत किये हैं। इसी प्रकार सांख्य निष्ठा एवं योग निष्ठा, कर्म सन्यास और निष्काम कर्मयोग जैसे व्याधात्मक सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं की सशक्त विश्लेषणात्मक प्रस्तावना तथा व्याख्या और पुनः उनकी सारगार्भित संश्लेषणात्मक प्रस्तुति गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण के ज्ञान, गाम्भीर्य, तीक्ष्ण और धैर्यवान दृष्टि की ही परिचायक है।

जनतन्त्रात्मक शिक्षा

(DEMOCRATIC EDUCATION)

गीता का शिक्षक महान प्रजातांत्रिक है। गीता में अपने स्थानों पर इति म मति : का कथन कर गुरु की निरहंकारिता का ही प्रदर्शन है। साथ ही इस मान्यता की पुष्टि कि ज्ञान आरोपण की वस्तु नहीं है "ऐसा मेरा मत है" इसमें मानने का आग्रह नहीं है "मानो या न मानों की स्वतन्त्रता सुरक्षित है। गीता में कहीं भी गुरुत्वाभिमान की दुहाई नहीं दी गई है। वहाँ स्वामित्व की भावना का अभाव है। छात्र के व्यक्तित्व के प्रति समादर भाव है। शिक्षक को मत देने का अधिकार" है किन्तु निर्णय की स्वतन्त्रता छात्र की है। गीता का सम्पूर्ण ज्ञान देने के पश्चात् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

हे अर्जुन ! मैंने तुम्हें गुप्त से गुप्त ज्ञान प्रदान कर दिया । इस रहस्य युक्त ज्ञान को सम्पूर्णता से अच्छी तरह विचार करने के बाद फिर तू जैसा चाहता है वैसा कर अर्थात् जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर ।

स्पष्ट है कि हस्तक्षेप के प्रकृतिवादी अभिप्राय को गीता स्वीकार नहीं करती वरन् यथासमय यथोचित हस्तक्षेप की प्रयोजनवादी संकल्पना गीतोक्त अभिप्राय को स्पष्ट करने में सक्षम है।

मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार शिक्षा


(EDUCATION ACCORDING TO PSYCHOLOGICAL PRINCIPLES) गीता के शिक्षक उच्चकोटि के मनोवैज्ञानिक हैं। अर्जुन द्वारा पूछे गये प्रश्नों के पूर्ण जनतांत्रिक सहानुभूति के साथ उन्होंने उत्तर दिये हैं। साथ की कुछ ऐसी बातें भी कह दी हैं कि जिससे अर्जुन की मनोभूमि में अंकुरित सन्देह के बीज जिज्ञासा

बनकर प्रस्फुटित हो जायें, कृष्ण ज्ञानाग्नि से उनको भस्मसात कर दें ताकि अर्जुन की मानसिकता स्वच्छ और धवल हो जाए। अर्जुन की शंका और जिज्ञासा दर्शनीय है, किन्तु मनोविद् तथा मनोचिकित्सक श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन की प्रत्येक शंका उसके मन की सूचना देती है और इस तथ्य को बताती है कि वह किस काल पर स्थित है इसलिए दमन से नहीं प्रोत्साहन से अचेतन में निहित जो कुछ भी है उसे बाहर लाया जा सकता है। अर्जुन की मानसिक और आत्मिक रोगग्रस्तता के कारणों का पता लगाने का भरसक प्रयत्न, तदनुकूल अप्रत्यक्ष एवं मौन सुझाव की जिसे मनोवैज्ञानिक भाषा में कन्ट्रा सजेशन कहा जाता है-शिक्षक श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत इस बात की सूचक है कि मानसविद एवं मनोचिकित्सक फ्रायड ने आधुनिक मनोविज्ञान को जो मनोविश्लेषण विधि प्रदान की इसका प्रयोग गीता में भरपूर किया गया है।

इसके अतिरिक्त गीता में यत्र तत्र सर्वत्र शिक्षक द्वारा शिक्षार्थी के प्रति जो सम्बोधन किए हैं यथा पार्थ, (अध्याय 1/25), पृथा पुत्र, परंतप (2/3), धनंजय (2/48), हे प्यारे ( 6/47) महाबाहो ( 6/41, 43: 10/1) कुरू श्रेष्ठ (10/19) सव्यसाचिन् (11 / 33 ) पुरुष श्रेष्ठ ( 18/4) भारत (18/62) -उनके माध्यम से अनेक मनोवैज्ञानिक अभिप्रायों की सिद्धि होती है यथा-शिक्षार्थी को प्रोत्साहित करना, उसकी जिज्ञासा के प्रति प्रशंसा भाव व्यक्त करना, शिक्षार्थी को श्रवण हेतु तैयार करना, उसके अहंकार को तृप्त करना, प्रेम का बीज बोकर श्रद्धा भाव विकसित करने का प्रयत्न आदि । स्पष्ट है कि सम्पूर्ण गीता में इस तथ्य का पृष्ठपोषण किया गया है कि शिक्षक शिक्षार्थी सम्बन्ध जितने अधिक गहन और प्रेमपूर्ण होंगे सत्य उतनी ही मात्रा में भलीभाँति सम्वादित होगा।

छात्र की रुचि एवं क्षमताओं के अनुसार शिक्षा

(EDUCATION ACCORDING TO INTEREST AND APTITUDE OF STUDENT )

सर टी० पसींनन कहते हैं प्रत्येक अवस्था में यह स्पष्ट है कि बच्चों की जन्मजात योग्यता, विशिष्ट गुण और रुचियाँ बड़ी भिन्न होती हैं, इसलिए एक ही शैक्षिक शासन सभी की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। आशय स्पष्ट है कि प्रत्येक शिक्षा व्यवस्था को जैविक विरासत की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। डॉ० राधा कुमुद मुकर्जी ने भी कहा है कि क्या यह सम्भव है कि अनेक प्रकार के रोगियों को एक ही इलाज दिया जा सके। जब यह शरीर की बीमारियों के लिये सम्भव नहीं है तब फिर उस अदृश्य तत्व के लिये विभिन्न चेतनाओं के लिये विभिन्न नैतिक दशाओं के लिए कैसे सम्भव हो सकता है। निश्चित ही आधुनिक समाजवादी राज्य में शिक्षा का यन्त्रीकरण सबसे अन्तिम बात होगी।

अपरिवर्तित तीनों मत गीता के मन्तव्य को भली-भाँति स्पष्ट करते हैं जो इस गम्भीर गहन तथ्य में विश्वास करती है कि जीवन संगीत है जिसमें सात स्वरों का योगदान है। अतः शिक्षा को ऐसे विश्व का निर्माण करना है जहाँ सब गौरवान्वित हों एवं जहाँ सभी की शक्तियाँ अपनी पूर्णता में प्रस्फुटित हों । तदर्थ शिक्षक का चिन्तन इस प्रयत्न से सम्बद्ध होना चाहिए कि बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ क्या हैं और उसका मानस किस प्रकार कार्य करता है। नवीन ज्ञान प्रदान करने से पूर्व इस प्रकार की अभिप्रेरणा आवश्यक है। गीता में इस बात का बलपूर्वक व्यवहार करते हैं। संयम व इन्द्रिय निग्रह भी प्रकृति की इस प्रबल शक्ति को रोक नहीं सकते। गीता में इस प्रकृति को स्वधर्म अथवा सहज कर्म कहा गया है एवं तदनुकूल शिक्षा आयोजन का समर्थन किया गया है।

गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण यह जानते हैं कि रुचि चेतना का गुण है और इसी को मापदण्ड बनाकर बालक निश्चित चयन करता है। तदर्थ श्रीकृष्ण ने अर्जुन के समक्ष क्रमशः ज्ञान, योग, प्राण, अपान एवं भक्ति के सिद्धान्तों की प्रस्तुति के माध्यम से अर्जुन की रुचि का ज्ञान प्राप्त करने के लिये अनेक परीक्षण किये। वे अर्जुन की क्षमता और शक्तियों से भी भलीभाँति परिचित हैं। वे भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन की आत्मा ज्ञान की जिज्ञासा मात्र असत्य तर्क संगति का शिकार है. मात्र तात्कालिक परिस्थिति जन्य है । अतः वे ज्ञान की अपेक्षा उसे कर्म का उपदेश देते हैं. कृष्ण उसे युद्ध का ही उपदेश देते हैं, क्योंकि वह भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन क्षत्रिय होने के अतिरिक्त कुछ नहीं हो सकता। वह मन, शरीर और प्राण से क्षत्रिय है। कृष्ण के परम ऐश्वर्य रूप दिव्य स्वरूप का प्रदर्शन इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि ऐश्वर्य से मर जाना क्षत्रिय की प्रथम वासना है। अर्जुन ऐश्वर्य की ही भाषा समझ सकता है

श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन से यह कथन करना कि अब मैं तेरे लिये अपनी दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूँगा इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करता है कि उन्हीं बातों की चर्चा अर्जुन से की जाएगी जो उसकी रुचि के अनुरूप हैं। अर्जुन द्वारा सगुण और निर्गुण मार्ग की अपेक्षित श्रेष्ठता के सम्बन्ध में पूछे गये श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त उत्तर पुनः इस बात की सूचना देते हैं कि प्रश्न मार्ग की उत्तमता का नहीं है। प्रश्न यह है कि बालक की स्वयं की पात्रता, रुचि, लक्ष्य, क्षमता और स्वभाव क्या है, निजी झुकाव क्या है सार रूप में उसके व्यक्तित्व का ढाँचा क्या है। तदनुकूल मार्ग का चयन बाल व्यक्तित्व में निहित सम्भावनाओं को पूर्णता तक पहुँचा देता है।

शिक्षक को अत्यन्त धैर्यवान होना चाहिए ताकि वह समस्या के मुख्य बिन्दु को छू ले और त्वरित समाधान प्रस्तुत कर सके। निःसन्देह गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण ने इस परम गुण को सतत् मुखरित किया है। जिज्ञासा से जन्मित प्रश्नों का उत्तर पाने की आकांक्षा में अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण पर की गई प्रश्नों की बौछार विद्वान शिक्षक के सभी अधैर्य का कारण बन सकती है किन्तु कृष्ण बुद्ध की भाँति यह नहीं कहते कि "वही पूछो जो तुम जानना चाहते हो।" वह सुकरात के समान अर्जुन को अज्ञानी भी सिद्ध नहीं कर सकते थे। वरन् प्रत्येक प्रकार से उसके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर सहज भाव से धैर्यपूर्वक इस आशा और विश्वास के साथ देते चले जाते हैं कि बुद्धि के मोह रूप दल-दल से तर जाने पर श्रवण करने योग्य होता और समत्व रूप योग को प्राप्त होगा। उस स्थिति में समस्त प्रश्न ढह जाएँगे और उनके द्वारा प्रदत्त उत्तर अर्जुन के जीवन की क्रान्ति के वाहक सिद्ध होंगे। अध्याय नवम् में सर्वत्र अपने व्याप्ति का आश्वासन देने पर भी जब अर्जुन की जिज्ञासा शान्त नहीं होती. कृष्ण विभूति योग का वर्णन करते हैं। यह वर्णन भी अर्जुन की जिज्ञासा को तृप्त नहीं कर पाता। कृष्ण विराट रूप का दर्शन कराते हैं इस प्रकार ज्ञान में भी परम उत्तर ज्ञान मैं तेरे लिये कहूँगा इस कथन की पुनः पुनरावृत्ति इस तथ्य की सूचक है कि गुरु थकता ही नहीं। वस्तुतः ऐसे ही अच्युत (जिसे डिगाया न जा सके) के प्रति शिष्य कह पाता है कि "हे अच्युत । आपके प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशय रहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।'

आस्था व आशा का संचार

(COMMUNICATION OF HOPE AND OPTIMISM)

आस्था और आशा मानवीय विकास के लिये चाहे वह अभ्युदय हो अथवा निःश्रेयस महान सशक्त चेतन तत्व हो, गीता यह आवश्यक समझती है कि मानव अपनी गरिमा को पहचाने और उस गरिमा का बोध उसे प्रारम्भ से ही कराया जाए। वस्तुतः यह उच्चता की ग्रन्थि नहीं है अपितु मूल सत्य के प्रति ध्यानाकर्षण है । अतः इस दृष्टि से गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण ने शिक्षार्थी अर्जुन में निहित असीम सम्भावनाओं के प्रति आस्था उत्पन्न करने, उसके उसकी दिव्यता के प्रति आश्वस्त करने के महान उत्तरदायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है। श्रीकृष्ण का अर्जुन के प्रति उद्बोधन "हे अर्जुन तू युद्ध कर", "इसलिये हे अर्जुन तू युद्ध का निश्चय करके उठ", इसीलिये तू मोह छोड़कर अपना कर्त्तव्य कर" अपनी शक्ति को समझकर दुर्जय कामरूप शत्रु को मार" क्योंकि यह जीवात्मा आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। कृष्ण का लक्ष्य अर्जुन में अपनी शक्ति के प्रति आस्था और विश्वास जाग्रत कराना है। कृष्ण जैसे मनोवैज्ञानिक शिक्षक द्वारा अर्जुन को निष्पाप कहकर सम्बोधित करने का अभिप्राय यही है कि अपने अन्तर में छिपे हुए चिन्मय को पहचान सके, यहाँ निष्पाप होने का अर्थ पुण्य धर्म से नहीं वरन् आत्मा की विकास सहितता से है। इस प्रकार आस्था और विश्वास के संचार करने की दृष्टि से गीता का शिक्षक स्वयं में एक अनुपम उदाहरण है जिसने यह कथन कहकर अर्जुन के खोये हुये आत्म विश्वास को पुनः जाग्रत किया । "निःसन्देह युद्ध में तू बैरियों को जीतेगा इसलिये युद्ध कर" तू स्वयं अपने भविष्य का निर्माता है साथ ही साथ धर्म की पुनः स्थापना के लिये परमात्मा का साधन इसलिये हे सव्य सांचिन तू निमित्त मात्र हो जा तथा सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ । मैं तूझे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर । शैक्षिक निहितार्थ की दृष्टि से इस प्रस्तुति का आशय यही है कि शिक्षक शिक्षार्थी को संकल्प की शुभता के प्रति जागृत कर दे। शिक्षा में इसी विधेयात्मक अभिवृत्ति के अनुगमन की ओर गीताक्तशिक्षक ने बल प्रदान किया है।

गीता शिक्षा दर्शन की वर्तमान युग में प्रासंगिकता

(RELEVANCY OF EDUCATIONAL PHILOSOPHY OF GEETA IN THE PRESENT TIMES)

विशृंखलित समाज को उन्नत करने के लिये परमात्मा को किसी शिक्षक के रूप में अवतार धारण करना पड़ता है। सामाजिक परिवर्तन सतत् प्रक्रिया है और उस परिवर्तन के अनुरूप सामाजिक प्रक्रिया को नियन्त्रित करने के लिए शिक्षक को सदैव अवतार की भूमिका निभानी पड़ती है। सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न कुंठा को दूर करने के लिये शिक्षक को प्रयास करना पड़ता है। सामाजिक परिवर्तन के कारण उत्पन्न कुसमायोजन से निपटने के लिये शिक्षा को अध्यवसाय करना पड़ता है। इसी को कर्म कहा जाता है।

आज के युग में कर्म की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। मौलिक सृजन, वैज्ञानिक विकास, औद्योगिक क्रान्ति, अधिक उत्पादन सभी कुछ कर्माश्रित हैं परन्तु गीताकार मनुष्य को एक तरफ कर्म के फल से उत्पन्न अहंकार से बचाता है तो दूसरी ओर कर्म के विफल होने की कुंठा से भी उसकी रक्षा करता है, सामाजिक प्रगति के लिये यदि मनुष्य कर्म करता है तो उससे आगे बढ़ता है और इसका श्रेयकर्मकार को नहीं बल्कि ईश्वर को है, इस प्रकार कर्म करते हुये भी यदि सफलता नहीं मिलती तो इसके लिए भी वह उत्तरदायी नहीं है। मनुष्य को तो कर्म करने का अधिकार है, शुभाशुभ कर्मों का फल उसे भगवान पर छोड़ देना चाहिये । शिक्षा कर्म की प्रक्रिया में है, उसके द्वारा प्राप्त प्रमाण पत्र में नहीं। गीता की कर्मनिष्ठा शिक्षा के कर्म-पक्ष में उस पवित्रता को मिश्रित करती है, जिसमें कर्म रहते हुये भी व्यक्ति में आसक्ति की भावना नहीं होती।

इस परिवर्तनशील संसार में कौन नहीं जन्मता-मरता परन्तु जन्म लेना उन्हीं का सफल होता है जो अपने वंश और जाति की उन्नति करते हैं।

एक योद्धा, एक विज्ञानी अथवा कलाकार या कवि, निर्दिष्ट सफलताओं द्वारा आँका जाता है। विदेशी शत्रुओं पर विजय पाने से योद्धा अज्ञान और अन्धविश्वास पर विजय पाने से वैज्ञानिक दुःख पर विजय पाने और चिन्ता के स्थान पर आनन्द लाने से कवि और कलाकार आँका जाता है, जो वर्तमान तथा भविष्य के लिये सुख के बीज बो जाता है ।

गीता वर्तमान युग के लिये उपयोगी है, जो व्यक्ति के प्रति सचेष्ट भावना का उद्दीपन कर और कर्म करने को जाग्रत करती है। मानव के मन में चल रहे द्वन्द्व हों अथवा संसार के मध्य उत्पन्न दुःखाच्छादित आकाश का तम कर्म पथ पर अग्रसर होने से ही दूर हो सकता है। इसलिये गीता पग-पग पर हर युगीन विभूतिमान बनने के हेतु प्रेरणादायक चिरस्थायी शिक्षक है जिसकी उपयोगिता सर्वकालिक तथा सर्वभूत हिंसात्मक ही है ।

भारतीय नीति शास्त्र में भगवद्गीता ने एक सर्वांगपूर्ण नैतिक सिद्धान्त उपस्थित किया है, जिस प्रकार दर्शन के क्षेत्र में गीता ने एक समन्वयवादी और पूर्णतावादी मार्ग उपस्थित किया है उसी प्रकार नीति के क्षेत्र में भी विभिन्न नैतिक सिद्धान्तों का समन्वय करती है।

इस प्रकार गीता जीवन के एक सार्वभौम दर्शन की पुस्तक है। भागवद्गीता में प्रस्थापित तथ्यों का महत्व आज भी पूर्ववत् बना हुआ है। क्योंकि यह धर्म को उस विश्व जनीन के रूप में प्रस्तुत करती है जो देश और काल की सीमाओं से परे है। श्रीमद्भगवद् गीता के दूसरे अध्याय से गीता की शिक्षा का आरम्भ होता है और प्रारम्भ में ही श्रीकृष्ण जीवन के महासिद्धान्त बता रहे हैं जिसका आशय है कि प्रारम्भ में ही जीवन के वे मुख्य तत्व दृष्टिगोचर हो जायें और सबके मस्तिष्क में रम जाएँ जिनके आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना है तो उल्लेशेखर मार्ग सरल हो जायेगा। गीता में ही सांख्य बुद्धि शब्द का अर्थ जीवन के मूलभूत सिद्धान्त से लिया गया है। इन मूल सिद्धान्तों को हम जब तक सांख्य शब्द के प्रसंग से गीता के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का थोड़ा स्पष्टीकरण न कर लें तब तक उपयुक्त न होगा ।
Kkr Kishan Regar

Dear friends, I am Kkr Kishan Regar, an enthusiast in the field of education and technology. I constantly explore numerous books and various websites to enhance my knowledge in these domains. Through this blog, I share informative posts on education, technological advancements, study materials, notes, and the latest news. I sincerely hope that you find my posts valuable and enjoyable. Best regards, Kkr Kishan Regar/ Education : B.A., B.Ed., M.A.Ed., M.S.W., M.A. in HINDI, P.G.D.C.A.

एक टिप्पणी भेजें

कमेंट में बताए, आपको यह पोस्ट केसी लगी?

और नया पुराने