मैथिलीशरण गुप्त : काव्य की विशेषता, काव्य का संवेदन

तीन अगस्त 1986 को चिरगांव झांसी में जन्मे गुप्त अपनी सादगी और सरलता के लिए जितना विख्यात रहे उतनी ही अपनी राष्ट्रीयता भावनायुक्त कविताओं के लिए उनकी रचनाओं के विशाल केनवास पर नजर डालेंगे तो एक चीज हर जगह समाहित नजर आती है। वह है उनकी राष्ट्र के प्रति अगाध भक्ति राष्ट्र को लेकर उनकी चेतना पारंपरिक 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा को साथ लेकर चलती है लेकिन जब लगता है कि करुणाभाव राष्ट्र को कमजोर कर सकता है तो वे निज गौरव के प्रति आग्रहीभाव रखने से खुद को नहीं चूकते।
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मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में राष्ट्रीय चेतना

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ ऐसी है जिन्हें वैदिक सूत्रों की तरह सूक्त वाक्य के तौर पर प्रदर्शित किया जा सकता है। पिछली सदी के विद्यालयों में बच्चों को प्रेरित करने के लिए सबसे ज्यादा स्कूलों की दीवारों पर किसी की रचनाओं ने बतौर सूक्त वाक्य जगह बनाई थी। वे राष्ट्रकवि गुप्त की ही रचनाएँ थी। विद्यालय की दीवार पर पहली बार आज से करीब साढ़े तीन दशक पहले पढ़ी गई यह पंक्ति किसको भाव से नही भर देती :
'जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।'

वो नर नहीं नर पशु निरा और मृतक समान है। आज राष्ट्र की अवधारणा को संकुचित करने में एक वर्ग अपनी बहुत ज्यादा ऊर्जा खर्च कर रहा था। उसे लगता है कि राष्ट्र की अवधारणा को खण्डित किए बिना देश का विकास नहीं हो सकता। एक वर्ग यह समझने में भी जुटा है कि राष्ट्र बजाए एक खास विचारधारा के जरिए ही दुनिया में सुख शान्ति लाई जा सकती है। काश कि ऐसे लोग मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों की ओर ध्यान देते

जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं। 
वो हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।। 
मैथिलीशरण गुप्त को सही मायने में राष्ट्र चेतना का सजग प्रहरी कहा जा सकता है। वे मानते रहे कि राष्ट्रीयता की पहली शर्त मानवता है लेकिन राष्ट्र पर आये संकट के दौर में मानवता से बड़ी राष्ट्र को लेकर सोच होती है। अपनी कविता 'नर हो न निराश करो मन को राष्ट्रकवि किस तरह राष्ट्र को लेकर अपनी भावना इजहार करते है। यह देखने योग्य हैं:

निज गौरव का नित ज्ञान रहे, हम भी कुछ है यह ध्यान रहे। 
मरणोत्तर गुंजित गान रहे, सब जाय अभी पर मान रहे, 
कुछ हो न तजो निज साधन को, नर हो, न निराश करो मन को । 
राष्ट्र के प्रति सब कुछ न्यौछावर करने वाला कवि कितना संवेदनशील था। उनकी रचनाओं से समझा जा सकता है। लगता है कि अपने दौर में भी कुछ लोगों की नजरों में वे खटकते थे। चूंकि उनका व्यक्तित्व बेहद सरल था । रहन-सहन, खान-पान में सादगी पसंद वैष्णव थे, इसलिए उस दौर के कुछ आलोचकों ने उनकी रचनाधर्मिता का मजाक भी उड़ाया था। उनके बारे में चुटकी ली जाती थी कि वे स्लेट पर मात्राएँ गिन-गिनकर तुकबन्दी करते है। चूंकि उनके आखिरी वक्त में हिन्दी साहित्य के अकविता और नई कविता का दौर शुरू हो गया था ।

गुप्त जी की राष्ट्रीय चेतना संकुचित नहीं थी। वे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' और 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की अवधारणा में भरोसा करते थे। उन्होंने भारत माता के बारे में लिखा हैं :

भारत माता का मंदिर यह, समता का संवाद जहाँ । 
सबका शिव कल्याण यहाँ, पावे सभी प्रसाद यहाँ ।। 
जाति धर्म या सम्प्रदाय का, नही भेद व्यवधान यहाँ । 
सबका स्वागत सबका आदर, सबका राम सम्मान यहाँ ।। 

द्विवेदी युग के समय भारत पराधीन था। लोगों में साहित्य चेतना के साथ राष्ट्रीय चेतना जगाने का नवजागरण कार्य गुप्त जी ने किया। अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने भारत के भव्य अतीत को पौराणिक-ऐतिहासिक कथानकों, पात्रों द्वारा आधुनिक संदर्भ से जोड़कर साहित्य सृजन किया। 
    गुप्त जी की नजर में भारत का स्वरूप कैसा है, इसे याद करते हुए राष्ट्रीयता के इस सजग प्रहरी को नमन हैं - 
भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ-कहाँ । 
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ-कहाँ । 
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है, 
उसका कि जो ऋषि भूमि है, व कौन-भारत वर्ष है।

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की विशेषता

 गुप्त जी स्वभाव से लोक संग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था -  

गुप्त जी के काव्य की विशेषताएँ निम्न हैं: 

1. राष्ट्रीयता और गांधीवाद: 

मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गये थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएँ राष्ट्रीय विचारधारा से ओत-प्रोत है। गुप्त जी के काव्य में राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता है। गुप्त जी ने प्रबन्ध काव्य और मुक्तक कव्य दोनों की रचना की है। 'भारत भारती में देश की वर्तमान दुर्दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए कवि ने देश के अतीत का अत्यन्त गौरव और श्रद्धा के साथ गुणगान किया है। भारत श्रेष्ठ था, है और सदा रहेगा का भाव इन पंक्तियों में गुंजायमान हैं :

भूलोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ ? 

फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल कहाँ ? 

सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है ?

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारत वर्ष है। 

2. गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता 

वे भारतीय संस्कृति और इतिहास के परम भक्त थे। एक समुन्नत सुगठित और सशक्त राष्ट्रीय नैतिकता से युक्त आदर्श समाज, मर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र • वाले नर-नारी के निर्माण की दिशा में उन्होंने प्राचीन आख्यानों को अपने काव्य का वर्ण्य विषय बनाकर उनके सभी पात्रों का एक नया अभिप्राय दिया है। जयद्रथवघ, साकेत, पंचवटी, सैरधी बक संहार, यशोधरा द्वापर, नहुष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएँ इसके उदाहरण है। 

3. दार्शनिकता : 

गुप्त जी का दर्शन उनके कलाकार के व्यक्तित्व पक्ष का परिणाम न होकर सामाजिक पक्ष का अभिव्यक्तिकरण है। वे बहिर्जीवन के दृष्टा और व्याख्याता कलाकार है। अन्तर्मुखी कलाकार नही। कर्मशीलता उनके दर्शन की केन्द्रस्थ भावना है। साकेत में भी वे राम के द्वारा कहलाते है 

सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया, 

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।

राम अपने कर्म के द्वारा इस पृथ्वी को ही स्वर्ग जैसी सुन्दर बनाना चाहते है। राम के वन जाने के प्रसंग पर सबके व्याकुल होने पर भी राम शान्त रहते है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य जीवन में अनन्त उपेक्षित प्रसंग निर्माण होते है। अतः उसके लिए खेद करना मूर्खता है। राम के जीवन में आने वाली सम तथा विषय परिस्थितियों के अनुकूल राम की मनः स्थिति का सहज स्वाभाविक दिग्दर्शन करते हुए भी एक धीरोदात्त एवं आदर्श, पुरूष के रूप में राम का चरित्रांकन गुप्त जी ने किया है। 

4. रहस्यात्मकता एवं आध्यात्मिकता 

गुप्त जी के परिवार में वैष्णव भक्तिभाव प्रबल था। प्रतिदिन पूजा-पाठ, भजन, गीता पढ़ना आदि सब होता था। यही कारण है कि गुप्त जी के जीवन में भी यह आध्यात्मिक संस्कार बीज के रूप में पड़े हुए थे जो धीरे-धीरे अंकुरित होकर राम भक्ति के रूप में वटवृक्ष हो गया।

साकेत की भूमिका में निर्गुण परब्रह्म सगुण साकार के रूप में अवतरित होता है। आत्माश्रय प्राप्त कवि के लिए जीवन में ही मुक्ति मिल जाने से मृत्यु न तो विभीषिका रह जाती है और न उसे भय या शोक ही दे सकती है। गुप्त जी ने 'साकेत' में राम के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट की है।

साकेत' पूजा का एक फूल है जो आस्तिक कवि ने अपने इष्टदेव के चरणों में चढ़ाया है। राम के चित्रांकन में गुप्त जी ने जीवन के रहस्य को उद्घाटित किया है। राम के जन्म हेतु उन्होंने कहा हैं : -

किसलिए यह खेल प्रभु ने है किया। 

मनुज बनकर मानवी का पय पिया ।। 

भक्त वत्सलता इसी का नाम है। 

और वह लोकेश लीला धाम है। 

5. नारी पात्र की महत्ता का प्रतिपादन 

दीन-दुःखियों व असहायों की पीड़ा ने उसके हृदय में करुणा के भाव भर दिए थे। यही कारण है कि उनके अनेक काव्य ग्रंथों में नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति झलकती है। नारियों की दशा को व्यक्त करती उनकी ये पंक्तियाँ पाठकों के हृदय में करुणा उत्पन्न करती हैं: नारियों की दुरवस्था तथा सीरीज 

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी । 

आँचल में है दूध और आखों में पानी ।।


6. पत्तिवियुक्ता नारी का वर्णन 

परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को जिस शिद्दत के साथ गुप्त जी अनुभव करते है और उसे जो बानगी देते है वह आधुनिक साहित्य में दुर्लभ है। उनकी वियोगिनी नारी पात्रों में उर्मिला (साकेत महाकाव्य), यशोधरा (काव्य) और विष्णुप्रिया खण्डकाव्य प्रमुख है। उनका करुण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। उनके जीवन संघर्ष, उदात्त विचार और आचरण की पवित्रता आदि मानवीय जिजीविषा और सोद्देश्यता को प्रमाणित करते है। गुप्त जी की तीनों विरहिणी नायिकाएँ विरहताप में तपती हुई भी अपने तन-मन को भस्म नहीं होने देती वरन् कुन्दन की तरह उज्ज्वलवर्णी हो जाती है। उर्मिला का जीवनवृत्त और उसकी विरह वेदना सर्वप्रथम मैथिलीशरण गुप्त जी की लेखनी से साकार हुई है।

    गुप्त जी ने अपने काव्य का प्रधान पात्र राम और सीता को न बनाकर लक्ष्मण, उर्मिला और भरत को बनाया है। गुप्त जी ने साकेत में उर्मिला के चरित्र को जो विस्तार दिया है, वह अप्रतिम है। कवि ने उसे मूर्तिमति उषा, सुवर्ण की सजीव -प्रतिमा, कनक लतिका, कल्पशिल्पी की कला आदि कहकर उसके शारीरिक सौन्दर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। उर्मिला प्रेम और विनोद से परिपूर्ण हासपरिहासमयी रमणी है। 

7. प्रकृति वर्णन मैथिलीशरण 

गुप्त जी द्वारा रचित खण्डकाव्य 'पंचवटी में सहज वन्यजीवन के प्रति गहरा अनुराग और प्रकृति के मनोहारी चित्र है। उनकी निम्न पंक्तियाँ आज भी कविता प्रेमियों के मानस पटल पर सजीव हैं: 

चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही है जल थल में। 

स्वच्छ चांदनी बिछी हुई है, अवनि और अम्बरतल में। 

इस प्रकार गुप्त जी हिन्दी साहित्य के गौरव थे। उनका काव्य आज भी प्रासंगिक है।

मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के प्रमुख कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्हें खड़ी बोली में पौराणिक विषयों को लेकर सफल काव्य रचना करने में कुशल कवि के रूप में ख्याति प्राप्त है।

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य का संवेदन या अनुभूति पक्ष या भाव पक्ष

1. मैथिलीशरण गुप्त और साकेत महाकाव्य :

 'साकेत मैथिलीशरण गुप्त की प्रौढ़तम रचना है। इन्होंने 'भारत-भारती', 'जयद्रथ वध, यशोधरा आदि की रचना करके भी प्रसिद्धि प्राप्त की है किन्तु 'साकेत' में इनकी प्रौढ़ प्रतिभा के दर्शन होते है।

'साकेत' की कहानी वाल्मीकि और तुलसी द्वारा रचित रामायण और रामचरितमानस से संबंधित है। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने युग की विशेष परिस्थितियों के संदर्भ में इस कहानी को अपने पूर्ववर्ती कवियों से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी अनेक मौलिक उद्भावनाओं के साथ साकेत' के रूप में अभिव्यक्ति अ प्रदान की है। रामकथा की पृष्ठभूमि के आधार पर राम-सीता की कहानी साकेत में उर्मिला की कहानी बन जाती है। अपने पूर्ववर्ती कवियों के समान इतिवृत्तात्मक शैली का अनुसरण न करते हुए मर्मस्थलों को चुनकर गुप्त जी ने काव्य का रूप दिया है। साकेत की सम्पूर्ण कथा की रंगभूमि साकेत ही है। सम्पूर्ण घटनाओं का समाहार 'साकेत' में ही हो जाता है। अतः 'साकेत' नामकरण की उपयुक्तता स्वतः सिद्ध हो जाती है। जब साकेत के अनुभूति पक्ष की बात की जाय तब इन मर्मस्पर्शी स्थलों का कवि ने जिस कुशलता एवं भावनात्मक रूप में अपनी सहज काव्य प्रतिभा के बल से सृजन किया है। उसकी झाँकी करना जरूरी बन जाता है। 

2. गृहस्थ जीवन के चित्र 

गुप्त जी ने अपने काव्य में गृहस्थ जीवन के अनेक चित्र प्रस्तुत किए है। गृहस्थ जीवन के सुख-दुःख की व्यंजना सुन्दर तरीके से की गई है। 'साकेत' में रघु परिवार के सुख-दुःख का वर्णन है। सूर्यकुल के इसी प्रतापी परिवार में पति-पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, माता-विमाताएँ देवर-भाभी, सासे-पुत्र वधुएँ, स्वामी-सेवक आदि है। विभिन्न व्यष्टियों से बना हुआ यह परिवार एक संपूर्ण समष्टि  है।
एक तरु के विविध सुमनों से खिले, पौरजन रहते परस्पर है मिले।।

साकेत का प्रधान कार्य चौदह वर्ष की दीर्घ अवधि के उपरान्त उर्मिला-लक्ष्मण का मिलन है। स्त्री संसर्ग से ही जीवन में रस आ जाता है। जगत के शून्य चित्र रंगीन बन जाते है तो दूसरी ओर उर्मिला नारी का प्रतिनिधित्व करती हुई पुरुष महिमा का वर्णन इस प्रकार करती हैं. -

खोजती है किन्तु आश्रय मात्र हम, 

चाहती है एक तुम सा पात्र हम। 

ठीक इसी प्रकार प्रकृति के गंभीर और मर्यादा मूर्ति राम भी सीता के सम्मुख साधारण मनुष्य बन जाते है। राम-सीता के बीच वन में जो हास-परिहास गुप्त जी ने वर्णित. किया है वह मधुर दाम्पत्य जीवन का एक सुन्दर उदाहरण है :

"हो जाना लता न आप लता संलग्ना, 

करतल तक तो तुम हुई नवल दल मग्ना,

ऐसा न हो कि मैं फिरुँ खोजता तुमको।"

ऐसे ही दाम्पत्य जीवन में विपत्ति के समय में स्त्री-पुरुष का संबंध कितना अवलम्बित है, एक-दूसरे का। ऐसा होने पर विपत्ति के क्षणों में पुरुष के दुःख को कम करने में किस प्रकार स्त्री के सहयोग से हल्का हो जाता है। इस प्रकार पारिवारिक जीवन में गुप्त जी ने सकुशल ढंग से किया है।

गृहस्थ जीवन के महत्व का सुन्दर चित्रण 

3. उर्मिला का विरह : 

उर्मिला का विरह इस महाकाव्य की महत्वपूर्ण घटना है। परिस्थिति की दयनीयता उर्मिला के विरह को अत्यन्त करुण बना देती है। सीता, मांडवी, श्रुतिकीर्ति, दुःखी होते हुए भी अपने पति के साथ में है। जबकि उर्मिला राजभवन में होने पर भी सुख से वंचित है। क्योंकि उसका भवन (लक्ष्मण) तो वन में है। अतः माता ठीक ही कहती है: 

"मिला न वन ही न गेह ही तुझको।"

उर्मिला के विरह वर्णन में प्राचीन और नवीन का सम्मिश्रण है। एक ओर उसमें ताप का ऊहात्मक वर्णन है, षऋतु आदि का समावेश है तो दूसरी ओर व्यथा का संवेदनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक करुणा भी। उर्मिला का विरह सावधि था, अतः उसका अन्त मी निश्चित है।

4 मर्मस्पर्शी स्थलों का चित्रण 

गुप्त जी ने 'साकेत' के कथानक में मौलिक परिस्थितियों का सृजन करके मर्मस्पर्शी स्थलों का सुन्दर, सरस चित्रण किया है। इसमें प्रमुख मर्मस्पर्शी स्थल हैं-लक्ष्मण, उर्मिला की विनोद वार्ता, कैकेयी, मंथरा संवाद, विदा प्रसंग, निष्पाद मिलन, दशरथ मरण, भरत आगमन, चित्रकूट-सम्मिलन, उर्मिला की विरह कथा नन्दिग्राम में भरत और मांडवी का वार्तालाप, हनुमान से लक्ष्मण शक्ति का समाचार सुनकर साकेत के नागरिकों की रण सज्जा, राम-रावण युद्ध और पुनर्मिलन ।

अभिव्यंजना पक्ष या शिल्प या कला पक्ष :

1. प्रबन्धात्मकता 

प्रबन्ध में कथा का अविच्छिन्न प्रवाह अत्यन्त आवश्यक होता है। साकेत में कवि ने मुख्य मुख्य दृश्यों को अन्वित कर धारा प्रवाह की कोशिश की है। यथा- उर्मिला - लक्ष्मण के परिहास द्वारा अभिषेक की सूचना तो कैकेयी-मंथरा के संवाद से वियोग का बीज वपन होता है। कवि कुशलतापूर्वक एक साथ दूसरे दृश्य को जोड़ देता है। जैसे-मंथरा के नेत्रों को कीट बनाता हुआ छोटे-छोटे दूसरे दृश्य पर चले जाना। 

कवि ने नाटकीय टर्न विषमता या पूर्व संकेत को पूर्वापर क्रम में जोड़कर उसकी कार्य कारण की तर्कबद्ध प्रस्तुति की है। जैसे भरत की कैकेयी के प्रति भर्त्सना साकेत में है तो वही चित्रकूट में कैकेयी के प्रायश्चित के रूप में फूट पड़ती है। एक उदाहरण से यह स्पष्ट होगा। भरत कहता है-"सूर्यकूल में यह कलंक कठोर निरख तो तू तनिक नभ की ओर तो कैकेयी का चित्रकूट में कथन:

युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी। रघुकुल में भी थी अभागिन रानी ।

कथा की गति आवश्यकता से अधिक विषम है। शुरुआत में मंथर, बीच में स्थिरता और अन्त में इतनी द्रुतगति मानो कुछ कहने-सुनने का समय नही है।

2. दृश्य विधानः 

'साकेत' में लम्बी कथा है। परिस्थिति के अनुसार कवि ने प्राकृतिक एवं भौतिक दृश्य विधान किया है। कथा के पात्र जब भौतिक जीवन के संकुचित घेरे में कार्यरत होते है तब उनके भावों और विचारों को समझने के लिए भौतिक दृश्य विधान की आवश्यकता होती है और जब पात्रों के भावों में विस्तार आ जाता है उनकी क्रीडा स्थली उन्मुक्त प्रकृति बन जाती है, तब प्राकृतिक दृश्य विधान की जरूरत होती है। गुप्त ने दोनों प्रकार के दृश्यों का नियोजन किया है। जैसे- प्रारम्भ में साकेत नगरी और राज प्रासाद का वैभवपूर्ण वर्णन है जो भव्य है। ऐसे ही साकेत में प्राकृतिक दृश्य भी अधिक है जो पात्रों के भावों पर घात-प्रतिघात करने वाले है।

3. संवाद 

संवाद से ही कथा की गति आगे बढ़ती है। संवाद को महत्वपूर्ण उपकरण माना गया है। साकेत में जहाँ उर्मिला-लक्ष्मण संवाद दशरथ - कैकेयी संवादों से कथा को गति मिली है। वहीं दूसरी ओर भरत-कैकेयी वार्तालाप, मंथरा- कैकेयी का विवाद राम और भरत वार्तालाप आदि से चरित्र की अन्तर्वृत्तियों का विश्लेषण हुआ है। साकेत के संवादों में सजीवता, स्वाभाविकता, परिस्थिति और पात्रानुरूपता गतिशीलता और रक्षात्मकता का सुन्दर विनियोग हुआ है। 

4. अप्रस्तुत योजना : 

'साकेत' में कई ऐसे स्थान है जहाँ कवि ने विभिन्न आधारों पर प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत का विधान किया है और उसमें भी विशेषकर समान अप्रस्तुत का। सामान्यतः वस्तु का सजीव वर्णन करने के लिए सादृश्य का और भाव को तीव्र करने के लिए साधर्म्य का प्रयोग होता आया है। निम्न उदाहरण दृष्टव्य है: -

रथ मानो एक रिक्त धन था ।

जल भी न था वह गर्जन था ।

5. भाषा: 

गुप्ता जी भाषा में बोधगम्यता, सहजता के साथ चमत्कारिक शक्ति के दर्शन होते हैं। वैसे उनके प्रौढ़ रचना के रूप में 'साकेत' में भाषा की जो विशेषताएँ है वे उनकी अन्य रचनाओं की अपेक्षा उत्कृष्ट है ही। खड़ी बोली के विकास के दूसरे चरण में द्विवेदी युग है। अतः अपने भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति के लिए गुप्त जी को अन्य प्रमुख कवियों की भाँति संस्कृति शब्दों की शरण में जाना पड़ा है। साकेत' में प्रचुर मात्रा में संस्कृत पदावली का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे—अरूंतुद, त्वेष, कल्प, आज्य, जिष्णु आदि के प्रयोग कपूर्ती हेतु के अतिरिक्त अन्य किसी विशेष उद्देश्य से किया गया हो ऐसा लगता नहीं है। कुछ स्थानों पर संस्कृत व्याकरण के अनुसार नए शब्दों का निर्माण भी किया है जैसेलाक्ष्मण्य, सपरगांबुजता ।

कवि ने कहीं तद्भव शब्दों को तत्सम से जोड़ कर एक नया प्रयोग किया है

जैसे दिन-रात संधि, कही अप्रचलित शब्दों को जोड़ा गया है। जैसे दोष दूर कारण, भूमि-भार, हारक आदि ।

इसके अलावा 'साकेत' की भाषा में लाक्षणिकता एवं मूर्तिकला भी पाई जाती है। कुल मिलाकर कहा जाता है कि गुप्तजी की भाषा में शिलष्ट एवं प्रौढ़ रूप में खड़ी बोली के दर्शन होते है। अलंकारों का सहज प्रयोग भाषा को अधिक शक्ति एवं प्रभाव देता है।


6. छंद योजना: 

'साकेत' सर्गबद्ध प्रबंध काव्य है। प्रबंध में छन्दों के वैविध्य एवं प्रत्येक सर्ग में नए छंद का प्रयोग होना जरूरी माना गया है। 'साकेत' में छन्दों का प्रयोग भाव एवं पात्र की प्रसंगानुकूलता के अनुसार हुआ है जैसे प्रथम सर्ग में लक्ष्मण- उर्मिला के परिहास के प्रयोग में कवि ने श्रृंगार के खास छन्द पीयूषवर्षण का प्रयोग किया है। इस छन्द में परिहासोचित चंचलता और गति का आभास दोनों तत्व है। दूसरे सर्ग में कैकेयी-मंथरा संवाद में खून की तेज गतिवाली मनोदशा के लिए उसी के अनुकूल 16 मात्राओं के छोटे श्रृंगार छंद का प्रयोग किया है जिससे भावनाओं का तारतम्य ठीक तरह से प्रकट हो :

"सामने से हट अधिक न बोल. द्विजिध्वै रस में विष मत घोल ।।" 

छन्दों के वैविध्यपूर्ण प्रयोग में कवि-कौशल दृष्टिगत होता है। छन्दों के प्रयोग में राम की अन्तर्धारा एवं सरल प्रवाह दिखाई देता है।

निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि गुप्त जी की शैली, उनके काव्य का कला पक्ष इतना सशक्त दृढ़ है जिसमें भाषा की स्वाभाविकता, सरलता, सहजता जैसे गुण होने के साथ-साथ चमत्कारिक शब्द एवं वाक्य प्रयोग, अभिव्यंजना के लिए अप्रस्तुत योजना का विभिन्न आधारों पर प्रयोग, संवादों का प्रभाव, छन्द योजना में वैविध्य सत्य एक साथ मिलकर कवि की अप्रतिम शक्ति एवं प्रतिभा का बोध कराते है। समग्रता में साकेत सफल प्रब काव्य एवं गुप्त जी कवि सिद्ध होते है।

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