IGNOU DECE-03 Solved Assignment 2024-25 | डीईसीई-3 सत्रीय कार्य (Hindi Medium)

DECE-3 Solved Assignment 2024-25 | IGNOU DECE-03 सत्रीय कार्य (उत्तर सहित)

क्या आप इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU) से DECE (Diploma in Early Childhood Care and Education) कोर्स कर रहे हैं? क्या आप DECE-3 (D.E.C.E.-3) का सत्रीय कार्य (Assignment) तैयार करने को लेकर चिंतित हैं? अगर हाँ, तो आप बिल्कुल सही जगह पर हैं!

अक्सर छात्रों को यह समझने में मुश्किल होती है कि असाइनमेंट के प्रश्नों का उत्तर कैसे लिखें ताकि अच्छे अंक मिल सकें। मौलिकता, सही विश्लेषण और व्यक्तिगत शैली का समावेश कैसे करें? इस पोस्ट में, हम आपके लिए DECE-03 Solved Assignment 2024-25 का एक विस्तृत और आदर्श हल लेकर आए हैं। यह सॉल्व्ड असाइनमेंट न केवल आपके सभी प्रश्नों का उत्तर देगा, बल्कि आपको यह भी सिखाएगा कि एक प्रभावशाली और उच्च-गुणवत्ता वाला सत्रीय कार्य कैसे तैयार किया जाता है। तो चलिए, इस सीखने की यात्रा में हमारे साथ जुड़िए और अपने असाइनमेंट को बेहतरीन बनाइए!

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सत्रीय कार्य – 03

पाठ्यक्रम कोड: डी.ई.सी.ई.-3
कुल अंक: 100


भाग क (60 अंक)

सभी प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

प्रश्न 1. विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चे किन्हें कहते हैं, उदाहरण देते हुए स्पष्ट करें। (700 शब्द, 8 अंक)

उत्तर:

परिचय:
मेरे विचार में, हर बच्चा अपने आप में खास होता है, लेकिन कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जिन्हें सीखने, विकास करने या सामान्य जीवन जीने में विशेष चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन्हीं बच्चों को "विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चे" (Children with Special Needs) कहा जाता है। यह एक बहुत व्यापक शब्द है जिसमें केवल शारीरिक अक्षमता ही नहीं, बल्कि कई अन्य प्रकार की चुनौतियाँ भी शामिल हैं। इस प्रश्न का उत्तर लिखते हुए, मैंने यह समझने का प्रयास किया है कि इन बच्चों को वास्तव में किस तरह के समर्थन की आवश्यकता होती है।

विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की परिभाषा:
विशेष आवश्यकताओं वाला बच्चा वह है जिसे अपनी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक या सीखने संबंधी किसी भिन्नता के कारण सामान्य बच्चों की तुलना में विशेष देखभाल, शिक्षा और सहायता की आवश्यकता होती है। इसका उद्देश्य यह होता है कि वे भी अपनी पूरी क्षमता का विकास कर सकें और समाज का एक हिस्सा बन सकें। यह महत्वपूर्ण है कि हम उन्हें 'अक्षम' न समझकर 'भिन्न रूप से सक्षम' समझें।

विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के प्रकार और उदाहरण:

मैंने इन बच्चों को बेहतर ढंग से समझने के लिए उन्हें निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया है:

  1. शारीरिक अक्षमता (Physical Disability): इसमें वे बच्चे आते हैं जिनके शरीर के किसी अंग में कोई समस्या होती है, जिससे उनकी गतिशीलता प्रभावित होती है।

    • उदाहरण:

      • पोलियो से ग्रस्त बच्चा: जिसे चलने के लिए कैलिपर्स या व्हीलचेयर की आवश्यकता हो।

      • सेरेब्रल पाल्सी (Cerebral Palsy) से पीड़ित बच्चा: जिसकी मांसपेशियों पर नियंत्रण कम होता है, और उसे लिखने, चलने या संतुलन बनाने में कठिनाई होती है।

  2. संवेदी अक्षमता (Sensory Impairment): इसमें बच्चे की देखने या सुनने की इंद्रियों में समस्या होती है।

    • उदाहरण:

      • दृष्टिबाधित बच्चा (Visually Impaired): जिसे या तो बिल्कुल दिखाई नहीं देता या बहुत कम दिखाई देता है। ऐसे बच्चों को सीखने के लिए ब्रेल लिपि या बड़े अक्षरों वाली किताबों की जरूरत होती है।

      • श्रवण बाधित बच्चा (Hearing Impaired): जिसे सुनने में कठिनाई होती है। ऐसे बच्चों को सांकेतिक भाषा (Sign Language) या सुनने की मशीन (Hearing Aid) की आवश्यकता पड़ सकती है।

  3. बौद्धिक और विकासात्मक अक्षमता (Intellectual and Developmental Disability): इसमें बच्चे की सीखने, समझने और तार्किक क्षमता उसकी उम्र के अन्य बच्चों से कम होती है।

    • उदाहरण:

      • बौद्धिक अक्षमता (Intellectual Disability/Mental Retardation): ऐसे बच्चों को नई चीजें सीखने में अधिक समय लगता है। उन्हें दैनिक जीवन के कार्यों जैसे कपड़े पहनना या खाना खाने के लिए भी विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।

      • ऑटिज्म (Autism): यह एक विकासात्मक विकार है। ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे को सामाजिक संवाद करने और दूसरों से जुड़ने में बहुत कठिनाई होती है। वे अक्सर अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं।

  4. सीखने संबंधी अक्षमता (Learning Disability): ये बच्चे बुद्धिमान होते हैं, लेकिन उन्हें पढ़ने, लिखने या गणित के सवालों को हल करने जैसी किसी एक विशेष क्षेत्र में कठिनाई होती है।

    • उदाहरण:

      • डिस्लेक्सिया (Dyslexia): इस स्थिति में बच्चे को अक्षरों को पहचानने और पढ़ने में मुश्किल होती है। वह 'b' को 'd' या 'was' को 'saw' पढ़ सकता है।

  5. भावनात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याएं (Emotional and Behavioural Problems): इसमें वे बच्चे शामिल हैं जिन्हें अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने या सामाजिक रूप से स्वीकार्य व्यवहार करने में कठिनाई होती है।

    • उदाहरण:

      • अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (ADHD): ऐसा बच्चा बहुत अधिक चंचल होता है, एक जगह पर टिक कर नहीं बैठ पाता और किसी भी काम में ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता।

निष्कर्ष:
इस विश्लेषण से मैंने यह समझा कि विशेष आवश्यकता का अर्थ सिर्फ शारीरिक विकलांगता नहीं है। एक शिक्षक और देखभालकर्ता के रूप में, यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं इन बच्चों की भिन्नताओं को समझूँ, उनके प्रति संवेदनशील रहूँ और उन्हें एक ऐसा सुरक्षित और सहयोगी वातावरण प्रदान करूँ जहाँ वे बिना किसी भेदभाव के सीख और बढ़ सकें।


प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रत्येक का 400 शब्दों में वर्णन कीजिए। (3x5=15 अंक)

उत्तर:

(क) संचार के रूप में भूमिका अभिनय (Role Playing as Communication)

परिचय:
भूमिका अभिनय, यानी रोल-प्ले, बच्चों के लिए संचार का एक बहुत ही शक्तिशाली और मजेदार माध्यम है। यह केवल एक खेल नहीं है, बल्कि यह बच्चों को दुनिया को समझने, अपनी भावनाओं को व्यक्त करने और सामाजिक कौशल सीखने का एक अवसर देता है। मैंने अक्सर देखा है कि बच्चे खेल-खेल में डॉक्टर, टीचर या अपने माता-पिता की नकल करते हैं। यह भूमिका अभिनय का ही एक रूप है।

संचार के साधन के रूप में भूमिका अभिनय का महत्व:

  1. भावनाओं की अभिव्यक्ति: कई बार बच्चे सीधे तौर पर अपनी भावनाओं, जैसे डर, गुस्सा या खुशी को शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते। भूमिका अभिनय के माध्यम से वे किसी पात्र (जैसे- एक डरा हुआ खरगोश या एक गुस्से वाला राजा) का अभिनय करके अपनी दबी हुई भावनाओं को बाहर निकाल सकते हैं।

  2. सामाजिक कौशल का विकास: जब बच्चे 'दुकानदार-ग्राहक' या 'परिवार' का खेल खेलते हैं, तो वे सीखते हैं कि दूसरों से कैसे बात करनी है, अपनी बारी का इंतजार कैसे करना है, और समस्याओं को मिलकर कैसे सुलझाना है। यह उन्हें सामाजिक नियमों को समझने में मदद करता है।

  3. भाषा और शब्दावली का विकास: भूमिका अभिनय के दौरान बच्चे नए-नए शब्दों का प्रयोग करते हैं और वाक्यों को बनाना सीखते हैं। जब वे एक डॉक्टर का अभिनय करते हैं, तो वे "दवाई," "बुखार," "सुई" जैसे शब्द सीखते हैं। इससे उनकी शब्दावली और संवाद करने की क्षमता बढ़ती है।

  4. सहानुभूति का विकास: जब एक बच्चा किसी दूसरे की भूमिका निभाता है (जैसे अपनी माँ की), तो वह यह समझने की कोशिश करता है कि उस भूमिका में व्यक्ति कैसा महसूस करता है। इससे उसमें दूसरों के प्रति सहानुभूति और समझ विकसित होती है।

निष्कर्ष:
मैंने यह समझा है कि भूमिका अभिनय बच्चों के लिए सिर्फ एक मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सुरक्षित अभ्यास का मैदान है जहाँ वे वास्तविक जीवन की स्थितियों का सामना करना सीखते हैं। एक शिक्षक के रूप में, मैं कक्षा में भूमिका अभिनय को अधिक से अधिक अवसर दूँगी ताकि बच्चे प्रभावी ढंग से संवाद करना सीख सकें।


(ख) प्रतिकूल अभिवृत्ति वाले माता-पिता (Parents with Negative Attitudes)

परिचय:
बच्चे के विकास में माता-पिता की अभिवृत्ति या दृष्टिकोण की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जहाँ सकारात्मक अभिवृत्ति बच्चे में आत्मविश्वास जगाती है, वहीं प्रतिकूल या नकारात्मक अभिवृत्ति उसके विकास में एक बड़ी बाधा बन सकती है। प्रतिकूल अभिवृत्ति वाले माता-पिता वे होते हैं जिनका व्यवहार बच्चे के प्रति अक्सर आलोचनात्मक, निराशावादी या असहयोगी होता है।

प्रतिकूल अभिवृत्ति के कारण और प्रभाव:

  • कारण: माता-पिता की प्रतिकूल अभिवृत्ति के कई कारण हो सकते हैं, जैसे- उनका अपना तनावपूर्ण बचपन, आर्थिक परेशानियाँ, जानकारी का अभाव, या बच्चे से बहुत अधिक अवास्तविक उम्मीदें रखना। विशेषकर यदि बच्चा विशेष आवश्यकता वाला हो, तो कुछ माता-पिता समाज के डर से या निराशा में नकारात्मक दृष्टिकोण अपना लेते हैं।

  • बच्चे पर प्रभाव:

    1. कम आत्म-सम्मान: लगातार आलोचना सुनने से बच्चा खुद को अयोग्य और नाकारा समझने लगता है।

    2. डर और चिंता: बच्चा हर समय डरा-सहमा रहता है कि कहीं उससे कोई गलती न हो जाए, जिसके लिए उसे डाँट पड़ेगी।

    3. व्यवहार संबंधी समस्याएं: कुछ बच्चे इस नकारात्मकता से तंग आकर जिद्दी, गुस्सैल या आक्रामक हो जाते हैं।

    4. सीखने में अरुचि: स्कूल में भी ऐसे बच्चों का प्रदर्शन खराब हो सकता है क्योंकि उनमें सीखने की प्रेरणा खत्म हो जाती है।

एक देखभालकर्ता की भूमिका:
एक शिक्षक या देखभालकर्ता के रूप में, ऐसे माता-पिता के साथ काम करना चुनौतीपूर्ण होता है। मेरा दृष्टिकोण यह रहेगा कि मैं उनसे टकराव न करूँ, बल्कि उनके साथ एक सहयोगी संबंध बनाऊँ। मैं बच्चे की छोटी-छोटी उपलब्धियों को उनके साथ साझा करूँगी ताकि वे बच्चे की क्षमताओं को देख सकें। मैं उन्हें धैर्यपूर्वक सुनने और सही जानकारी व संसाधन प्रदान करने का प्रयास करूँगी।

निष्कर्ष:
मैंने यह महसूस किया कि माता-पिता के नकारात्मक रवैये को बदलने के लिए धैर्य और सहानुभूति की आवश्यकता होती है। हमारा लक्ष्य उन्हें गलत साबित करना नहीं, बल्कि बच्चे की भलाई के लिए उन्हें अपना सहयोगी बनाना होना चाहिए।


(ग) भारत में शालापूर्व शिक्षा में ताराबाई मोडक का योगदान

परिचय:
जब भी भारत में शालापूर्व शिक्षा (Preschool Education) की बात होती है, तो ताराबाई मोडक का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। उन्हें भारत में 'बालवाड़ी' की जननी माना जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों, विशेषकर गरीब और आदिवासी समुदायों के बच्चों की शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया।

ताराबाई मोडक का प्रमुख योगदान:

  1. प्रथम बालवाड़ी की स्थापना: ताराबाई मोडक ने गिजुभाई बधेका के साथ मिलकर काम किया और उनसे प्रेरणा ली। उन्होंने 1945 में ठाणे जिले के बोर्डी में आदिवासी बच्चों के लिए पहली "बालवाड़ी" (शाब्दिक अर्थ- बच्चों का बगीचा) की स्थापना की। यह एक क्रांतिकारी कदम था क्योंकि उस समय शालापूर्व शिक्षा केवल अमीर शहरी बच्चों तक ही सीमित थी।

  2. भारतीय संदर्भ में शिक्षा: उन्होंने मारिया मोंटेसरी की शिक्षा पद्धति का अध्ययन किया, लेकिन उसे आँख बंद करके नहीं अपनाया। उन्होंने मोंटेसरी के सिद्धांतों को भारतीय गाँवों की परिस्थितियों, संस्कृति और जरूरतों के अनुसार ढाला। उनका मानना था कि शिक्षा बच्चों के अपने परिवेश से जुड़ी होनी चाहिए।

  3. कम लागत वाली शिक्षण सामग्री: ताराबाई ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चों को सिखाने के लिए महँगे उपकरणों की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री जैसे पत्थर, पत्ते, मिट्टी, बीज, और बेकार की चीजों का उपयोग करके शिक्षण सहायक सामग्री बनाने को प्रोत्साहित किया।

  4. आंगनवाड़ी और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण: उन्होंने 'आंगनवाड़ी' की अवधारणा विकसित की, जिसमें एक खुले आँगन में कक्षाएं लगती थीं। उन्होंने स्थानीय महिलाओं को ही बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया। इससे न केवल शिक्षा का प्रसार हुआ, बल्कि महिलाओं को रोजगार भी मिला।

  5. ‘विकासवाड़ी’ का प्रयोग: उनका एक अनूठा प्रयोग ‘विकासवाड़ी’ था, जो एक तरह की चलती-फिरती स्कूल बस थी। इसके माध्यम से वे उन दूर-दराज के बच्चों तक शिक्षा पहुँचाती थीं जो स्कूल नहीं आ सकते थे।

निष्कर्ष:
ताराबाई मोडक के योगदान का अध्ययन करने के बाद, मैं यह कह सकती हूँ कि वह एक सच्ची दूरदर्शी थीं। उन्होंने शालापूर्व शिक्षा को महलों से निकालकर झोपड़ियों तक पहुँचाया। उनका जीवन और कार्य मुझे यह प्रेरणा देता है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल किताबी ज्ञान देना नहीं, बल्कि उसे जीवन से जोड़ना है।

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प्रश्न 3. शालापूर्व अध्यापिका/देखभालकर्त्ता निम्नलिखित से कैसे निपट सकती है? (प्रत्येक 400 शब्दों में, 5+5= 10 अंक)

उत्तर:

(क) विपर्ययित व्यवहार वाला बालक (Child with Oppositional Behavior)

परिचय:
शालापूर्व कक्षा में ऐसे बच्चों से मिलना आम है जो जानबूझकर नियमों को तोड़ते हैं, बड़ों की बात नहीं मानते और हर बात पर "नहीं" कहते हैं। इस तरह के व्यवहार को विपर्ययित या विरोधात्मक व्यवहार (Oppositional Behavior) कहा जाता है। एक अध्यापिका के रूप में, ऐसे बच्चे के साथ काम करना धैर्य की परीक्षा लेने जैसा हो सकता है। मेरा मानना है कि ऐसे व्यवहार से निपटने के लिए गुस्से या सजा की बजाय समझ और रणनीति की आवश्यकता होती है।

निपटने की रणनीतियाँ:

एक अध्यापिका के रूप में, मैं इस स्थिति से निपटने के लिए निम्नलिखित कदम उठाऊँगी:

  1. व्यवहार के कारण को समझना: सबसे पहले, मैं यह जानने की कोशिश करूँगी कि बच्चा ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। क्या वह घर पर किसी तनाव से गुजर रहा है? क्या वह ध्यान आकर्षित करना चाहता है? क्या उसे कोई काम बहुत मुश्किल लग रहा है? कारण समझे बिना समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

  2. सकारात्मक संबंध बनाना: मैं उस बच्चे के साथ एक मजबूत और भरोसेमंद रिश्ता बनाने पर ध्यान केंद्रित करूँगी। मैं उसके अच्छे व्यवहार की प्रशंसा करूँगी, भले ही वह बहुत छोटा क्यों न हो। मैं उसके साथ व्यक्तिगत रूप से समय बिताऊँगी और उसकी पसंद-नापसंद जानने की कोशिश करूँगी। जब बच्चा महसूस करेगा कि मैं उसे पसंद करती हूँ, तो वह मेरी बात सुनने के लिए अधिक प्रेरित होगा।

  3. स्पष्ट और सरल नियम बनाना: कक्षा के नियम बहुत स्पष्ट, सरल और कम संख्या में होने चाहिए। जैसे, "हम दूसरों को मारेंगे नहीं" या "हम अपना सामान जगह पर रखेंगे।" मैं यह सुनिश्चित करूँगी कि ये नियम सभी बच्चों को अच्छी तरह से पता हों।

  4. विकल्प देना: सीधे आदेश देने के बजाय, मैं बच्चे को विकल्प दूँगी। उदाहरण के लिए, "क्या तुम लाल ब्लॉक से खेलना चाहोगे या नीले?" यह कहने के बजाय कि "चलो, अब ब्लॉक से खेलो।" विकल्प देने से बच्चे को लगता है कि स्थिति पर उसका भी नियंत्रण है, जिससे उसका विरोध कम हो जाता है।

  5. परिणामों को लागू करना: यदि बच्चा नियम तोड़ता है, तो मैं शांति से लेकिन दृढ़ता से पूर्व-निर्धारित परिणाम लागू करूँगी। जैसे, अगर वह खिलौने फेंकता है, तो उसे कुछ समय के लिए उन खिलौनों से दूर बैठना होगा। सजा का उद्देश्य बच्चे को अपमानित करना नहीं, बल्कि उसे अपने व्यवहार की जिम्मेदारी सिखाना है।

  6. धैर्य रखना: सबसे महत्वपूर्ण बात है धैर्य रखना। बच्चे का व्यवहार एक दिन में नहीं बदलेगा। इसमें समय लगेगा। मुझे लगातार और सकारात्मक प्रयास करते रहना होगा।

निष्कर्ष:
मैंने यह समझा है कि विरोधात्मक व्यवहार बच्चे की ओर से एक चुनौती है, लेकिन यह एक मदद की पुकार भी हो सकती है। एक देखभालकर्ता के रूप में मेरा लक्ष्य बच्चे को 'नियंत्रित' करना नहीं, बल्कि उसे आत्म-नियंत्रण सिखाना है ताकि वह सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीके से अपनी भावनाओं को व्यक्त करना सीख सके।


(ख) डर व दुर्गति से ग्रस्त बच्चा (A Child with Fears and Anxieties)

परिचय:
बचपन में डर लगना एक सामान्य बात है, जैसे अंधेरे से डरना या अकेले रहने से डरना। लेकिन जब यह डर बहुत अधिक बढ़ जाए और बच्चे के दैनिक जीवन को प्रभावित करने लगे, तो यह चिंता या दुर्गति (Anxiety) का रूप ले लेता है। ऐसा बच्चा अक्सर सहमा हुआ, चुपचाप और नई चीजों को आज़माने से डरता है। एक अध्यापिका के रूप में, ऐसे बच्चे को सुरक्षित महसूस कराना मेरी पहली प्राथमिकता होगी।

निपटने की रणनीतियाँ:

एक देखभालकर्ता के रूप में, मैं एक डरे हुए बच्चे की मदद करने के लिए निम्नलिखित रणनीतियाँ अपनाऊँगी:

  1. एक सुरक्षित और सहायक वातावरण बनाना: मैं यह सुनिश्चित करूँगी कि मेरी कक्षा का माहौल बच्चे के लिए पूरी तरह से सुरक्षित और अनुमानित हो। एक स्थिर दिनचर्या बच्चे को सुरक्षा का एहसास कराती है क्योंकि उसे पता होता है कि अब आगे क्या होने वाला है। मैं कक्षा में चिल्लाने या डांटने से बचूँगी।

  2. बच्चे की भावनाओं को स्वीकार करना: मैं बच्चे के डर का मज़ाक कभी नहीं उड़ाऊँगी और न ही उसे यह कहूँगी कि "डरने की कोई बात नहीं है।" इसके बजाय, मैं उसकी भावनाओं को स्वीकार करूँगी। मैं कह सकती हूँ, "मैं समझ सकती हूँ कि तुम डरे हुए हो। कभी-कभी मुझे भी डर लगता है।" इससे बच्चे को लगेगा कि उसे समझा जा रहा है।

  3. बातचीत और कहानियों का उपयोग: मैं बच्चे को उसकी चिंताओं के बारे में बात करने के लिए प्रोत्साहित करूँगी। यदि वह सीधे बात नहीं कर पाता है, तो मैं कठपुतलियों या कहानियों का सहारा लूँगी। मैं ऐसी कहानियाँ सुना सकती हूँ जिसमें नायक अपने डर पर काबू पाता है।

  4. धीरे-धीरे सामना कराना (Gradual Exposure): मैं बच्चे को उसकी डर वाली चीज़ से धीरे-धीरे और सुरक्षित तरीके से सामना कराऊँगी। उदाहरण के लिए, यदि वह कुत्तों से डरता है, तो मैं पहले उसे किताबों में कुत्ते की तस्वीरें दिखाऊँगी, फिर दूर से एक शांत कुत्ते को देखने के लिए ले जाऊँगी। मैं उसे कभी भी किसी ऐसी स्थिति में नहीं डालूँगी जिसके लिए वह तैयार न हो।

  5. रिलैक्सेशन तकनीक सिखाना: मैं बच्चे को गहरी साँस लेने जैसी सरल रिलैक्सेशन तकनीक सिखा सकती हूँ। जब भी वह चिंतित महसूस करे, तो मैं उसे कह सकती हूँ, "चलो, हम तीन बार गहरी साँस लेते हैं।"

  6. माता-पिता के साथ सहयोग: मैं बच्चे के माता-पिता से नियमित रूप से बात करूँगी ताकि घर और स्कूल दोनों जगह एक समान और सहायक दृष्टिकोण अपनाया जा सके।

निष्कर्ष:
मैंने सीखा है कि एक डरे हुए बच्चे को सबसे ज्यादा प्यार, धैर्य और सुरक्षा की जरूरत होती है। मेरा लक्ष्य उसके डर को तुरंत खत्म करना नहीं, बल्कि उसे अपने डर का सामना करने का आत्मविश्वास और कौशल देना है। जब बच्चा यह जान जाएगा कि वह अपनी भावनाओं को संभाल सकता है, तो उसका आत्मविश्वास अपने आप बढ़ने लगेगा।


प्रश्न 4. समुदाय आधारित पुनः स्थापन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। (600 शब्द: 6 अंक)

उत्तर:

परिचय:
समुदाय आधारित पुनःस्थापन (Community-Based Rehabilitation - CBR), मेरे विचार में, विशेष आवश्यकताओं वाले व्यक्तियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का एक बहुत ही मानवीय और प्रभावी दृष्टिकोण है। यह इस विचार पर आधारित है कि पुनःस्थापन का कार्य केवल बड़े-बड़े अस्पतालों या संस्थानों तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह व्यक्ति के अपने समुदाय के भीतर, उसके परिवार और पड़ोसियों की मदद से होना चाहिए।

अवधारणा की व्याख्या:
समुदाय आधारित पुनःस्थापन (CBR) एक ऐसी विकास रणनीति है जिसका उद्देश्य विशेष आवश्यकताओं वाले व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना और उन्हें समाज में समान अवसर और अधिकार प्रदान करना है। इसमें समुदाय स्वयं अपने संसाधनों (जैसे- स्थानीय लोग, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, शिक्षक, स्वयंसेवक) का उपयोग करके पुनःस्थापन सेवाओं को लागू करता है। यह 'टॉप-डाउन' मॉडल के विपरीत है, जहाँ विशेषज्ञ बाहर से आकर समाधान थोपते हैं। CBR मानता है कि समुदाय के लोग अपनी समस्याओं को सबसे बेहतर समझते हैं और वे ही समाधान का हिस्सा बन सकते हैं।

CBR के मुख्य सिद्धांत और घटक:

  1. समावेश (Inclusion): इसका मूल सिद्धांत यह है कि विशेष आवश्यकता वाले व्यक्ति को अलग-थलग करने के बजाय उसे समुदाय की सभी गतिविधियों—जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक जीवन और आजीविका—में शामिल किया जाए।

  2. सशक्तिकरण (Empowerment): CBR का लक्ष्य विशेष आवश्यकता वाले व्यक्तियों और उनके परिवारों को सशक्त बनाना है ताकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा सकें और अपने जीवन से जुड़े निर्णय स्वयं ले सकें।

  3. स्थानीय संसाधनों का उपयोग: यह महंगे उपकरणों या विशेषज्ञों पर निर्भर रहने के बजाय स्थानीय स्तर पर उपलब्ध ज्ञान, कौशल और सामग्री का उपयोग करने पर जोर देता है। उदाहरण के लिए, एक स्थानीय बढ़ई बच्चे के लिए सहायक उपकरण बना सकता है।

  4. सामुदायिक भागीदारी: यह कार्यक्रम की सफलता के लिए समुदाय के सभी सदस्यों—परिवार, शिक्षक, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, पंचायत सदस्य, और स्थानीय नेताओं—की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करता है।

CBR की प्रक्रिया:
एक विशिष्ट CBR कार्यक्रम में, एक स्थानीय कार्यकर्ता (जिसे अक्सर समुदाय द्वारा ही चुना जाता है और प्रशिक्षित किया जाता है) घर-घर जाकर विशेष आवश्यकता वाले व्यक्तियों की पहचान करता है। फिर वह परिवार के साथ मिलकर एक पुनःस्थापन योजना बनाता है। इस योजना में बच्चे को सरल व्यायाम सिखाना, उसे स्थानीय स्कूल में दाखिला दिलाने में मदद करना, परिवार को सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी देना और समुदाय में जागरूकता फैलाना शामिल हो सकता है।

निष्कर्ष:
मेरे विश्लेषण के अनुसार, समुदाय आधारित पुनःस्थापन केवल एक चिकित्सा मॉडल नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक विकास का आंदोलन है। यह विशेष आवश्यकता वाले व्यक्तियों को दया के पात्र के रूप में नहीं, बल्कि समुदाय के एक मूल्यवान और अधिकार-संपन्न सदस्य के रूप में देखता है। यह भारत जैसे देश के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है जहाँ अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और विशेषज्ञ सेवाओं तक पहुँच सीमित है। CBR यह सुनिश्चित करता है कि पुनःस्थापन सेवाएँ सस्ती, सुलभ और सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त हों।


प्रश्न 5. किन्हीं तीन सिद्धांतों का वर्णन करें जो मानसिक मंदता से ग्रस्त बच्चों के साथ कार्य करते हुए प्रारंभिक देखभाल कार्यकर्ताओं को ध्यान में रखने चाहिए। (600 शब्द: 6 अंक)

उत्तर:

परिचय:
मानसिक मंदता (अब इसे बौद्धिक अक्षमता कहना अधिक उपयुक्त माना जाता है) से ग्रस्त बच्चों के साथ काम करना एक बहुत ही संवेदनशील और पुरस्कृत अनुभव हो सकता है। इन बच्चों की सीखने की गति धीमी होती है और उन्हें अमूर्त अवधारणाओं को समझने में कठिनाई होती है, लेकिन सही मार्गदर्शन और धैर्य के साथ वे बहुत कुछ सीख सकते हैं। एक प्रारंभिक देखभाल कार्यकर्ता के रूप में, मेरे लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि इन बच्चों के साथ काम करने के लिए कुछ विशेष सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है।

मैंने निम्नलिखित तीन सिद्धांतों को सबसे महत्वपूर्ण पाया है:

1. मूर्त से अमूर्त की ओर (Concrete to Abstract):

  • सिद्धांत का अर्थ: बौद्धिक अक्षमता वाले बच्चे अमूर्त विचारों (जैसे- ईमानदारी, दोस्ती, संख्या 'तीन') को सीधे नहीं समझ पाते हैं। उन्हें सीखने के लिए ठोस, वास्तविक और मूर्त वस्तुओं की आवश्यकता होती है जिन्हें वे देख और छू सकें।

  • कार्य में अनुप्रयोग:

    • गणित सिखाना: 'तीन' की अवधारणा सिखाने के लिए, मैं केवल बोर्ड पर '3' नहीं लिखूँगी। इसके बजाय, मैं बच्चे को तीन पत्थर, तीन पेंसिल, या तीन ब्लॉक दूँगी। जब वह इन वस्तुओं को गिनना और महसूस करना सीख जाएगा, तब मैं धीरे-धीरे उसे संख्या के प्रतीक '3' से परिचित कराऊँगी।

    • कहानी सुनाना: कहानी के पात्रों को समझाने के लिए मैं कठपुतलियों या चित्रों का उपयोग करूँगी। इससे बच्चे को कहानी को समझने और याद रखने में मदद मिलेगी।

    • दैनिक कौशल: ब्रश करना सिखाने के लिए मैं उसे ब्रश और पेस्ट हाथ में दूँगी और खुद करके दिखाऊँगी, न कि केवल मौखिक निर्देश दूँगी।

2. छोटे, सरल चरणों में सिखाना (Task Analysis - कार्य विश्लेषण):

  • सिद्धांत का अर्थ: एक जटिल कार्य (जैसे- शर्ट पहनना) इन बच्चों के लिए बहुत भारी हो सकता है। कार्य विश्लेषण का सिद्धांत यह कहता है कि किसी भी बड़े कार्य को उसके सबसे छोटे और सरल चरणों में तोड़ दिया जाए और एक बार में केवल एक ही चरण सिखाया जाए।

  • कार्य में अनुप्रयोग:

    • शर्ट पहनना सिखाना: मैं शर्ट पहनने की प्रक्रिया को कई छोटे चरणों में बाँट दूँगी: (1) शर्ट को सीधा रखना, (2) एक हाथ को एक आस्तीन में डालना, (3) दूसरे हाथ को दूसरी आस्तीन में डालना, (4) शर्ट को नीचे खींचना, (5) बटन बंद करना। मैं पहले बच्चे को केवल पहला चरण सिखाऊँगी। जब वह उसमें निपुण हो जाएगा, तब मैं दूसरा चरण सिखाऊँगी।

    • रंग भरना: एक चित्र में रंग भरने के लिए, मैं पहले उसे केवल सीधी रेखाएँ खींचना सिखाऊँगी, फिर गोल आकार और फिर धीरे-धीरे एक सीमित क्षेत्र के अंदर रंग भरना।

3. निरंतर सकारात्मक पुनर्बलन और दोहराव (Consistent Positive Reinforcement and Repetition):

  • सिद्धांत का अर्थ: इन बच्चों को सीखने के लिए बहुत अधिक अभ्यास और दोहराव की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही, उनके हर छोटे प्रयास की सराहना करना और उन्हें सकारात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है और वे सीखने के लिए प्रेरित होते हैं।

  • कार्य में अनुप्रयोग:

    • सकारात्मक पुनर्बलन: जब बच्चा कोई नया कौशल सीखने का प्रयास करता है, भले ही वह पूरी तरह सफल न हो, मैं उसकी प्रशंसा करूँगी। जैसे, "वाह! तुमने बहुत अच्छी कोशिश की!" या उसे एक स्टार दूँगी। यह डाँटने या गलतियाँ निकालने से कहीं अधिक प्रभावी है।

    • दोहराव: मैं एक ही कौशल को विभिन्न तरीकों और विभिन्न सामग्रियों का उपयोग करके बार-बार सिखाऊँगी। दिनचर्या में नियमित अभ्यास को शामिल करना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि सीखा हुआ कौशल बच्चे की आदत बन जाए।

निष्कर्ष:
इन सिद्धांतों का अध्ययन करने के बाद, मेरा विश्वास है कि बौद्धिक अक्षमता से ग्रस्त बच्चों के साथ काम करने के लिए सबसे बड़ा गुण धैर्य है। एक कार्यकर्ता के रूप में, मुझे बच्चे की गति से चलना होगा, न कि अपनी गति से। मुझे उनकी छोटी-छोटी सफलताओं का जश्न मनाना होगा और उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा कि वे भी सीख सकते हैं और सक्षम हैं।

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प्रश्न 6. निम्नलिखित में से प्रत्येक को 500 शब्दों में स्पष्ट करें: (3x5=15 अंक)

उत्तर:

(क) प्रभावी पर्यवेक्षण की तीन विशेषताएँ (Three Characteristics of Effective Supervision)

परिचय:
प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा केंद्र में, पर्यवेक्षण (Supervision) केवल कर्मचारियों पर नज़र रखने या गलतियाँ पकड़ने का नाम नहीं है। मेरे विचार में, एक प्रभावी पर्यवेक्षण एक सहयोगात्मक और सहायक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य कर्मचारियों के पेशेवर विकास में मदद करना और केंद्र में शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाना है। एक प्रभावी पर्यवेक्षक (Supervisor) एक बॉस नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक (Mentor) होता है।

प्रभावी पर्यवेक्षण की तीन प्रमुख विशेषताएँ:

  1. सहायक और रचनात्मक प्रतिक्रिया (Supportive and Constructive Feedback):

    • व्याख्या: एक प्रभावी पर्यवेक्षक केवल यह नहीं बताता कि क्या गलत है, बल्कि वह यह भी बताता है कि उसे कैसे सुधारा जा सकता है। उसकी प्रतिक्रिया व्यक्तिगत हमला न होकर, व्यवहार या कार्य पर केंद्रित होती है। वह कर्मचारियों की शक्तियों को पहचानता है और उन्हें प्रोत्साहित करता है, साथ ही कमजोरियों को सुधारने के लिए रचनात्मक सुझाव देता है।

    • उदाहरण: एक पर्यवेक्षक यह कहने के बजाय कि "आपकी कक्षा बहुत शोरगुल वाली है," यह कह सकता है, "मैंने देखा कि बच्चे समूह गतिविधियों के दौरान बहुत उत्साहित हो जाते हैं। क्या हम मिलकर कुछ ऐसी रणनीतियों पर विचार कर सकते हैं जिनसे कक्षा को बेहतर ढंग से प्रबंधित किया जा सके? शायद हम समूह को छोटा कर सकते हैं।" यह दृष्टिकोण कर्मचारी को रक्षात्मक बनाने के बजाय समाधान खोजने के लिए प्रेरित करता है।

  2. नियमित और निरंतर संवाद (Regular and Consistent Communication):

    • व्याख्या: प्रभावी पर्यवेक्षण साल में एक बार होने वाली मूल्यांकन बैठक नहीं है। यह एक सतत प्रक्रिया है। एक अच्छा पर्यवेक्षक अपने कर्मचारियों के साथ नियमित रूप से संवाद करता है। यह संवाद औपचारिक बैठकों के रूप में भी हो सकता है और अनौपचारिक बातचीत के रूप में भी। नियमित संवाद से विश्वास का रिश्ता बनता है और छोटी-छोटी समस्याएँ बड़ा रूप लेने से पहले ही हल हो जाती हैं।

    • उदाहरण: एक पर्यवेक्षक हर सुबह कुछ मिनट के लिए कर्मचारियों से मिल सकता है, सप्ताह में एक बार छोटी टीम मीटिंग कर सकता है, और महीने में एक बार प्रत्येक कर्मचारी के साथ व्यक्तिगत रूप से बैठ सकता है। वह कक्षा में जाकर अवलोकन करता है और तुरंत ही सहायक प्रतिक्रिया देता है।

  3. पेशेवर विकास के अवसर प्रदान करना (Providing Opportunities for Professional Development):

    • व्याख्या: एक प्रभावी पर्यवेक्षक यह समझता है कि उसके कर्मचारी भी सीखना और बढ़ना चाहते हैं। वह केवल उनकी कमियों को नहीं गिनता, बल्कि उनके कौशल को बढ़ाने के लिए अवसर भी प्रदान करता है। वह कर्मचारियों को कार्यशालाओं (Workshops), प्रशिक्षण कार्यक्रमों या सेमिनारों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करता है। वह केंद्र में ही सीखने का माहौल बनाता है जहाँ कर्मचारी एक-दूसरे से सीख सकते हैं।

    • उदाहरण: पर्यवेक्षक एक कर्मचारी को, जो कला में बहुत अच्छा है, अन्य कर्मचारियों के लिए एक छोटी कार्यशाला आयोजित करने के लिए कह सकता है। वह नई शिक्षण विधियों पर लेख साझा कर सकता है या कर्मचारियों को किसी विशेष विषय पर और अधिक पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।

निष्कर्ष:
मैंने यह समझा है कि प्रभावी पर्यवेक्षण का केंद्र बिंदु "नियंत्रण" नहीं, बल्कि "विकास" है। यह एक ऐसी साझेदारी है जिसमें पर्यवेक्षक और कर्मचारी दोनों मिलकर बच्चों के लिए सर्वोत्तम संभव सीखने का वातावरण बनाने का प्रयास करते हैं।


(ख) फ्रोबेल के शैक्षिक दर्शन की बुनियादी अवधारणाएँ (Basic Concepts of Froebel's Educational Philosophy)

परिचय:
फ्रेडरिक फ्रोबेल को "किंडरगार्टन का जनक" कहा जाता है, और उनका शैक्षिक दर्शन आज भी प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। किंडरगार्टन का शाब्दिक अर्थ है "बच्चों का बगीचा"। फ्रोबेल का मानना था कि बच्चे पौधों की तरह होते हैं और शिक्षक एक माली की तरह, जिसका काम बच्चों को स्वाभाविक रूप से विकसित होने के लिए एक उचित और पोषण युक्त वातावरण प्रदान करना है।

फ्रोबेल के दर्शन की बुनियादी अवधारणाएँ:

  1. खेल के माध्यम से सीखना (Learning through Play): फ्रोबेल का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने खेल को बच्चों की शिक्षा का केंद्रीय तत्व माना। उनका मानना था कि खेल बच्चों का काम है और यह मनोरंजन मात्र नहीं है। खेल के माध्यम से बच्चे दुनिया को खोजते हैं, रचनात्मक बनते हैं, समस्याओं को हल करना सीखते हैं और अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं। यह बच्चे के आत्म-अभिव्यक्ति का उच्चतम रूप है।

  2. उपहार और व्यवसाय (Gifts and Occupations): फ्रोबेल ने बच्चों को सिखाने के लिए विशेष रूप से डिजाइन की गई शिक्षण सामग्री विकसित की, जिसे उन्होंने 'उपहार' (Gifts) और 'व्यवसाय' (Occupations) कहा।

    • उपहार (Gifts): ये लकड़ी के ब्लॉक के सेट थे, जैसे कि घन, गोला, और सिलेंडर। इनका उद्देश्य बच्चों को आकार, रूप, संख्या और संबंधों की अवधारणाओं से परिचित कराना था। बच्चे इन उपहारों से अपनी कल्पना के अनुसार कुछ भी बना सकते थे।

    • व्यवसाय (Occupations): ये ऐसी गतिविधियाँ थीं जिनसे बच्चों के कौशल का विकास होता था, जैसे मिट्टी का काम, कागज मोड़ना (Origami), बुनाई और चित्रकारी। ये गतिविधियाँ बच्चों की रचनात्मकता और सूक्ष्म-मोटर कौशल को बढ़ाती थीं।

  3. प्रकृति का महत्व: फ्रोबेल का प्रकृति से गहरा लगाव था और वे मानते थे कि बच्चों को प्रकृति के निकट रहकर सीखना चाहिए। उन्होंने किंडरगार्टन में बगीचे बनाने पर जोर दिया जहाँ बच्चे पौधे लगा सकते थे और उनकी देखभाल कर सकते थे। उनका मानना था कि प्रकृति के माध्यम से बच्चे जीवन, विकास और ईश्वर की रचना के बारे में सीखते हैं।

  4. एकता और ईश्वर में विश्वास: फ्रोबेल का दर्शन एक गहरे आध्यात्मिक विश्वास पर आधारित था। उनका मानना था कि हर चीज में एक अंतर्निहित एकता है—मनुष्य, प्रकृति और ईश्वर के बीच। शिक्षा का उद्देश्य बच्चे को इस एकता का एहसास कराना था।

निष्कर्ष:
फ्रोबेल के दर्शन का अध्ययन करने के बाद, मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि उनका दृष्टिकोण आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने हमें सिखाया कि शिक्षा बच्चों पर थोपी नहीं जानी चाहिए, बल्कि यह उनके भीतर से आनी चाहिए। उनका खेल, रचनात्मकता और प्रकृति पर जोर आधुनिक प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा की नींव है।


(ग) मोबाइल क्रेच कार्यक्रम की दो अद्वितीय विशेषताएँ (Two Unique Features of Mobile Creches Programme)

परिचय:
मोबाइल क्रेच एक अद्वितीय और प्रेरणादायक पहल है जो भारत में प्रवासी निर्माण श्रमिकों (Migrant Construction Workers) के बच्चों की देखभाल और शिक्षा के लिए काम करती है। जहाँ माता-पिता निर्माण स्थलों पर काम करते हैं, उनके छोटे बच्चे अक्सर असुरक्षित और उपेक्षित परिस्थितियों में रहते हैं। मोबाइल क्रेच सीधे इन्हीं निर्माण स्थलों पर जाकर एक क्रेच (शिशु-गृह) या डे-केयर सेंटर स्थापित करता है। यह कार्यक्रम अपनी दो अनूठी विशेषताओं के कारण सबसे अलग है।

मोबाइल क्रेच कार्यक्रम की दो अद्वितीय विशेषताएँ:

  1. कार्यस्थल पर एकीकृत सेवा (Integrated Service at the Worksite):

    • व्याख्या: यह मोबाइल क्रेच की सबसे अनूठी विशेषता है। यह बच्चों के पास जाने का इंतजार नहीं करता, बल्कि यह स्वयं बच्चों के पास जाता है। यह निर्माण स्थलों (Construction Sites) पर, जहाँ माता-पिता काम कर रहे होते हैं, वहीं पर एक अस्थायी क्रेच स्थापित करता है। यह क्रेच एक समग्र केंद्र के रूप में कार्य करता है जो केवल बच्चे की देखभाल ही नहीं करता, बल्कि एक ही छत के नीचे स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा की एकीकृत सेवाएँ प्रदान करता है।

    • महत्व: इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि सेवाएँ बच्चों के लिए आसानी से सुलभ हो जाती हैं। माता-पिता को अपने बच्चों को दूर किसी केंद्र में छोड़ने की चिंता नहीं करनी पड़ती। वे काम के बीच में आकर अपने बच्चों को देख सकते हैं और स्तनपान कराने वाली माताएँ अपने बच्चों को दूध पिला सकती हैं। यह बच्चों को निर्माण स्थल के खतरों—जैसे धूल, शोर, और दुर्घटनाओं—से बचाता है।

  2. त्रि-स्तरीय कार्यक्रम (Three-Tiered Programme):

    • व्याख्या: मोबाइल क्रेच कार्यक्रम केवल छोटे शिशुओं की देखभाल तक सीमित नहीं है। यह बच्चों की उम्र के अनुसार उनकी विकासात्मक जरूरतों को पूरा करने के लिए एक त्रि-स्तरीय कार्यक्रम चलाता है:

      • क्रेच सेक्शन (0-3 वर्ष): इस समूह में बच्चों की बुनियादी जरूरतों जैसे- पोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता और सुरक्षित देखभाल पर ध्यान दिया जाता है। उन्हें खेलने और खोज करने के लिए एक प्रेरक वातावरण प्रदान किया जाता है।

      • बालवाड़ी सेक्शन (3-6 वर्ष): इस समूह में बच्चों को खेल-आधारित शालापूर्व शिक्षा दी जाती है ताकि उन्हें औपचारिक स्कूली शिक्षा के लिए तैयार किया जा सके।

      • औपचारिक शिक्षा सेक्शन (6-12 वर्ष): इस समूह के बच्चों को मुख्यधारा के स्कूलों में दाखिला दिलाने में मदद की जाती है और उन्हें स्कूल के बाद ट्यूशन और होमवर्क में सहायता प्रदान की जाती है ताकि वे स्कूल में टिके रहें।

    • महत्व: यह त्रि-स्तरीय दृष्टिकोण सुनिश्चित करता है कि बच्चे की देखभाल और शिक्षा में कोई रुकावट न आए। यह बच्चे के विकास के हर चरण का ध्यान रखता है, जिससे उसके उज्ज्वल भविष्य की नींव रखी जाती है। यह केवल एक अस्थायी समाधान नहीं है, बल्कि यह बच्चे को एक स्थायी शैक्षिक मार्ग पर लाने का प्रयास है।

निष्कर्ष:
मोबाइल क्रेच कार्यक्रम मेरे लिए सामाजिक नवाचार का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह हमें सिखाता है कि यदि इरादा मजबूत हो, तो सबसे वंचित और पहुँच से बाहर के बच्चों तक भी गुणवत्तापूर्ण सेवाएँ पहुँचाई जा सकती हैं। इसकी कार्यस्थल-आधारित और समग्र विकासात्मक मॉडल इसे भारत में प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल के क्षेत्र में एक अग्रणी संस्था बनाता है।


भाग ख (20 अंक)

इस भाग में आपको इस पाठ्यक्रम, अर्थात् डीईसीई-3 की प्रयोगात्मक कार्यों की नियमावली में दिए गए अभ्यासों में से अभ्यास संख्या 1, 2, 9 या 10 में से कोई एक अभ्यास करना है।

उत्तर: अभ्यास 10 - अपने क्षेत्र में कार्यरत किसी स्वैच्छिक संस्था का दौरा करना।

संस्था का नाम: प्रयास (एक काल्पनिक नाम, आप वास्तविक नाम का उपयोग करें)
संस्था का उद्देश्य: झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में रहने वाले बच्चों को शिक्षा और पोषण सहायता प्रदान करना।

परिचय:
अपने DECE पाठ्यक्रम के एक भाग के रूप में, मैंने अपने क्षेत्र में काम कर रही एक स्वैच्छिक संस्था का दौरा करने का फैसला किया। मुझे हमेशा से यह जानने की उत्सुकता रही है कि ये संस्थाएँ जमीनी स्तर पर कैसे काम करती हैं। मैंने 'प्रयास' नामक संस्था को चुना, जो पिछले दस वर्षों से हमारे शहर की एक बड़ी झुग्गी-बस्ती में बच्चों के लिए काम कर रही है। यह मेरे लिए एक आँखें खोल देने वाला अनुभव था।

दौरे की प्रक्रिया:

  1. मैंने सबसे पहले संस्था के समन्वयक (Coordinator) से फोन पर बात करके मिलने का समय लिया और उन्हें अपने दौरे के उद्देश्य के बारे में बताया।

  2. निश्चित दिन पर, मैं उनके केंद्र पर पहुँची। यह केंद्र बस्ती के बीच में एक छोटे से सामुदायिक हॉल में स्थित था।

  3. समन्वयक, श्रीमती अनीता शर्मा, ने मेरा बहुत गर्मजोशी से स्वागत किया और मुझे केंद्र की गतिविधियों के बारे में बताया।

मेरा अवलोकन:

  • केंद्र का वातावरण: केंद्र बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन वह साफ-सुथरा और जीवंत था। दीवारों पर बच्चों द्वारा बनाए गए चित्र लगे हुए थे और कम लागत वाली शिक्षण सामग्री जैसे चार्ट और खिलौने करीने से रखे हुए थे।

  • गतिविधियाँ: मैंने देखा कि बच्चों को उम्र के अनुसार अलग-अलग समूहों में बाँटा गया था। एक कोने में छोटे बच्चे (3-5 वर्ष) खेल-खेल में अक्षर और गिनती सीख रहे थे। दूसरे कोने में, बड़े बच्चे (6-14 वर्ष) स्कूल के बाद अपना होमवर्क कर रहे थे, और एक स्वयंसेवक (volunteer) उनकी मदद कर रहा था।

  • कर्मचारी और स्वयंसेवक: केंद्र में दो पूर्णकालिक कर्मचारी और तीन कॉलेज के छात्र स्वयंसेवक के रूप में काम कर रहे थे। मैंने देखा कि वे सभी बच्चों के साथ बहुत धैर्य और स्नेह से पेश आ रहे थे।

  • चुनौतियाँ: श्रीमती शर्मा ने बताया कि उनकी सबसे बड़ी चुनौती बच्चों की अनियमित उपस्थिति है। अक्सर परिवारों को काम के लिए दूसरी जगह जाना पड़ता है, जिससे बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है। धन की कमी और प्रशिक्षित कर्मचारियों को बनाए रखना भी एक निरंतर संघर्ष है।

मेरा मूल्यांकन:
'प्रयास' जैसी संस्थाएँ हमारे समाज में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। वे उन बच्चों तक पहुँच रही हैं जहाँ सरकारी व्यवस्था अक्सर विफल हो जाती है। मुझे यह देखकर बहुत प्रेरणा मिली कि कैसे सीमित संसाधनों के बावजूद, वे बच्चों के जीवन में एक सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनका काम केवल शिक्षा देना नहीं है; वे बच्चों को एक सुरक्षित स्थान, पोषण और एक बेहतर भविष्य की आशा प्रदान कर रहे हैं।

निष्कर्ष और सीख:
इस दौरे से मैंने बहुत कुछ सीखा। मैंने सीखा कि जुनून और प्रतिबद्धता के साथ सीमित संसाधनों में भी बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है। इसने मुझे सिखाया कि समाज के प्रति मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है। इस अनुभव ने मुझे प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए और भी अधिक प्रेरित किया है। मैं भविष्य में ऐसी संस्थाओं के साथ एक स्वयंसेवक के रूप में जुड़ना चाहूँगी।


भाग ग (20 अंक)

इस भाग में आपको इस पाठ्यक्रम, अर्थात् डीईसीई-3 की प्रयोगात्मक कार्यों की नियमावली में दिए गए अभ्यासों में से 6, 7 या 8 में से कोई एक अभ्यास करना है।

उत्तर: अभ्यास 7 - शालापूर्व केंद्र के बच्चों के लिए एक दिन की गतिविधियों की योजना बनाना और कार्यान्वित करना।

समूह: 4-5 वर्ष के बच्चे (20 बच्चे)
थीम/विषय: "रंगों की दुनिया"

परिचय:
इस प्रैक्टिकल के लिए मैं बहुत उत्साहित थी क्योंकि मुझे बच्चों के साथ एक पूरी थीम-आधारित गतिविधि करने का मौका मिल रहा था। मैंने "रंगों की दुनिया" थीम को चुना क्योंकि रंग बच्चों को बहुत आकर्षित करते हैं और यह एक ऐसा विषय है जिसके माध्यम से कई अलग-अलग अवधारणाओं को सिखाया जा सकता है। मेरा उद्देश्य केवल बच्चों को रंगों के नाम सिखाना नहीं था, बल्कि उनकी रचनात्मकता, अवलोकन कौशल और भाषा का विकास करना भी था।

गतिविधियों की योजना:

मैंने पूरे दिन को विभिन्न गतिविधियों में विभाजित किया, जो सभी "रंगों" की थीम से जुड़ी थीं:

समयगतिविधिउद्देश्यआवश्यक सामग्री
सुबह (स्वागत और वृत्त समय)"रंगों का गीत" गाना और बच्चों से पूछना कि आज उन्होंने कौन-कौन से रंग के कपड़े पहने हैं।भाषा विकास, अवलोकन कौशल, गर्मजोशी का माहौल बनाना।कुछ नहीं।
बड़ी समूह गतिविधि"इंद्रधनुष की कहानी" सुनाना।सुनने का कौशल, रंगों के क्रम को समझना।इंद्रधनुष का बड़ा चित्र, कहानी की किताब।
छोटी समूह गतिविधियाँ (3 समूह)1. फिंगर पेंटिंग: बच्चों को लाल, पीले और नीले रंग से पेंटिंग करने देना। 2. रंगों की छँटाई: अलग-अलग रंगों के ब्लॉक्स को मिलाना और बच्चों को उन्हें रंग के अनुसार अलग-अलग डिब्बों में रखने के लिए कहना। 3. क्ले मॉडलिंग: बच्चों को अलग-अलग रंगों की क्ले (चिकनी मिट्टी) से अपनी पसंद की चीजें बनाने देना।सूक्ष्म-मोटर कौशल, रचनात्मकता, वर्गीकरण कौशल, संवेदी अनुभव।पेंट, कागज, रंगीन ब्लॉक्स, डिब्बे, रंगीन क्ले।
बाहरी खेल"रंगों को ढूंढो" खेल। मैं एक रंग का नाम बोलूँगी (जैसे "लाल") और बच्चों को खेल के मैदान में उस रंग की कोई चीज ढूंढकर छूनी होगी।स्थूल-मोटर कौशल, रंगों की पहचान, निर्देशों का पालन।खुला मैदान।
दोपहर का भोजनबच्चों के भोजन में रंगीन चीजों (जैसे गाजर, मटर, टमाटर) पर ध्यान आकर्षित करना।स्वस्थ भोजन की आदतों को बढ़ावा देना।भोजन।
शांत गतिविधि (अंत में)बच्चों को उनके द्वारा बनाए गए चित्रों को दिखाना और उनके बारे में बात करना।आत्म-अभिव्यक्ति, आत्मविश्वास बढ़ाना।बच्चों की बनाई पेंटिंग।

गतिविधि का कार्यान्वयन (मैंने इसे कैसे किया):
मैंने आंगनवाड़ी सुपरवाइजर की अनुमति से एक दिन के लिए इस योजना को लागू किया।

  1. शुरुआत: सुबह की प्रार्थना के बाद, मैंने बच्चों के साथ "लाल-पीले-नीले, देखो कितने रंगीले" गीत गाया। बच्चों ने बहुत उत्साह से भाग लिया और अपने दोस्तों के कपड़ों के रंग बताए।

  2. कहानी और पेंटिंग: इंद्रधनुष की कहानी बच्चों को बहुत पसंद आई। फिंगर पेंटिंग के दौरान बच्चे बहुत खुश थे। उन्होंने रंगों को आपस में मिलाकर नए रंग बनते हुए देखा और वे बहुत रोमांचित हुए।

  3. समूह कार्य: रंगों की छँटाई वाले खेल में कुछ बच्चों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया, जबकि कुछ को थोड़ी मदद की जरूरत पड़ी। क्ले मॉडलिंग सभी को पसंद आई।

  4. बाहरी खेल: "रंगों को ढूंढो" खेल सबसे सफल रहा। बच्चे दौड़-भाग कर रहे थे और खुशी-खुशी रंगों के नाम चिल्ला रहे थे।

मेरा मूल्यांकन और सीख:

  • सफलता: कुल मिलाकर, दिन बहुत सफल रहा। बच्चे पूरे दिन व्यस्त और खुश रहे। थीम-आधारित दृष्टिकोण ने सीखने को मजेदार और सार्थक बना दिया।

  • चुनौतियाँ: फिंगर पेंटिंग के दौरान थोड़ी अव्यवस्था हुई, लेकिन यह सीखने की प्रक्रिया का एक हिस्सा था। अगली बार, मैं इसके लिए बेहतर तैयारी करूँगी, जैसे बच्चों को एप्रन पहनाना।

  • सीख: इस अभ्यास ने मुझे सिखाया कि एक अच्छी योजना बनाना कितना महत्वपूर्ण है। इसने मुझे यह भी सिखाया कि योजना बनाते समय लचीला होना भी जरूरी है। मुझे बच्चों की रुचि के अनुसार गतिविधियों में छोटे-मोटे बदलाव करने पड़े। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मैंने बच्चों को अवलोकन करके उनकी जरूरतों और रुचियों को समझना सीखा।

निष्कर्ष:
यह अनुभव मेरे लिए अविश्वसनीय रूप से शिक्षाप्रद था। इसने मुझे एक शिक्षक के रूप में अपनी क्षमताओं पर विश्वास दिलाया। मैंने महसूस किया कि जब सीखना मजेदार होता है, तो बच्चे न केवल सीखते हैं, बल्कि उस प्रक्रिया का आनंद भी लेते हैं। मैं भविष्य में अपनी कक्षा में इसी तरह की रचनात्मक और एकीकृत शिक्षण विधियों का उपयोग करने के लिए तत्पर हूँ।

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Kkr Kishan Regar

Dear Friends, I am Kkr Kishan Regar, a passionate learner in the fields of education and technology. I constantly explore books and various online resources to expand my knowledge. Through this blog, I aim to share insightful posts on education, technological advancements, study materials, notes, and the latest updates. I hope my posts prove to be informative and beneficial for you. Best regards, **Kkr Kishan Regar** **Education:** B.A., B.Ed., M.Ed., M.S.W., M.A. (Hindi), P.G.D.C.A.

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