वैदिक परम्परा व उपनिषदों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, प्रमुख विशेषता, तुलना

वैदिक परम्परा व उपनिषदों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन

उपनिषद के शैक्षणिक उद्देश्य

वैदिक परम्परा के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य वैदिककालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को जीवन के लिए तैयार करना है। इस दृष्टि के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं
वैदिक परम्परा व उपनिषदों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, प्रमुख विशेषता, तुलना
वैदिक परम्परा व उपनिषदों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, प्रमुख विशेषता, तुलना



1. चरित्र निर्माण चरित्र निर्माण के बिना बौद्धिक विकास निरर्थक है। चरित्र निर्माण के उद्देश्य की पूर्ति के लिए विद्यार्थियों को सदाचार के उपदेश देते थे। उन्हें ऐसे वातावरण में रखा जाता था जिससे उनका चारित्रित उत्थान हो।

2. नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का पालन वैदिक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य स्वार्थ रहित जीवन जीना था। उन्हें पुत्र, पति तथा पिता के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करने की शिक्षा दी जाती थी। नागरिकों के लिए स्वयं के धन से अतिथियों का सत्कार एवं दुखियों की सहायता करना वांछित था। स्पष्ट है कि वैदिक शिक्षा व्यवस्था में नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों के पालन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।

3. सामाजिक कुशलता की उन्नति–वेद काल में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानवीय जीवन को सुरक्षित तथा सुखी बनाना था। इस उद्देश्य की पूर्ति विभिन्न शास्त्रों, व्यवसायों तथा उद्योगों की व्यवस्था करके की गई थी। छात्रों का मानसिक विकास करने के साथ-साथ उनको उस व्यवसाय की शिक्षा निश्चित रूप से प्रदान की जाती थी जिसे वे अपने भावी जीवन में अपनाना चाहते थे।

4. व्यक्तित्व का विकास- इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए छात्रों में आत्म-सम्मान की भावना का विकास, आत्म-विश्वास को प्रोत्साहन, आत्म-संयम के महत्त्व पर बल, न्याय एवं विवेक को विकसित करने की विधियों को सिखाया जाता था।

उपनिषदों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य उपनिषदों का शिक्षाशास्त्र शिक्षा के स्वरूप से लेकर उसकी प्रयोजन मूलकता सम्बन्धी निम्न उद्देश्य को दर्शाता है

(i) मानसिक एवं चरित्र निर्माण करना-उपनिषदों में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का चारित्रिक निर्माण करना था। उपनिषद् में ज्ञान प्राप्ति और चरित्र निर्माण दोनों एक साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं। विनम्रता व संयमी होना ज्ञान के लिए एक अनिवार्य पूर्वापेक्षा है। "विद्या ददाति विनयं" अर्थात् विद्या नम्रता देती है, इसी भाव को दर्शाती है।

(ii) एकता की भावना का विकास करना-"एकोहमद्वितीयोनास्ति: अर्थात् एक ही है दूसरा कोई नहीं," इस सूत्र के माध्यम से उपनिषदों में मानवमात्र की एकता की शिक्षा दी गई है। यह शिक्षा बोध कराती है कि हम विविधताओं से परिपूर्ण जीवन के मूल में स्थित एकता को समझें तथा जन्म, जाति, भाषा, सम्प्रदाय या लिंग के आधार पर किए जाने वाले समस्त भेदों को मिटा कर मानव की आत्मिक एकता को स्वीकार करें।

(ii) नैतिकता का विकास करना—आत्मानुशासन और संयम उपनिषदीय शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों में से एक है। इसके द्वारा ही व्यक्ति अपने अन्दर व्याप्त क्षमताओं का विकास कर सकता है और समाज के विकास में योगदान दे सकता है।


वैदिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख


वैदिक शिक्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Vedic Education) वैदिक शिक्षा की नीवें इतनी मजबूत थीं कि यह सहस्रों वर्षों तक फलती-फूलती रहीं। यद्यपि इस अन्तराल में इसने अनेक सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक परिवर्तनों की चुनौतियाँ स्वीकार की। इसका प्रमुख कारण था इसकी मौलिक परम्पराएँ तथा उनका सुव्यवस्थित सामाजिक संगठन । वैदिक युगीन शिक्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. उपनयन संस्कार (Upnayana Ceremony) 

'उपनयन' का शाब्दिक अर्थ है 'निकट लगा', 'सम्पर्क में लाना' (To come cioser or to bring in touch)। अतः संस्कार के माध्यम बालक सर्वप्रथम गुरु से सम्पर्क स्थापित करता था। यह संस्कार बालक के 8, 11 अथवा 12वें आयु वर्ग में सम्पन्न होता था। यह वास्तविक रूप में बाल्यावस्था में प्रवेश काल की सूचक होती थी, जबकि बालक प्रायः विद्यारम्भ करने को उद्यत होते थे। वैदिक काल में कोई भी उच्च वर्ग का बालक इस संस्कार के बिना शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता था।

2. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन (Follow of celebacy)-

प्रत्येक विद्यार्थी को ज्ञानार्जन के समय ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना आवश्यक था। आचार-विचार की शुद्धता तथा श्रेष्ठ व्यवहार को उच्चतम महत्ता प्रदान की गई थी। छात्रों को गुरुकुलों में कठोर नियमों, व्रतों तथा परम्पराओं का अनुसरण करना होता है। प्रारम्भिक 25 वर्षों तक के समय को विद्याध्ययन हेतु श्रेष्ठ माना गया था। इस समय छात्र को 'ब्रह्मचारी' का सम्बोधन प्रदान किया जाता था। छात्रों को किसी भी दृष्टिकोण से इत्र, सौन्दर्य प्रसाधन तथा नशीले द्रव्यों आदि का प्रयोग निषेध था। इस प्रकार सभी गुरुकुलवासी ब्रह्मचारी गुरु आश्रम की कठोर परम्पराओं के अनुकूल विद्याध्ययन करते थे। 

3. गुरुसेवा (Service to the Teacher) 

प्रत्येक छात्र को गुरुसेवा करना अत्यन्त आवश्यक था। गुरु की अवज्ञा करना पाप समझा जाता था। उसके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई थी। गुरुसेवा कार्यों में दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं जैसे-जल, लकड़ी एवं खाद्य सामग्री की व्यवस्था करना, आश्रम के पशु-पक्षियों की देखभाल करना तथा सफाई आदि कार्य सम्मिलित थे। इस कारण से ही आचार्य को उत्कृष्ट पद प्रदान किया गया था

"आचार्यों ब्रह्मचर्येण, ब्रह्मचारिणमिच्छति।" 
मुनीनां दशसाहस्रं योऽन्नपानादिपोषणम्।
अध्यापयति विप्रर्षिरसौ कुलपतिः स्मृतः॥ 
(अथर्ववेद 17-5-17) 

इस प्रकार गुरुकुल में छात्र गुरुसेवा में उन्हें देवता मानकर संलग्न रहते थे। (आचार्य देवोभव)।

4. शिक्षाकाल (Duration of Education) 

गुरुकुल में एक छात्र निरन्तर 24 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी था। इसके पश्चात् गुरु उसे गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की आज्ञा प्रदान करते थे। किन्तु कुछ शिष्य इससे भी आगे परा विद्याओं का अभ्यास करने के उद्देश्य से आश्रमों में ही निवास करते थे। इस प्रकार शिक्षाकाल को निम्नलिखित भागों में विभक्त किया गया था

(i) वसु : वे छात्र जो केवल 24 वर्षों तक शिक्षा ग्रहण करते थे। 
(ii) रुद्र : वे छात्र जो 36 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त करते थे। 
(iii) आदित्य : वे छात्र जो 48 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त करते थे।

गुरुकुलों में इसके अतिरिक्त प्रत्येक शिक्षा सत्र की भी नियमित व्यवस्थाएँ थीं। इनमें मौसम, अभ्यास प्रक्रिया तथा अन्य कारणों से कुछ व्यवस्थित परिवर्तन किए जा सकते थे। प्रायः शिक्षा सत्र एक वर्ष से लेकर 5 माह तक होते थे। ये सत्र श्रावण मास की पूर्णिमा से प्रारम्भ होते थे तथा पौष माह की पूर्णिमा को समाप्त हो जाते थे।

5. वैदिक पाठ्यचर्या (Vedic Curriculum)-

वैदिक पाठ्यचर्या में वेदों का पठन पाठन एक आधारभूत तत्व था, किन्तु और भी अनेक विद्याएँ पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सम्मिलित की गयी थीं। छान्दोग्य उपनिषद्' में उपलब्ध पाठ्यक्रम सूची में निम्नलिखित विषय सन्निहित हैं— ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, उपनिषद्, आलोचनाएं, राशि (अंक) विज्ञान, दैव विज्ञान, ध्वनि विज्ञान, शब्द विज्ञान, व्याकरण, कालशास्त्र (Science of Time), ज्योतिष (Astrology), शस्त्र विद्या (War Science), नीतिशास्त्र (Axiology) आदि। इनके अतिरिक्त उन्हें धनुर्विद्या, औषधिशास्त्र, ब्रह्म विद्या आदि का भी उत्कृष्ट ज्ञान प्रदान किया जाता था।

6.शिक्षण-विधियाँ (Teaching-Methods) 

वैदिक युग में प्रमुख रूप से मौखिक एवं कण्ठस्थ विधियों को ही शिक्षण-अधिगम विधियों के रूप में स्वीकार किया गया था। गुरु जो भी पढ़ाते थे, छात्र उन्हें मौखिक रूप से कण्ठस्थ करते थे। इसीलिए श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन-तीन विद्याएँ शिक्षण-अधिगम के क्षेत्र में प्रचलित थीं। श्लोकों को ठीक से बोलने हेतु छात्रों को ध्वनि विज्ञान,शब्द विज्ञान, क्रम, व्याख्या आदि का गहन अभ्यास कराया जाता था। शिक्षा का माध्यम क्लिष्ट संस्कृत था। इस प्रकार शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित प्रकार से प्रदर्शित की जा सकती हैं

(1) छात्र द्वारा गुरुमुख से श्लोकों का सूक्ष्म श्रवण करना। 
(2) उनका अनुसरण करना। 
(3) छात्र द्वारा उन्हें पूर्ण कण्ठस्थ करना। 
(4) छात्र द्वारा उन पर मनन करना। 
(5) शिक्षक द्वारा उन्हें मूल्यांकित किया जाना।

(6) शिक्षक-

छात्र के मध्य तार्किक विवाद द्वारा उत्पन्न कठिनाइयों एवं भ्रमों का निवारण करना। इस प्रकार वैदिक शिक्षण-विधि का केन्द्र-बिन्दु (focus) केवल 'स्मृति' (Memory) थी। इस स्मृति को उत्कृष्ट बनाने के अनेक उपाय वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं । गौतम ने अपने 'न्यायसूत्र' में जो 'स्मृति उन्नति' के सूत्र बताए हैं, वे इस प्रकार हैं- (i) अवधान, (ii) पुनर्वहन, (iii) अभिज्ञान, (iv) साहचर्य। ...

8. अनुशासन एवं दण्ड-व्यवस्था (Discipline and provision of Punishment) 

अनुशासन को बनाए रखने के लिए गुरुकुलों में कठोर दण्ड की व्यवस्थाएँ विद्यमान थीं। यह दण्ड छात्र के अपराध की तीव्रता एवं उपयुक्तता के आधार पर गुरु द्वारा प्रदान किया जाता था। यद्यपि गुरुकुल का वातावरण इतना व्यस्त एवं दैनिक क्रियाकर्मों से परिपूर्ण था कि छात्र अनुशासनहीनता का अनुसरण नहीं कर पाते थे। यदि वे कोई सामान्य अनुशासनहीनता करते भी तो उसके लिए प्रारम्भिक उपायों; जैसे-समझना, उपदेश करना, उपवास या अनुष्ठान करना आदि माध्यमों से निवारण किया जाता था। परन्तु कठोर अनुशासनहीनता के संदर्भ में छात्र को शारीरिक दण्ड एवं आश्रम से बहिष्कृत करने के दण्ड का प्रावधान बनाया गया था।

9.निःशुल्क शिक्षा (Free Education)-

वैदिक युग में नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था थी। छात्र से गुरु कोई भी शुल्क ग्रहण नहीं करता था, क्योंकि शिक्षा प्रदान करना उसका सामाजिक दायित्व था। शिक्षा समाप्त हो जाने पर ही शिष्य अपने गुरु को कुछ भेंट, उपहार या दक्षिणा प्रदान करने का अधिकारी था। उनमें भी केवल धनी एवं राजसी वर्ग के छात्र ही शिक्षक को पर्याप्त धन दक्षिणा स्वरूप प्रदान करने में सक्षम होते थे। इस दक्षिणा में बहुमूल्य द्रव्यों के अतिरिक्त गाय, अश्व, अन्न तथा अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएँ सम्मिलित रहती थीं।

वैदिक शिक्षा के उद्देश्य एवं वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्यों की तुलनात्मक विवेचना


उत्तर वैदिक शिक्षा के उद्देश्य एवं वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्यों की तुलनात्मक विवेचना-वेद का अध्ययन एवं तत्कालीन विभिन्न स्थितियों का ज्ञान सामान्य रूप से जहाँ सभी विषयों के लिए उपादेय है, वहीं शैक्षणिक उद्देश्यों की दृष्टि से भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। प्रारम्भिक काल में शिक्षा वेदों से सम्बद्ध रही है। वैदिक शिक्षा के उद्देश्यों से न केवल वर्तमान सामाजिक समस्याओं का निदान किया जा सकता है, अपितु उज्ज्वल भविष्य की सुदृढ़, आधारशिला भी रखी जा सकती है। वैदिक शिक्षा के उद्देश्य वर्तमान शिक्षा के उद्देश्यों को जानने के महत्त्वपूर्ण आधार प्रदान करते है। वेदकालीन शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति को जीवन के लिए तैयार करना है। यही उद्देश्य वर्तमान शिक्षा का भी है। इसे समझने के लिए हम वैदिक कालीन एवं वर्तमान कालीन शिक्षा के उद्देश्यों को उल्लेखित करते हैं।

वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्य 

(1) चरित्र निर्माण 
(2) नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन 
(3) सामाजिक कुशलता की उन्नति 
(4) व्यक्तित्व का विकास।

वर्तमानकालीन शिक्षा के उद्देश्य 

व्यक्तित्व का विकास, दक्षता का विकास, आत्मप्रकाशन या आत्मभिव्यक्ति का बोध, सामाजिक जागरूकता एवं भागीदारी, नवीनता के प्रति स्वीकृति भाव, वैज्ञानिकता एवं बौद्धिकता को प्राथमिकता, सहयोग, त्याग, संयम एवं स्वाधिकार के मूल्यों का विकास, सहिष्णुता, सामंजस्य एवं अव्यवस्था के विरोध के साहस के गुणों का विकास, सुनागरिकता के दायित्व का पालन, गतिशीलता एवं सोद्देश्य सक्रियता, राष्ट्र तथा मनुष्यता के प्रति आदर, प्रेम एवं जागरूकता।

दोनों काल के उद्देश्यों का अवलोकन करके हम कह सकते हैं कि वैदिक कालीन शिक्षा के उद्देश्यों को वर्तमान कालीन शिक्षा में भी व्यापक रूप से स्थान दिया गया है। वैदिक कालीन शिक्षा के समान ही वर्तमान में भी विद्यार्थी के चरित्र निर्माण पर काफी ध्यान दिया जाता है। इसलिए इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वर्तमान में मूल्य शिक्षा, नैतिक शिक्षा जैसे विषयों का समावेश किया गया है। वैदिक शिक्षा व्यवस्था में नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों के पालन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। वर्तमान में भी नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों को समान रूप से महत्त्व दिया गया है। ताकि विद्यार्थी अच्छे नागरिक भी बन सके। नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का वर्णन नागरिकशास्त्र, सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में वर्णित किया गया है। वैदिक कालीन शिक्षा में सामाजिक कुशलता की उन्नति पर भी बल दिया गया है। सामाजिक कुशलता को वर्तमान में भी समान महत्त्व प्रदान किया गया है। इसी कारण वर्तमान में समुदाय को शिक्षा से जोड़ा जाता है। ताकि विद्यार्थी सामाजिक रूप से कुशल बनने के साथ-साथ समुदाय के विभिन्न व्यवसाय, उद्योग, सांस्कृतिक परम्परा से भी परिचित हो सके।

वेद हमारे सम्पूर्ण सांस्कृतिक, नैतिक, सामाजिक, एवं दार्शनिक जीवन का ज्ञान कराने के साथ-साथ हमारी कला, धर्म आदि का भी बोध करवाते हैं। इसे वर्तमान शिक्षा में भी स्थान दिया गया है। व्यक्तित्व का विकास, जो कि सम्पूर्ण शिक्षा का व्यापक उद्देश्य है को दोनों कालों में प्रमुखता प्रदान की गई है।

इस प्रकार वैदिककालीन एवं वर्तमानकालीन शिक्षा के उद्देश्यों का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् हम कह सकते हैं कि वैदिककालीन शिक्षा के उद्देश्यो को इसकी उपादेयता के कारण वर्तमान शिक्षा में सम्मिलित किया गया है और यह वर्तमान में पूर्णत: प्रासंगिक है।
Kkr Kishan Regar

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