शिक्षा दर्शन उत्पत्ति, विकास, स्वरूप एवं संकल्पना

शिक्षा-दर्शन उत्पत्ति, विकास, स्वरूप एवं संकल्पना


[EDUCATIONAL PHILOSOPHY - ORIGIN, DEVELOPMENT, NATURE AND CONCEPT]

दर्शन का उद्गम

(ORIGIN OF PHILOSOPHY)

मनुष्य सृष्टि का ताज कहा जाता है। शेक्सपियर ने मनुष्य को "देवदूत से थोड़ा नीचे बताया है। सच है, मनुष्य मात्र रोटी के लिए नहीं जीता। वह स्वयं के विषय में चिन्तन करता है। उसके मन में जानने की इच्छा (जिज्ञासा) होती है कि वह कोन है। इस निमित्त वह आत्म-विश्लेषण का सहारा लेता है। वह अपने चारों ओर के संसार के बारे में सोचता है, जगत में व्याप्त नियमों को ढूँढने चलता है। उसका सिर चकराने लगता है और वह आश्चर्य में पड़ जाता है। वह अपने अन्दर झाँक कर देखता है तो उसे और भी आश्चर्य होता है। साथ ही, उसके मन में तरह-तरह के सन्देह उत्पन्न होते हैं। उन शंकाओं के समाधान के लिए प्रमाण चाहता है। वह अपनी कल्पना वामन भिखारी के रूप में नहीं, अपितु विश्वविजेता के रूप में करता है। अनुभव करता है आज थल, जल, नभ पर उसका अधिकार है, फिर भी वह सुखी नहीं है। पर ऐसा क्यों ? तो सुख क्या है ? मानव-जीवन कैसे सुखमय हो सकता है ? इन विचारों के झंझावात में वह भटकने लगता है और मन अशांत हो जाता है। जरा, रोग और मृत्यु को देख वह काँप उठता है, भयभीत हो जाता है। गौतम बुद्ध ने इसी प्रकार की मानसिक अशान्ति अथवा असन्तोष का अनुभव किया था।
    इस प्रकार, जिज्ञासा, आश्चर्य, संदेह और मानसिक अशान्ति- इन चार से दर्शन का उद्गम है। शिक्षा दर्शन | शिक्षा दर्शन pdf  | शिक्षा दर्शन का क्षेत्र| शिक्षा दर्शन के उद्देश्य | शिक्षा दर्शन के कार्य | शिक्षा दर्शन का निष्कर्ष | शिक्षा दर्शन

शिक्षा-दर्शन

    प्लेटो और सुकरात दर्शन का जन्म आश्चर्य और जिज्ञासा से मानते हैं। सुविख्यात दार्शनिक डेकार्ट के अनुसार, संदेह की भावना से दर्शन की उत्पत्ति होती है। भारतीय दर्शन का प्रारम्भ मानसिक अशान्ति अथवा असन्तोष की भावना से होता है- कुछ विद्वानों का ऐसा मत है।
    यदि हम सोचें कि दर्शन का उद्गम जिज्ञासा, आश्चर्य, संदेह और मानसिक अशान्ति में से किसी एक भावना से होता है, तो हमारा यह सोच भ्रामक होगा। मनुष्य के मन में प्राय: एक नहीं, अनेक भावनाएँ एक साथ जन्म लेती हैं। यदि आश्चर्य होता है, तो संदेह या जिज्ञासा की भावना भी उपजती है। ढाके की मलमल से बनी साड़ी का एक अँगूठी से होकर निकल जाना यह जानकर अथवा सुनकर आश्चर्य होता है. संदेह होता है, और जिज्ञासा होती है कि क्या यह सचमुच सच है। शिक्षा दर्शन | शिक्षा दर्शन pdf  | शिक्षा दर्शन का क्षेत्र| शिक्षा दर्शन के उद्देश्य | शिक्षा दर्शन के कार्य | शिक्षा दर्शन का निष्कर्ष | शिक्षा दर्शन

शिक्षा दर्शन का उद्गम

(ORIGIN OF EDUCATIONAL PHILOSOPHY)

    शैक्षिक कार्य की जिम्मेदारी अध्यापक की होती है। अध्यापक राष्ट्र-निर्माता होता है। शैक्षिक प्रगति उसका दायित्व है। वह शिक्षा का प्रहरी है। अध्यापक के विषय में ये सब आदर्श कथन हैं, पर यथार्थ थोडा भिन्न है। अध्यापक दो प्रकार के होते हैं- पहला, वह जो अपने दायित्व के प्रति पूर्ण सजग रहता है, और दूसरा वह जो अपने कार्य के प्रति समर्पित नहीं होता अथवा कम समर्पित होता है। एक सजग अध्यापक अथवा एक समर्पित अध्यापक एक गम्भीर विचारक होता है। शिक्षा की समस्याओं पर वह अहर्निश विचार करता रहता है, उनसे जूझता रहता है, उनका निदान और समाधान ढूँढ़ता रहता है, शिक्षा की पद्धति में सुधार की दिशा देखता रहता है। ऐसी स्थिति में उसके लिए दर्शन का काफी महत्व होता है। बदलते समाज, बदलती परिस्थितियों के अनुरूप वह शिक्षा पद्धति में अभीष्ट परिवर्तन करना चाहता है । किन्हीं कारणों से जब परिवर्तन संभव नहीं हो पाता तो उसे अच्छा नहीं लगता, उसका मन खीझ उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाता है-परिवर्तन कब होगा ? कैसे होगा ? क्यों नहीं हो रहा है ? जब भी होगा, जिस दिशा में होगा ? उसके द्वारा इसी प्रकार के अनेक प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ने से शिक्षा दर्शन का उद्गम होता है। शिक्षा दर्शन | शिक्षा दर्शन pdf  | शिक्षा दर्शन का क्षेत्र| शिक्षा दर्शन के उद्देश्य | शिक्षा दर्शन के कार्य | शिक्षा दर्शन का निष्कर्ष | शिक्षा दर्शन

    15 अगस्त 1947 से पहले देश गुलाम था । अंग्रेज हमारे शासक थे। ब्रिटिश राज्य में ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी के माध्यम से दी जाती थी। अंग्रेजी सरकार भारत में अपने शासन की जड़ें जमाना चाहती थी। शासन चलाने के लिए उसको बाबू-वर्ग की आवश्यकता थी, ऐसे बाबू जो रूप-रंग से भारतीय हों परन्तु जिनके विचार-व्यवहार में अंग्रेजियत की बू हो। उस समय जो शिक्षा-पद्धति प्रचलित थी, वह देश की भावना के अनुरूप नहीं थी। उसमें भारतीय संस्कृति के प्रति अनादर का भाव निहित था । भारतवासियों के लिए यह स्थिति असह्य थी। फलतः ब्रिटिश शिक्षा-प्रणाली के विरोध में अंग्रेजी हुकूमत के समय ही राष्ट्रीय शिक्षा की ओर राष्ट्रप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट हुआ । विश्वभारती, जामिया मिलिया इस्लामिया, काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, वनस्थली विद्यापीठ, अरविन्द आश्रम, गुरुकुल कांगड़ी, आदि शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई। इस प्रकार तत्कालीन शिक्षा पद्धति के प्रति तिरस्कार एवं विद्रोह की भावना ने एक शिक्षा-दर्शन को जन्म दिया। इस शिक्षा-दर्शन से भारतीय संस्कृति की आत्मा की काफी हद तक रक्षा हुई। शिक्षाशास्त्रियों का ध्यानं सर्वप्रथम प्रचलित शिक्षा के भारतीयकरण (इन्डियनाइजेशन) की ओर गया, पर यह चिन्ता का विषय है कि इस दिशा में हम आज तक भी बहुत कुछ नहीं कर सके हैं। आज हमें यह सोचना है कि भारतीय संस्कृति के कौन-से तत्व हमारे लिए आवश्यक एवं उपयोगी हैं। डॉ० कालू लाल श्रीमाली के शब्दों में-
    "भारत में शिक्षा का यह कार्य है कि देश की सांस्कृतिक परम्परा के मूलभूत तत्वों का पता लगाया जाये और यह देखा जाये कि किस सीमा तक वे आधुनिक परिस्थितियों में व्यवहृत हो सकते हैं । "

    शिक्षा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से जीवन के वर्तमान तथ्यों का विश्लेषण तो हो पाता है किन्तु शिक्षा दर्शन का जन्म नहीं होता। शिक्षा दर्शन के उद्गम के लिए आवश्यक है- वर्तमान तथ्यों के विश्लेषण मात्र से सन्तुष्ट न होकर जीवन और शिक्षा के विषय में गहराई तक आध्यात्मिक चिन्तन करना ।

पश्चिमी दर्शन का विकास

(DEVELOPMENT OF WESTERN PHILOSOPHY)

पश्चिमी दर्शन के विकास को समझने के लिए इसको ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना उचित होगा ।

पश्चिमी दर्शन का विकास 3 भागों में बाँटा जा सकता है-

1. प्राचीन काल 2. मध्य काल 3. आधुनिक काल ।

प्राचीन काल (Ancient Period)


    इस काल में 'दर्शन' का श्रीगणेश यूनान से हुआ । इसी कारण प्राचीन दर्शन 'यूनानी दर्शन' के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल पुनः तीन उपकालों में विभक्त किया जा सकता है - सुकरात से पूर्व का काल; सुकरात, प्लेटो और अरस्तू का काल; अरस्तू के बाद और मध्य काल से पूर्व का काल ।
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    सुकरात से पूर्व का काल में पैथागोरस, हिरैक्लिटस, पारमेनाइडीज, एनैक्सेगोरस और प्रोटेगोरस के नाम प्रसिद्ध हैं। पैथागोरस उच्चकोटि का गणितज्ञ एवं धार्मिक व्यक्ति था। वह आत्मा को अजर-अमर मानता था और पुनर्जन्म में विश्वास करता था। हिरैक्लिटस का परिवर्तन में इतना अधिक विश्वास था कि वह प्रायः कहा करता था कि आप एक ही नदी में दोबारा स्नान नहीं कर सकते क्योंकि दूसरी बार स्नान करते समय पहले का पानी आगे प्रवाहित हो चुका रहता है। पारमेनाइडीज का कहना था कि कोई भी वस्तु परिवर्तित नहीं होती। एनैक्सेगोरस के अनुसार, सभी पदार्थ विभाज्य हैं और सभी अणुओं में प्रत्येक तत्व का थोड़ा बहुत अंश विद्यमान है। अपने समय के कुछ और दार्शनिकों से उसके विचार मेल नहीं खाते थे। उसने बताया कि जगत का कारण जगत में नहीं मिल सकता, इसके लिए मनस् में आना पड़ेगा क्योंकि मनस् ही गति का स्रोत है। प्रोटेगोरस सोफिस्ट था। वह मानता था कि "मनुष्य ही सभी वस्तुओं का मापदण्ड है" और "सत्य मनुष्य द्वारा निर्मित है" । उसके विचार व्यावहारिकतावादियों से मिलते-जुलते हैं ।
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    सुकरात, प्लेटो और अरस्तू का काल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्लेटो सुकरात का शिष्य और अरस्तू प्लेटो का शिष्य था । सुकरात को 'प्रत्यय' और 'आगमन' दोनों का जनक कहा जाता है। चिन्तन में प्रत्यय का बहुत अधिक महत्व है । आगमन में 'विशेष' से 'सामान्य' की ओर जाते हैं। सोहन, रहीम, जॉन आदि विशेष मनुष्यों को मरते देख वह सामान्यीकरण किया जाता है कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। सुकरात कहा करता था - 'अपने को जानो। प्लेटो ने दो प्रकार से संसारों की कल्पना. की - पहला, प्रत्ययों का संसार, और दूसरा, इन्द्रियों से अनुभव होने वाला संसार ।
इन्द्रियजन्य ज्ञान, सम्मतिजन्य ज्ञान और चिन्तनजन्य ज्ञान- इन तीनों में चिन्तनजन्य ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। रेखागणित का ज्ञान ऊँचा ज्ञान है और इससे भी ऊँचा तत्व-ज्ञान है अरस्तू ने आत्मा के ज्ञान से पहले मनुष्य के शारीरिक और मानसिक विकास को आवश्यक बताया है। शरीर और मन के विकास द्वारा मनुष्य को जीवनयापन में सहायता मिल सकती है। इस दार्शनिक के अनुसार, प्रत्यय को व्यावहारिक बनाने का कार्य दर्शन का है। दर्शन ही ऐसा विज्ञान है  जो परम तत्व के यथार्थ स्वरूप की जाँच करता है।
अरस्तू के बाद और मध्यकाल से पूर्व का काल बहुत कम महत्वपूर्ण है। 

मध्यकाल (Medieval Period)

पश्चिमी दर्शन का मध्यकाल धार्मिक दर्शन का काल है। इसमें ईसाई धर्म-दर्शन का विकास हुआ। सेन्ट ऑगस्तिन और सेन्ट टॉमस एक्विनस इस काल के मुख्य दार्शनिक थे। संत ऑगस्तिन की धारणा थी कि प्रभु अभाव से अथवा शून्य से जगत की रचना करता है। सर्वशक्तिमान प्रभु संसार का स्रष्टा है और तत्वों का भी रचयिता है। सृष्टि के साथ-साथ काल की भी रचना हुई। ईश्वर शाश्वत् है । उसके पहले अथवा उसके बाद का प्रश्न ही नहीं। संत टॉमस एक्विनस पुण्य और पाप में विश्वास करता था और पाप से बचने के उपाय भी बताया करता था। वह कहा करता था - कैथोलिक धर्म जो कहता है, वह सब सच है। अनेक प्रमाणों द्वारा उसने प्रभु की सत्ता को सिद्ध किया ।

आधुनिक काल (Modern Period)

    पश्चिमी दर्शन में आधुनिक काल का श्रीगणेश 15वीं शताब्दी से होता है। सन् 1509 में इस काल के एक दार्शनिक एवं साहित्यकार इरैसमस ने व्यंग्यार्थ और धर्म पर प्रहारार्थ मूर्खता की प्रशंसा' नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में उसने विवाह के दार्शनिक पक्ष की व्याख्या करते हुए कहा- "संसार में यदि मूर्खता न होती तो विवाह कौन करता ? सच्चा धर्म तो मूर्खता द्वारा ही सम्भव है।" 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं 17वीं के पूर्वार्द्ध में बेकन ने बताया कि सत्य की प्राप्ति के लिए वैज्ञानिक निरीक्षण अधिक उपयोगी है और यथार्थ का ज्ञान अन्तर्दर्शन से नहीं, अपितु बाह्य निरीक्षण द्वारा सम्भव है। इस विख्यात दार्शनिक ने अपने विचारों से पाश्चात्य जगत को अत्यधिक प्रभावित किया। आधुनिक दर्शन का जन्मदाता डेकार्ट एक माना हुआ दार्शनिक, गणितज्ञ एवं वैज्ञानिक था। उसने बिना प्रमाण की हर बात पर अविश्वास प्रकट किया। अविश्वास करते-करते वह इस नतीजे पर पहुँचा कि अविश्वास करने वाले के अस्तित्व से तो इंकार किया ही नहीं जा सकता। मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ।" यह एक स्पष्ट एवं ठोस सत्य है- उसने बताया। डेकार्ट ने द्रव्य और मनस् को दो भिन्न तत्व माना और द्वैतवाद का समर्थन किया। स्पिनोजा ने द्वैतवाद का खंडन किया और एकत्ववाद अथवा अद्वैतवाद का समर्थन किया । उसने ईश्वर को असीम और निरपेक्ष बताया तथा द्रव्य और मनस् को ईश्वर के विशेष गुणों के रूप में स्वीकार किया। उसके अनुसार, द्रव्य एक है, गुण अनेक हैं जो असंख्य रूपों में अभिव्यक्त होते हैं। संसार से सभी कार्य ईश्वर की इच्छा से होते हैं। लाइबनिज प्राकृत पदार्थों का विश्लेषण करते-करते अन्त में एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ से आगे विश्लेषण सम्भव ही नहीं था। अन्तिम सीमा को उसने 'चित्-बिन्दु' कहा. प्रत्येक चित्-बिन्दु को विश्व का प्रतिनिधि माना और केन्द्रीय चित्-बिन्दु को 'परमात्मा' का नाम दिया। लाइबनिज अनेकवादी था। लॉक अनुभववादी और विचारवादी था। 'ज्ञान' उसके विवेचन का विषय था। उसके अनुसार, सारा अनुभव इन्द्रियजन्य ज्ञान है जो पदार्थों के गुणों तक सीमित है। बर्कले, लॉक के अनुभववाद को और आगे ले गया। उसने कहा, "दृष्टि ही सृष्टि है'। अनुभूत पदार्थों की सत्ता अनुभव होने में है । बर्कले नामवादी था। डेविड ह्यूम ने और आगे बढ़कर कहा-जिस प्रकार बाह्य पदार्थ गुणों के समूह हैं, उसी प्रकार आत्मा चेतन अवस्थाओं का समूह है। ह्यूम संदेहवादी था, पर मानता था - प्रत्यक्ष में सन्देह कहाँ ? रूसो ने प्रकृति की ओर लौटो' का नारा दिया और पश्चिमी दर्शन में क्रान्ति मचा दी। कान्ट ने कहा- हमें ज्ञान की सामग्री प्रकृति से मिलती है किन्तु उसे आकार देना मन का काम है। प्रकृति और मन के सहयोग से ही ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है। हेगेल निरपेक्ष विचारवादी था। उसने बताया कि यथार्थ तत्व विवेकपूर्ण तथा बुद्धि-ग्राह्य होता है। शॉपनहार और नीत्शे ने संकल्प-शक्ति के विषय में विचार किया । विलियम जेम्स और जॉन ड्यूवी व्यावहारिकतावादी दर्शन के प्रणेता थे। इन दो को छोड़कर शेष आधुनिक पश्चिमी दार्शनिक यूरोप के हैं। इसलिए आधुनिक पश्चिमी दर्शन को यूरोपीय दर्शन की संज्ञा दी जाती है ।
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    सारांशतः प्राचीन काल में "विश्व और उसके कारण के सम्बन्ध पर विचार हुआ, मध्यकाल में "आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध का विवेचन हुआ, और आधुनिक काल में 'पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध को समझने का प्रयास हुआ । वस्तुतः पश्चिमी दर्शन में एक प्रकार का क्रमिक विकास है ।

भारतीय दर्शन का विकास

(DEVELOPMENT OF INDIAN PHILOSOPHY)

    पश्चिमी दर्शन के विकास क्रम का अध्ययन कर लेने के पश्चात् हम भारतीय दर्शन के विकास पर विचार करेंगे।
भारत ही नहीं, अपितु पूरे विश्व में 'वेद' प्राचीनतम ग्रन्थ है । 'वेद' में कोई दर्शन नहीं, वरन् भारतीय दर्शन का स्रोत है, आधारभूत ग्रन्थ है । 'वेद' वास्तव में एक है और उसी से चार वेद बन गये हैं। भारतीय दर्शनों में कुछ ऐसे हैं जो वेदों को मानते हैं, वेदानुकूल हैं। इन्हें 'षड्दर्शन' कहते हैं। कुछ भारतीय दर्शन वेदों को नहीं मानते। वेद-विरोधी दर्शन तीन हैं- चार्वाक, बौद्ध, जैन। जो वेदों को मानते हैं वे 'आस्तिक दर्शन कहलाते हैं, और जो वेदों को नहीं मानते वे 'नास्तिक दर्शन कहे जाते हैं।
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नास्तिक दर्शन

नास्तिक दर्शन

चार्वाक दर्शन

नास्तिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन प्राचीनतम दर्शन है। यह भौतिकवादी दर्शन है। यह परलोक, वेद, ईश्वर आदि को नहीं मानता। यह दर्शन
जब तक जिए, सुख से जिए
ऋण को लेकर, घृत को पिए
में विश्वास करता है। यह सुखवादी या भोगवादी दर्शन के सदृश है। इसके अनुसार, जड़-जगत सत्य है और यह जगत वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-इन भौतिक तत्वों से बना है। शरीर ही आत्मा है। शरीर के नष्ट होने पर भौतिक तत्वों से उत्पन्न चैतन्य नष्ट हो जाता है। मरने के बाद कुछ भी शेष नहीं बचता।

बौद्ध दर्शन (Buddhist Philosophy)

महात्मा बुद्ध के उपदेशों के फलस्वरूप बौद्ध दर्शन का जन्म हुआ। जरा, रोग और मृत्यु को देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो उठा। वे अत्यन्त दुःखी हो गये और कष्टों से छुटकारा पाने का उपाय ढूँढने लगे। वर्षों तक तप करने के पश्चात् उनको ज्ञान की प्राप्ति हुई। दे 'सिद्धार्थ' से 'बुद्ध' बन गये। बौद्ध ज्ञान निम्नलिखित 4 आर्य सत्यों में निहित है-
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दुःख है

दुःख सकारण है

दुःख के कारणों के मिटने पर दुःख का नाश सम्भव है

दुःख दूर करने का अष्टमार्गी उपाय है।
महात्मा बुद्ध ने दुःख दूर करने के अष्टमार्गी उपाय का प्रतिपादन किया है। ये 8 साधनों के रूप में हैं जिनसे अविद्या और तृष्णा का नाश होता है और परम शान्ति (निर्वाणावस्था) प्राप्त होती है-
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सम्यक् दृष्टि

सम्यक् वाक्

सम्यक् कर्मान्त

सम्यक् संकल्प

सम्यक आजीव

सम्यक् व्यायाम

सम्यक् स्मृति

सम्यक् समाधि

जैन दर्शन (Jain Philosophy)

जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं है। इसके अनुसार, प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द ये 3 प्रमाण हैं। चार्वाक दर्शन की तरह जैन दर्शन भी वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी से भौतिक जगत की उत्पत्ति मानता है। चैतन्य की उत्पत्ति जड़ पदार्थों से नहीं हो सकती। जितने सजीव शरीर हैं, उतने ही चैतन्य जीव हैं। प्रत्येक जीव अनन्त सुख पाने की क्षमता रखता है। मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। 'दयाभाव' जैन दर्शन का सार है । सर्वज्ञ को छोड़ पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति मनुष्य के वश की बात नहीं। सांसारिक बंधन से छुटकारा पाने के लिए निम्नलिखित 3 उपाय हैं-
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सम्यक् दर्शन

सम्यक् ज्ञान 

सम्यक् चरित्र
    सत्य सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं जैन दर्शन में सत्य को कहने के लिए 'स्यात्' (शायद) जोड़ दिया जाता है। यह स्यादवाद कहलाता है।

आस्तिक दर्शन


'षड्दर्शन' वेदों को मानते हैं। इसके अन्तर्गत 6 आस्तिक दर्शन हैं।

आस्तिक दर्शन

'न्याय' 

यथार्थवादी दर्शन है। इसके अनुसार, प्रमाण 4 हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द । 'न्याय' शब्द का अर्थ है- उचित अथवा वांछनीय। न्याय के अध्ययन से तर्कपूर्ण विचार करने की शक्ति बढ़ती है। इस दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम थे। न्याय दर्शन का विशेष योगदान 'ज्ञान-मीमांसा' के क्षेत्र में है। इसके अनुसार, बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर नहीं रहता। कुर्सी, मेज, कलम आदि बाह्य वस्तुएँ हैं। उनके विषय में कोई ज्ञान न होने पर भी उनका अस्तित्व कायम रहता है। मानसिक भावों (हर्ष, विषाद, भय, क्रोध) का अस्तित्व मन पर निर्भर है। मन द्वारा अनुभूति कर लेने पर ही उनका कोई अस्तित्व होता है। न्याय दर्शन का झुकाव पूर्व जन्म की ओर भी है। यह दर्शन भाग्य को नहीं, कर्म को मानता है । सुख-दुःख का कारण पूर्व कर्म है। संसार सुखमय है। ईश्वर सृष्टि का स्रष्टा, पालक और संहारक है । आत्मा नित्य है पर चेतना नित्य नहीं है।

वैशेषिक

'न्याय' और 'वैशेषिक दर्शनों में बड़ी समानता है। यही कारण है कि 'न्याय-वैशेषिक' को एक युग्म के रूप में देखा जाता है। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं। इस दर्शन में 'विशेष' की विशेष रूप से व्याख्या की जाती है। इसीलिए इसे 'वैशेषिक दर्शन की संज्ञा दी गई है। इस दर्शन में संसार की सभी वस्तुओं को सात भागों में बाँटा जाता है। इन भागों को प्रमेय कहते हैं। ये प्रमेय 7 हैं-
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द्रव्य

गुण कर्म

सामान्य

विशेष

समवाय

अभाव (निषेध)
    यह दर्शन प्रत्येक शरीर में अविनाशी आत्मा का निवास मानता है । आत्मा के 2 भेद हैं- जीवात्मा, परमात्मा वैशेषिक दार्शनिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करता है। कुछ मानते हैं कि ईश्वर का शरीर नहीं होता, पर कुछ की मान्यता है कि ईश्वर कभी-कभी शरीर रूप में अवतीर्ण होता है।

सांख्य

सांख्य दर्शन के अनुसार, मूल तत्व दो हैं-प्रकृति और पुरुष दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। पुरुष चेतन है, नित्य है, अनेक हैं। संसार का आदि कारण स्वतन्त्र प्रकृति है। प्रकृति में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। प्रकृति के तीन गुण हैं-सत्व, रज, तम । प्रकृति और पुरुष के संयोग से जगत की सृष्टि होती है। पुरुष इसी शरीर में मुक्ति पा सकता है। सांख्य दर्शन में ईश्वर केवल दृष्टा है, स्रष्टा नहीं ।

योग

जिस प्रकार न्याय और वैशेषिक में बड़ी समानता है, उसी प्रकार सांख्य और योग में बड़ा साम्य है। इसी कारण सांख्य और योग को भी एक जोड़े के रूप में देखा जाता है। योग दर्शन ईश्वर को स्वीकारता है। इस दर्शन द्वारा योग-साधना के लिए आठ साधन बताये गये हैं। इसके अभ्यास से मनुष्य योगी की स्थिति में आ जाता है, सत्य का अनुभव करता है, शुद्ध आत्मा के स्वरूप को पहचान लेता है और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। योग-साधना में सहायक निम्नलिखित 8 साधन (अंग) हैं-

यम

नियम

आसन

प्राणायाम

प्रत्याहार

धारणा

ध्यान समाधि
    इनके अभ्यास से व्यक्ति शुद्ध योगी बन जाता है, उसके मन से वासना तथा असत् विचार दूर भाग जाते हैं। योग साधना से योगी को दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, सिद्धियाँ वश में हो जाती हैं, हिंसक पशुओं को वह वश में कर सकता है, देवी-देवताओं का इच्छानुसार साक्षात्कार कर सकता है, त्रिकालदर्शी हो जाता है, जब चाहे अन्तर्ध्यान और प्रकट हो सकता है। योग-दर्शन में योग-साधकों को सिद्धियों की साधना करने की मनाही है क्योंकि योग साधना का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, न कि सिद्धियों की प्राप्ति ।
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मीमांसा

    'मीमांसा' को 'पूर्व-मीमांसा' भी कहते हैं। जेमिनी द्वारा प्रतिपादित पूर्व-मीमांसा' पूर्णरूपेण वेदों पर आधारित है। इसमें वैदिक कर्मकाण्ड का विवेचन है। इसके अनुसार, वेदानुकूल कर्म 'धर्म' है और वेद विरुद्ध कर्म 'अधर्म' है। आत्मा अनश्वर है, चेतन है। भौतिक जगत एक सत्य है ।

वेदान्त

    'वेदान्त' को 'उत्तर मीमांसा' भी कहते हैं। मीमांसा और वेदान्त को एक जोड़े के रूप में देखा जाता है। वेदान्त का आधार उपनिषद् है, जो वैदिक युग के अन्तिम साहित्य हैं। सभी चिन्तनधाराएँ जिनका उद्गम वेदों से हुआ है वेदान्त के अन्तर्गत आती हैं। भारतीय चिन्तन का चरमोत्कर्ष वेदान्त में देखने को मिलता है। इसके आदि प्रवर्तक शंकराचार्य थे।

    वेदान्त का सूत्र- चयन वादरायण ने किया है-वादरायण के 'ब्रह्मसूत्र' पर शंकराचार्य और रामानुजाचार्य के भाष्य अति प्रसिद्ध हैं। वेदान्त संसार के नानात्व में विश्वास नहीं करता। ज्ञान द्वारा उसके अनुसार, अनेकता में एकता सत्य है। सब कुछ ब्रह्म है, ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं । वेदान्त से अविद्या का नाश होता है। वेदान्त दर्शन में शंकराचार्य का 'अद्वैतवाद' और रामानुजाचार्य का 'विशिष्टाद्वैतवाद' विश्वविख्यात हैं।
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शिक्षा दर्शन का विकास

(DEVELOPMENT OF EDUCATIONAL PHILOSOPHY) शिक्षा दर्शन एक नया क्षेत्र है जिसमें शैक्षिक समस्याओं पर दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार किया जाता है।
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आदर्शवाद (Idealism)

आदर्शवाद प्राचीनतम दार्शनिक विचारधारा है। यह केवल विचार को सत्य मानता है। विचारों के अलावा अथवा विचारों से परे कुछ भी सत्य नहीं। भौतिक जीवन की तुलना में आध्यात्मिक जीवन अधिक उत्कृष्ट एवं महान है। भौतिक संसार इतना महत्वपूर्ण नहीं जितना विचारों का संसार । भौतिक जगत के पीछे विचारों का वास्तविक जगत है। भौतिक जगत में पदार्थ नश्वर है, परिवर्तनशील है अतएव असत्य है, वैचारिक जगत में विचार अनश्वर है, शाश्वत है इसलिए सत्य है। भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत से निम्न स्तर पर है।

चिरंतन सत्य तथा आदर्शों की प्रतिष्ठा तथा उनकी प्राप्ति ही आदर्शवाद का चरम लक्ष्य है । यह वाद जिन चिरंतन सत्यों को स्वीकार करता है वे हैं-सत्यम्, शिवम् सुन्दरम् । इनको ईश्वरीय विभूति माना गया है। इनकी प्राप्ति ईश्वर की प्राप्ति है । इनकी अनुभूति द्वारा व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त करता है। आदर्शवाद सामाजिक भावना को भी महत्व देता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयत्नशील होकर दूसरों के प्रति सहयोग एवं सौहार्द्र की भावना से भरपूर होता है। प्लेटो, कोमेनियस, पेंस्तालात्सी, फ्रोबेल आदि आदर्शवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं।
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भारतीय दृष्टिकोण (Indian Point of View)

भारत में आदर्शवादी विचारधारा बड़ी पुरानी है और वैदिक काल से चली आ रही है। इसमें ब्रह्म, जीव और जगत के विषय में विभिन्न मत हैं जिनके आधार पर आदर्शवाद के मुख्य तीन रूप हैं। प्रथम, अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही मूल तत्व है | वही ब्रह्माण्ड का कर्ता और कारण है। वही भौतिक संसार का रचयिता है। भौतिक संसार मायाजनित है। माया का आवरण हटते ही सब कुछ ब्रह्ममय दीखता है । द्वितीय, द्वैतवाद, 'ब्रह्म' और 'आत्मन' इन दो तत्वों की सत्ता को स्वीकार करता है इन्हीं को कुछ विचारक 'चित्' (चेतन) और 'अचित्' (जड़) कहते हैं। सांख्य दर्शन इनको पुरुष ( परमात्मा) और प्रकृति के रूप में देखता है। तृतीय, अनेकवाद के अनुसार प्रत्येक चेतन और जड़ में एक स्वतन्त्र 'आत्मन्' की सत्ता है। इन जीन के अतिरिक्त भारतीय आदर्शवाद में विशिष्टाद्वैत और द्वैताद्वैत दो रूप और हैं।

स्वामी विवेकानन्द अपने विचारों में पक्के आदर्शवादी थे। आध्यात्मिकता और एक सार्वलौकिक शक्ति में उनकी आस्था थी। उनका विश्वास था कि ज्ञान मनुष्य के अन्दर रहता है और उसका कर्तव्य केवल उसको खोज निकालना है।

महात्मा गाँधी की विचारधारा आदर्शवादी विचारधारा से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। उनके अनुसार, सत्य ही ब्रह्म है और मानव सेवा ही सच्ची ईश्वर सेवा है। दे कहा करते थे कि मनुष्य समाज में रहकर अपने को सत्य के हथियार से सुसज्जित रखे। उसे सत्य का अर्थ व्यापक रूप में लेना चाहिए। विचार, वाणी और आचार में सत्यता होनी चाहिए और सत्य का प्रयोग जीवनपर्यन्त करते रहना चाहिए। उनका दूसरा महामंत्र अहिंसा था।

रवीन्द्रनाथ टैगोर आदर्शवादियों की श्रेणी में आते हैं। उनकी दार्शनिक विचारधारा आध्यात्मिकता केन्द्रित है । सर्वशक्तिमान में उनका पूर्ण विश्वास था । उसको वह सत्यम् शिवम् सुन्दरम् का प्रतीक मानते थे। उनके अनुसार, ब्रह्माण्ड ईश्वर की लीला है और मनुष्य उसमें भाग लेने वाला अभिनेता । रवीन्द्रनाथ हमारे युग के महान् कवि हुए हैं। उनकी कविता में भारतीय दर्शन के अद्वैतवाद की झलक मिलती है। उनके विचार से ईश्वर को प्रेम और सत्य द्वारा पाया जा सकता है।

अरविन्द घोष का दर्शन आदर्शवादी विचारधारा से ओतप्रोत है। उनके अनुसार ब्रह्म संसार में हैं और संसार से परे भी है। विश्व ब्रह्म की लीला है। ईश्वर सर्वात्मा और परम पुरुष है। वह आत्मा को अनन्त मानते हैं। मानव जीवन आध्यात्मिक पूर्णता तथा अनन्त को पाने का माध्यम है। जिस प्रकार व्यक्ति में आत्मा है उसी प्रकार समाज और राष्ट्र के जीवन में एक आत्मा है। सामाजिक विकास का अर्थ आध्यात्मिकता की प्राप्ति है । सम्पूर्ण समाज को आध्यात्मिकता पर आधारित करने के प्रयास होने चाहिए। 

प्रकृतिवाद (Naturalism)

प्रकृतिवाद का प्रधान गुण है समस्त सामाजिक रूढ़ियों का विरोध करना । इसके अनुसार, व्यक्ति को प्रकृति के निकट तथा उसके सम्पर्क में लाने की आवश्यकता है। सभ्यता एवं सामाजिक विकास के फलस्वरूप मनुष्य प्रकृति से विलग हो गया है। सांसारिक कृत्रिमता तथा भौतिक मायाजाल ने उसे पूर्णतया आवृत कर रखा है। प्रकृतिवादी दर्शन के अनुसार, मनुष्य का त्राण इसी में है कि उसे इस कृत्रिम जीवन से हटाकर स्वाभाविक एवं प्राकृतिक जीवन की ओर उन्मुख किया जाये। यह तभी सम्भव है जब मानव प्रकृति कृत्रिमता का आवरण हटाकर नैसर्गिक बाह्य प्रकृति से अपना सम्पर्क तथा तादात्म्य स्थापित करे । इस प्रकार प्रकृतिवाद कृत्रिमता का घोर विरोधी है और इसका आदर्श वाक्य है- प्रकृति की ओर वापस चलो (बैक टु नेचर ) ।
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प्रकृतिवाद के अनुसार प्रकृति ही सब कुछ है। इससे परे अथवा इसके अलावा कुछ नहीं। केवल भौतिक संसार सत्य है और वास्तविक सत्ता भौतिक है। ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं । यह संसार प्रकृति द्वारा निर्मित है। स्वयं प्रकृति ही संसार का कर्ता और कारण दोनों है । मनुष्य संसार की सर्वोत्तम कृति है। वह पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। उसमें कुछ ऐसी शक्तियाँ हैं जिनके कारण वह पशुओं से ऊपर उठने में सफल हो सका है।
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प्रकृतिवादियों का कहना है कि सुखपूर्वक जीने के लिए प्राकृतिक जीवन ही सबसे अच्छा है। सभ्यता और संस्कृति के फेर में पड़कर मनुष्य प्रकृति से दूर हटा जा रहा है और इसी कारण वह दुःखी है अतएव मनुष्य को सर्वथा बन्धनमुक्त होना चाहिए तथा प्रकृति की रम्य गोद में आनन्दानुभूति करते हुए स्वविकास करना चाहिए।

भारतीय दृष्टिकोण ( Indian Point of View )

प्रकृतिवाद को यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाये तो यह छात्रों के लिए अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवाद की अनुपम देन है। इसके व्यावहारिक रूप पर प्रायः सभी भारतीय विचारकों ने बल दिया है ।

स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रकृति के उपासक थे। उनके अनुसार प्रकृति अनादि है। ईश्वर और आत्मा की भाँति प्रकृति की पृथक सत्ता है। सृष्टि का भौतिक आधार प्रकृति ही है। उनके द्वारा संस्थापित गुरुकुलों में "प्रकृति की ओर वापस चलो का व्यावहारिक रूप देखने में आता है। रूसो की तरह स्वामी विवेकानन्द ने भी पुस्तकीय ज्ञान का खण्डन किया है और शिक्षा में जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया है। उन्होंने आज के मानव को सन्देश दिया है कि उसे कृत्रिमता से रहित जीवन व्यतीत करना चाहिए।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचारों में हमें प्रकृतिवादी दर्शन की झाँकी मिलती है। गुरुदेव के अनुसार, पेड़-पौधे, शुद्ध समीर, स्वच्छ सरोवर आदि बेंच, ब्लैक-बोर्ड, पुस्तक और परीक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं। यदि सचमुच एक आदर्श शिक्षालय खोलना है तो उसे जनजीवन से दूर निर्जन स्थान में खुले गगन के नीचे काफी लम्बे-चौडे क्षेत्र में पेड-पौधों के बीच खोला जाना चाहिए ।

महात्मा गाँधी प्रकृति के पक्के पुजारी थे । प्राकृतिक वातावरण से उनका सच्चा अनुराग था। उन्होंने बालक की प्राकृतिक शक्तियों के विकास पर बल दिया जो प्राकृतिक वातावरण में ही सम्भव है। उनका दृढ़ विश्वास था कि भोजन, औषधि, शिक्षा आदि बातों में प्रकृति का अनुसरण उपयोगी होता है।
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महर्षि अरविन्द ज्ञान-प्राप्ति के विषय में इन्द्रियों को महत्व देते हैं। उनका कहना है कि इन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पांडिचेरी में स्थित अरविन्दाश्रम में प्राकृतिक नियमों के पालन पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता है।

यथार्थवाद (Realism)

यथार्थवाद अथवा वास्तववाद की भावना कोरे पुस्तकीय ज्ञान एवं शब्दाडंबर के विरोध में प्रस्फुटित हुई । मध्यकालीन पाश्चात्य देशों में मृत भाषाओं और अव्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति पर आवश्यकता से अधिक बल दिया जाने लगा था जिसके कारण शिक्षा और वास्तविक जीवन के बीच की खाई चौड़ी होती चली गई और विद्यालयी वातावरण अवास्तविक होता गया। बेकन, लाक, कोमेनियस, स्पेन्सर आदि ने इसे दूर करने के प्रयास में यथार्थवाद का सूत्रपात किया । इस वाद के अनुसार, शब्दों की जगह वस्तुओं को महत्व दिया जाता है। यथार्थवाद इस बात पर बल देता है कि जिन वस्तुओं का हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं। उनके पीछे तथा उनसे सम्बन्धित वस्तुओं का वास्तविक जगत है। प्रसिद्ध दार्शनिक बटलर के अनुसार वास्तववाद इस संसार को लगभग इसी रूप में अंगीकार करता है जिस रूप में वह हमें दिखाई पड़ता है।
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संसार में बहुत सी वस्तुएँ हैं जिनका ज्ञान हमें नहीं होता। इस आधार पर हम यह तो नहीं कह सकते कि वस्तु नहीं है। मनुष्य की शक्ति सीमित होती है। वह बहुत-सी चीजों को देखता है फिर भी सबको नहीं देख पाता। इसके अलावा, कुछ वस्तुएँ दिखाई कुछ पडती है और वास्तव में होती कुछ और हैं। मेज पर एक प्लेट पड़ी है। किसी स्थिति से देखने पर वह अंडाकार दिखाई देती है जबकि वह वृत्ताकार है तारे देखने में बहुत छोटे लगते हैं किन्तु होते हैं बहुत बड़े प्रत्यक्ष रूप और यथार्थता में कहीं-कहीं अन्तर होता है। वास्तविकता के बोध के निमित्त चीजों की ऊपरी सतह से काफी नीचे उतरना पड़ता है क्योंकि सतही जानकारी से काम नहीं बनता। एक आदमी है जो ऊपर से हँसता है, भीतर से खलनायक हो सकता है।
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यथार्थवाद भौतिकवाद पर निर्भर है। इसके अनुसार, भौतिक संसार ही यथार्थ है और इसका विकास कुछ नियमों के आधार पर होता है। बाह्य जगत एक नग्न सत्य है हम इसे जानें या न जानें। सड़क पर एक बड़ा सा पत्थर पड़ा है। वह है, यह एक वास्तविकता है जिसे नकारा नहीं जा सकता, भले ही हम उसे न देखें
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यथार्थवाद आत्मा-परमात्मा में पूर्णरूप से विश्वास नहीं करता। यह मनुष्य को महत्व देता है। मनुष्य के पास एक मन है, ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। वह इनके द्वारा सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अतएव सारे मानव प्रयत्न विज्ञान और सामान्य ज्ञान पर आधारित होने चाहिए और उस ज्ञान को व्यक्ति के लिए ही नहीं वरन् पूरे समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए। यथार्थवाद व्यवस्थित ज्ञानप्राप्ति का समर्थक है। इस ज्ञान को वस्तुनिष्ठ होना चाहिए। इसके अनुसार, सत्य की जाँच निरीक्षण, प्रयोग एवं तर्क के आधार पर की जा सकती है।

भारतीय दृष्टिकोण (Indian Point of View)

भारतीय यथार्थवाद का इतिहास बड़ा पुराना है। सृष्टि और सत्ता के विषय में यथार्थवादी दृष्टिकोण रखता है। भारत के षड्दर्शनों (सांख्य, योग, मीमांसा वेदान्त, न्याय वैशेषिक) में न्याय एवं वैशेषिक दर्शन यथार्थवादी विचारधारा का पोषण करते हैं। प्रमाण का व्युत्पत्तिक अर्थ यथार्थ ज्ञान अथवा यथार्थ अनुभव है और गौतम के न्यायदर्शन में प्रमाण को ही प्रमुख माना गया है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द ये चार प्रमाण हैं जिनके आधार पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती है। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त यथार्थ एवं संदेहरहित अनुभव ही प्रत्यक्ष है। कारण के ज्ञान द्वारा उस वस्तु के विषय में जानना जिसमें यह कारण विद्यमान है अनुमान कहलाता है। इसमें निगमन और आगमन दोनों विधियों की सहायता ली जाती है। उपमान के माध्यम से अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष में समानता का वर्णन अथवा गुण और गुणी में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। यथार्थ ज्ञान रखने वाले पुरुष की कही हुई बात या आप्त वचन को शब्द कहते हैं। महामुनि कणाद के वैशेषिक दर्शन में वर्णित सात पदार्थों के ज्ञान द्वारा यह जानना सरल है कि सृष्टि का यथार्थ रूप क्या है और मनुष्य के यथार्थ अनुभव क्या है। स्वामी रामतीर्थ के अनुसार, यथार्थवाद का अभिप्राय उस विश्वास से है जो संसार को वैसा ही मानता है जैसा वह हमें दिखाई देता है। जैन दर्शन भी आधुनिक यथार्थवादी दर्शन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इसका स्यात्वाद ईश्वर की सत्ता के विषय में यथार्थवादी दृष्टिकोण है। यह 'स्यात् अस्ति' या 'स्यात् न अस्ति' दोनों को मानता है। पाश्चात्य यथार्थवादी विचारधारा की आस्था में मोक्ष में नहीं के बराबर है किन्तु भारतीय यथार्थवाद मोक्ष में विश्वास करता है।

प्रयोजनवाद (Pragmatism)

प्रयोजनवाद नवीनतम दर्शन है। यह सर्वप्रथम अमरीका में उत्पन्न हुआ। इसमें अमरीकी जीवन और विचार की झलक मिलती है। जिस समय प्युरिटंस अमरीका में आए उस समय उनके सामने तरह-तरह की समस्याएँ थीं। उनको सुलझाने का उनके पास कोई पूर्वनिश्चित उपाय नहीं था। उन्हें नवीन वातावरण के अनुकूल नवीन आदर्शों की रचना करनी पडी तथा समस्याओं के हल के लिए नवीन उपाय खोजने पड़े। फलस्वरूप उनके निजी अनुभवों ने एक नवीन दार्शनिक विचारधारा को जन्म दिया जो प्रयोजनवाद तथा अनुभववाद कहलाया । यह वाद पूर्वनिर्धारित एवं प्रचलित सिद्धान्तों, चिरंतन आदर्शों तथा शाश्वत सत्यों में तनिक भी विश्वास नहीं करता प्रत्युत् किसी भी निश्चित विचारधारा का उग्र विरोध करता है।
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अंगरेजी का 'प्रैग्नेटिज्म' शब्द ग्रीक (प्रेग्मेटिकोस) से निकला है जिसका अर्थ है 'व्यावहारिक' अथवा 'व्यवहार्य' । व्यवहारों के परिणामस्वरूप प्राप्त होने के कारण प्रयोजनवादी दर्शन को व्यवहारवाद भी कहते हैं। इसके अनुसार, जीवन का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं। ये समयानुसार बदला करते हैं। जीवन स्वयं एक प्रयोगशाला है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति प्रयोग द्वारा नवीन आदर्शों, नवीन मूल्यों की खोज तथा उनकी प्रतिष्ठा करता है। इस कारण प्रयोजनवाद के नाम से भी प्रसिद्ध है। किसी भी कार्य की कसौटी उपयोगिता है। यदि कोई कार्य हमारे लिए उपयोगी है, उससे हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और हमारी समस्याएँ हल होती हैं तो वह ठीक है अन्यथा नहीं। उपयोगी सिद्ध होने पर हम उसे स्वीकार करते हैं । अतएव कुछ शिक्षाशास्त्री प्रयोजनवाद को उपयोगितावाद की संज्ञा से अभिहित करते हैं। चूँकि किसी कार्य की गुणता उसके फल पर आधारित है और उसकी अच्छाई अथवा बुराई उसके फल द्वारा आँकी जाती है इसलिए प्रयोजनवाद को फलवाद भी कह सकते हैं। प्रैग्मा (ऐक्शन अथवा कर्म) और इज्म (वाद) से मिलकर बनने के कारण प्रैग्नेटिज्म को कर्मवाद कहना अनुपयुक्त न होगा। इस दर्शन की निष्ठा केवल कार्य करने में है। वास्तव में प्रयत्न करने से ही प्रगति और क्रिया द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति होती है।

प्रयोजनवाद आदर्शवाद का विरोध करता है। यह निश्चित आदर्शों की सत्ता को नहीं मानता। इस विचारधारा के अनुसार आदर्शों की खोज स्वयं करनी पड़ती है। यह केवल एक आदर्श को मानता है और वह है 'शिव' अथवा उपयोगिता का आदर्श समस्याओं के समाधान में जो आदर्श सफल होते हैं उनको यह स्वीकार कर लेता है। प्रयोजनवाद सत्यम् और सुन्दरम् की भी सत्ता मानने को तैयार है किन्तु आँख मूँदकर नहीं बल्कि प्रयोग के आधार पर। इसका किसी आदर्श से न तो लगाव है और न टकराव, इसे तो वही आदर्श ठीक लगता है जो उपयोगी हो । प्रकृतिवाद बालक के सामने कोई भी आदर्श नहीं रखता। उसमें और प्रयोजनवाद में यही मुख्य अन्तर है।

प्रयोजनवाद ज्ञान को क्रिया का परिणाम मानता है। इसके अनुसार पहले क्रिया होती है और तब ज्ञान की प्राप्ति। आदर्श अथवा विचार क्रियाओं से प्रादुर्भूत होते हैं। इस दर्शन का विश्वास सोद्देश्य क्रिया में है। यह इस सत्य को मानकर चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति के कार्य करने का एक उद्देश्य होता है जिसकी पूर्ति पर उसे संतोष होता है। यही संतोष उसका लक्ष्य है ।
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प्रयोजनवाद रूढ़ियों, परम्पराओं, अन्धविश्वासों, मान्यताओं आदि में विश्वास नहीं करता। यह व्यक्ति के सामाजिक जीवन को महत्त्वपूर्ण बताता है। इसकी धारणा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज में रहकर ही अपने जीवन को उन्नतशील बना सकता है। इस अमरीकी दर्शन के प्रमुख प्रवर्तक हैं। विलियम जेम्स शिलर तथा जॉन डीवी ।

भारतीय दृष्टिकोण (Indian Point of View)

प्रयोजनवादी विचारधारा कुछ भारतीय दार्शनिकों एवं मनीषियों के विचारों में भी पाई जाती है। गीता में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है और पाश्चात्य प्रयोजनवाद भी कर्म को प्रधान मानता है। इस प्रकार दोनो वैचारिक साम्य है किन्तु 'माँ फलेषु कदाचन' कहकर गीता में निष्काम कर्म की चर्चा है जबकि प्रयोजनवाद सौद्देश्य अथवा सकाम कर्म पर बल देता है।
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स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, श्रीमती एनी बेसेन्ट, महर्षि अरविन्द घोष तथा पण्डित मदनमोहन मालवीय देश की सामाजिक आवश्यकताओं से पूर्णरूपेण परिचित थे। इन सबके कुछ विचार प्रयोजनवादियों के कुछ विचारों से मिलते-जुलते हैं। ये भारतीय विचारक व्यावहारिक अनुभव को सामाजिक सुधार के निमित्त प्रधानता देते थे और जीवन के व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान देना आवश्यक मानते थे।

आदर्शवादी होते हुए भी महात्मा गाँधी ने जीवन के व्यावहारिक पक्ष की अवहेलना नहीं की। इनका पक्का विश्वास था कि सत्य की अभिव्यक्ति सतत् प्रयोग पर आधारित है। वे मानते थे कि जो कुछ भी प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जाता है। वह सत्य है । बापू की प्रयोजनवादी विचारधारा उनकी बुनियादी शिक्षा में बहुत कुछ प्रतिबिम्बित होती है। प्रयोगवादियों के समान वे भी स्वक्रिया द्वारा सीखने के पक्षपाती हैं। एम० एस० पटेल का विचार है कि उनका दर्शन अपनी विधियों एवं कार्ययोजना में प्रयोजनवादी है ।

प्रयोजनवाद में जो कुछ उत्तम है उसका थोड़ा संकेत रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा दर्शन में मिलता है। उनका कथन है कि श्रमिक एवं किसानों के साथ रहकर और उनके कार्यक्रमों में भाग लेकर समाजहित के कार्य करने चाहिए। उनके विश्वभारती में दस्तकारी की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती है। उनका स्वक्रिया सिद्धान्त प्रयोजनवादी विचारधारा से काफी मेल खाता है।
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अस्तित्ववाद (Existentialism)


अस्तित्ववाद मानव अस्तित्व का दर्शन है। इसका प्रादुर्भाव प्रथम विश्वयुद्ध के उपरान्त जर्मनी में हुआ । शीघ्र ही यह फ्रांस और इटली में भी फैल गया। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् इसके बढ़ते हुए प्रभाव ने साधारण जनमानस को अपनी और आकर्षित कर लिया। डेन्मार्क का प्रसिद्ध दार्शनिक पसोरेन किर्कगार्ड इस वाद का प्रणेता माना जाता है।

विश्वयुद्धों की विभीषिका में जलकर मनुष्य स्वाहा हो गया। उसकी कीमत अचानक घटकर शून्य के बराबर हो गई। भौतिकवादी धारा ने उसे अस्तित्वहीन बना दिया। जिस विज्ञान और प्रौद्योगिकी का आविष्कार उसने अपनी सुख-समृद्धि के लिए किया था वह स्वयं उसी का शिकार बना। इस प्रकार जब मशीन का मनुष्य के ऊपर अनाधिकार आधिपत्य जमना प्रारम्भ हो गया तो इसके विरोध में अस्तित्ववाद का जन्म हुआ ।

अस्तित्ववाद 'रहने या न रहने (टु बी और नाट टु बी) का दर्शन है। आदमी नैराश्य की स्थिति से घबड़ा कर नहीं रहने का निश्चय करता है किन्तु अस्तित्ववादी दर्शन उसे हिम्मत बँधाता है और कहता है 'तुमको रहना है। कार्ल जेस्पर्सन के शब्दों में 'विचार और क्रिया का स्रोत अस्तित्व है, डेकार्ट के प्रसिद्ध उद्धरण मैं सोचता हूँ अतएव मेरा अस्तित्व है' को अस्तित्ववाद स्वीकार नहीं करता। जब तक मनुष्य का अस्तित्व नहीं तब तक वह विचार कैसे कर सकता है ? अस्तित्व होने पर ही विचार और क्रिया सम्भव है। ज्यों ही मनुष्य ने निश्चित कर लिया कि उसे रहना है त्यों ही वह उसके निमित्त सोचना और कार्य करना शुरू कर देता है ।
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बड़ी विचित्र बात है कि मनुष्य द्वारा आविष्कृत मशीन अपने आविष्कारक पर ही अधिकार जमाना चाहती है। इससे मनुष्य क्षुब्ध है और अपने खोए हुए गौरव और वैभव को पुनः पाने का आकांक्षी है। अस्तित्ववाद ही वह नवोदित दर्शन है जो मनुष्य को उसके दुःखों से छुटकारा दिला सकता है।

अस्तित्ववाद के अनुसार मानव अस्तित्व सत्य है। अतएव मनुष्य को अपने अस्तित्व की गरिमा बनाए रखने और उसे एक उत्तरदायी व्यक्ति के समान कार्य करने की स्वयं चिन्ता रहती है। अस्तित्ववादी पलायनवादी नहीं होता और न तो उसे मृत्यु का भय होता है। जहाँ तक धर्म और ईश्वर का प्रश्न है अस्तित्ववादियों में से कुछ आस्तिक हैं और कुछ नास्तिक ।

इस दार्शनिक प्रवृत्ति की मान्यता है कि व्यक्ति का मन ही सारे ज्ञान का कारण है और वही ज्ञान सार्थक है जो उपयोगी है। ज्ञान की प्राप्ति तर्क द्वारा नहीं अपितु आत्मनिष्ठ अनुभव द्वारा होती है। मनुष्य स्वयं अपने में निहित सत्य का अनुभव करता है वह क्या है ? कुछ विचारकों का मत है कि इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले वह जानना चाहता है कि 'उसका अस्तित्व क्या है ? वह इसके उत्तर के लिए निरंतर प्रयत्नशील और सतत् संघर्षरत रहता है। मनुष्य चेतन प्राणी होने के साथ ही आत्मचेतना से मुक्त है। वह विचार ही नहीं विचार के विषय में भी विचार कर सकता है। वह अनुभूति ही नहीं, अनुभूति की भी अनुभूति कर सकता है। कहने का आशय है कि मनुष्य उच्च से उच्चतर धरातल तक उठने और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के निमित्त सदा प्रयास करता रहता है।
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गाँधीवाद और सर्वोदयवाद (Gandhism and Sarvodaya)


राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का सम्पूर्ण जीवन सत्य के लिए एक प्रयोग था । सत्य से बापू का तात्पर्य केवल वाणी के सत्य से नहीं अपितु विचार और आचार के सत्य से भी है। उनका सत्य शिव है, सुन्दर है, ईश्वर है। उसकी खोज सरल नहीं। उसके पीछे तपस्या करनी पड़ती है, कष्ट झेलने पडते हैं, मर मिटना होता है। अहिंसा उनका दूसरा महामंत्र था। अधर्म का पशुबल से नहीं, आत्मबल से विरोध करना अहिंसा है। किसी को न मारना अहिंसा है, सदभाव अहिंसा है। सत्य भाषण अहिंसा है, किसी का बुरा न चाहना अहिंसा है। अनावश्यक वस्तु पर अधिकार न रखना अहिंसा है, विरोधी की शक्ति की शान्त भाव से परीक्षा करना अहिंसा है। गाँधीजी के शब्दों में- "अहिंसा बिना सत्य की खोज असम्भव है। अहिंसा और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसे उल्टा कहूँ किसे सीधा, फिर भी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिए" ।

सत्य और अहिंसा इन्हीं दो की दृढ़ आधारशिला पर खड़ा है महात्मा गाँधी का समग्र दर्शन। कुछ लोग उनके इसी दर्शन के लिए गाँधीवाद शब्द का प्रयोग करते हैं । किन्तु गाँधीवाद के सम्बन्ध में गाँधी जी के क्या विचार हैं इसका स्पष्टीकरण उन्होंने स्वयं 29 मार्च, 1936 के 'हरिजन बन्धु' के एक लेख में किया है-"गाँधीवाद जैसी वस्तु है ही नहीं सत्य और अहिंसा अनादिकाल से चले आ रहे हैं। मुझसे जितना हो सका मैंने तो केवल उतनी मात्रा में इन दोनों के प्रयोग किए हैं.....आप लोग इसे गाँधीवाद न कहें, इसमें वाद जैसा कुछ भी नहीं है।" प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक किशोरलाल मशरूवाला 5 जून 1937 के 'हरिजन सेवक' में लिखते हैं

गाँधी जी की इच्छा के विरुद्ध भी यदि गाँधीवाद शब्द को जीवित रखना है तो कम से कम हमें यह समझ लेना चाहिए कि यह एक कार्यपद्धति का सूचक है, न कि किसी व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित किसी समाज व्यवस्था की प्रणाली का सूचक ।"

गाँधीवाद मूलतः एक कार्यपद्धति है जिसमें अनेक सार की बातें निहित हैं। प्रेम की जीत का शस्त्र की अपेक्षा अधिक प्रभाव होता है। मनुष्य में अन्तर्निहित देवत्व को जगाकर समाज से शोषण और प्रपीड़न मिटाया जा सकता है, असंख्य हृदयों को बदला जा सकता है। परस्पर सहयोग और सदिच्छा तथा इच्छाओं पर नियन्त्रण द्वारा अनेक सामाजिक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। पवित्र साधन (अहिंसा) द्वारा पवित्र साध्य (सत्य) की प्राप्ति हो सकती है।

महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों पर ही सर्वोदयी दर्शन का जन्म हुआ है। वे चाहते थे कि आत्मोदय के साथ-साथ सबका उदय हो । यदि प्रत्येक व्यक्ति का उदय होता है तो समाज का उदय स्वतः होता है। गाँधी जी के इस सर्वोदयी विचार को सर्वोदयवाद की संज्ञा दी गई है। इस वाद के प्रणेता महात्मा गाँधी के परम शिष्य आचार्य विनोबा भावे इसके प्रमुख प्रचारक माने जाते हैं।
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मानवतावाद (Humanism)


Know then thyself, presume not God to scan, 
The proper study of mankind is man.
-Alexander Pope

अर्थात् तुम स्वयं अपने को जानो। यह मत मान लो कि भगवान तुम्हारी जगह जाँच करेगा। मनुष्य जाति के लिए 'मनुष्य' ही उपयुक्त अध्ययन विषय है। एलेक्जेन्डर पोप की इन पंक्तियों में 'मानवतावाद' का सार छिपा है।

आज विज्ञान का युग है। विज्ञान के कारण मनुष्य का जीवन सुख-समृद्धि से भरा-पूरा तो है पर वह सुखी नहीं है। क्या एक से बढकर एक मशीनें मनुष्य को जिन मानव गुणों की उसे आवश्यकता है, उनसे सम्पन्न कर सकती हैं ? उत्तर होगा नहीं। यह काम तो मानवताबाद ही कर सकता है। मानवतावादी दर्शन का यह दावा है कि वह मनुष्य के जीवन को सुखमय बना सकता है।

आज मनुष्य को मनुष्य न मानकर शेष सब कुछ माना जा रहा है। आदमियों की संख्या बढ़ रही है' इस बात की ओर ध्यान जाता है परन्तु मनुष्य मनुष्य हैं इस पर ध्यान नहीं जाता। आज का मनुष्य परेशान है। उसकी दयनीय दशा से दार्शनिक भी द्रवित हो उठता है। दीन-दुखियों की सेवा करने की मानवतावादी भावना में मानवतावादी दृष्टिकोण छिपा रहता है। मानवतावाद 'वसुधैव कुटुम्बकम् और सर्वभूतहिते रताः' में विश्वास करता है। मानवतावादी दर्शन में मनुष्य को प्रधानता दी जाती है और प्रत्येक सामाजिक प्रक्रिया की व्याख्या मानवहित को ध्यान में रखकर की जाती है।

मानवतावाद संसार को सत्य निरन्तर विकासशील और परिवर्तनशील मानता है। इस दर्शन के अनुसार, मनुष्य निरीह प्राणी नहीं है। यह दर्शन संस्कृति का पुनर्जागरण करना चाहता है । शान्ति, प्रगति, जनतन्त्र- ये तीन मानवतावाद की आधारशिला हैं। कविवर पन्त के शब्दों में-
सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव तुम सबसे सुन्दरतम ।
होते हैं। सही प्रत्ययों (संकल्पनाओं) के निर्माण के लिए भाषा विश्लेषण इस तरह से शब्दों तथा वाक्यों के प्रयोग पर बल देता है और यही उसको स्वीकार्य है।

भाषा विश्लेषण में तत्वज्ञान (मेटाफिजिक्स) का कोई महत्व अथवा स्थान नहीं । किसी प्रत्यय को स्पष्ट करते समय यह ध्यान रखना पड़ता है कि बात किस प्रसंग में कही जा रही है। गैसोलीन फिलिंग स्टेशन की चर्चा के समय गैस' शब्द का अर्थ 'गैसोलीन' होगा, पर इसी 'गैस' का अर्थ रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में एक ऐसे पदार्थ से होगा जो न तो ठोस है और न तरल ।'
शिक्षा-दर्शन उत्पत्ति

'डॉ० ए० पी० जे० अब्दुल कलाम एकवचन नामवाचक पद है। भारत के राष्ट्रपति बहुवचन नामवाचक पद है। इससे एक समुच्चय अथवा वर्ग का बोध होता है। इसमें नौ राष्ट्रपति सम्मिलित हैं। 'भारत के राष्ट्रपति' कहने से इनमें से सभी अथवा किसी एक की ओर संकेत होता है। राष्ट्रपति भवन में रहते हैं गुणवाचक पद है जो नामवाचक पद के बाद जुड़कर अर्थपूर्ण बन जाता है- भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रपति भवन में रहते हैं।"

भाषा विश्लेषण ऐसे कथनों की अपेक्षा करता है जो तार्किक रूप से सत्यापनीय होता है। दर्शन के क्षेत्र में भाषा विश्लेषण का प्रवेश हो चुका है और इसने दर्शन को एक नई दिशा प्रदान की है। विचारों की अस्पष्टता को दूर करना और भाषी की शुद्धता पर बल देना- भाषा विश्लेषण का महत्वपूर्ण कृत्य है।
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दर्शन का स्वरूप

(NATURE OF PHILOSOPHY)

दर्शन के उद्गम और विकास के अध्ययन के पश्चात् आपको दर्शन के स्वरूप की बहुत कुछ जानकारी हो गई होगी। इस जानकारी के आधार पर कहा जा सकता है-

Divine Philosophy, by whose pure light,
We First distinguish, then pursue the right.

    पवित्र ज्ञान दर्शन दिव्य अनुशासन है जिसकी पवित्र ज्ञान-किरणों द्वारा हम पहले नीर-क्षीर को अलग करते हैं और तब सत्य का अनुसरण करते हैं। दर्शन परा विद्या या सबसे ऊँची विद्या है। कौटिल्य के शब्दों में-

प्रदीपः सर्वविधानामुपायः सर्वकर्मणाम् ।
आश्रयः सर्वधर्माणां शाश्वदन्वीक्षकी मता ।।

दर्शनशास्त्र (अन्वीक्षकी विद्या) सभी विद्याओं का दीपक है (क्योंकि दर्शन से ही अन्य विद्याओं को प्रकाश मिलता है)। दर्शन सभी कर्मों को सिद्ध करने का साधन है I दर्शन सभी धर्मों का अधिष्ठान है।

छान्दोग्य उपनिषद् में एक कहानी है- श्वेतकेतु आरुणि उद्दालक का पुत्र था । सभी विद्याओं का अध्ययन करने के पश्चात् श्वेतकेतु अपने पिता के पास आया । पिता ने पुत्र से कहा “श्वेतकेतु ! क्या तूने अपने आचार्य से उस उपदेश के विषय में पूछा जिसको सुन लेने से जो सुना हुआ नहीं है वह भी सुन लिया जाता है, जो विचारा हुआ नहीं है वह भी विचार लिया जाता है, और जो ज्ञात नहीं है वह भी ज्ञात हो जाता है ?" प्रश्न सुनकर श्वेतकेतु आश्चर्य में पड़ गया। वह सोचने लगा-क्या सचमुच कोई ऐसी विद्या है जिसको जान लेने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है ? उसने बड़ी उत्सुकता से पिता से कहा, "भगवन् आप ही मुझको वह विद्या बताएँ ।" तब पिता ने पुत्र को 'तत्वमसि' (तत् त्वम् असि ) अर्थात् 'वह तू है' का उपदेश दिया । उपदेश सुन लेने के पश्चात् श्वेतकेतु उस विद्या को जान गया जिससे अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष हो जाता है, अविचारित विचारित हो जाता है और अज्ञात ज्ञात हो जाता है।

इस कहानी से दर्शन का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। दर्शन वह विद्या है जिसको जान लेने से अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष हो जाता है, अविचारित विचारित हो जाता है और अज्ञात ज्ञात हो जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय के दूसरे श्लोक

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्षयाम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यंमवशिष्यते । ।

में श्रीकृष्ण पार्थ से बोले - "मैं तेरे लिए इस रहस्यसहित तत्वज्ञान को सम्पूर्णता से कहूँगा जिसे जानकर इस संसार में फिर और कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता है।" स्पष्ट है कि यहाँ 'तत्वज्ञान' का अर्थ 'दर्शन' या 'परा विद्या' है। श्रीकृष्ण की इस उक्ति से भी दर्शन के स्वरूप पर सम्यक प्रकाश पड़ता है।
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शिक्षा का स्वरूप

(NATURE OF EDUCATION)

शिक्षा के स्वरूप को अच्छी तरह समझने के लिए 'शिक्षा' शब्द के विभिन्न प्रयोगों पर ध्यान देना होगा। 'शिक्षा' का अर्थ प्रायः 'ज्ञान' मान लिया जाता है परन्तु यह पूर्णरूप से उचित नहीं। इसी प्रकार, शिक्षा' और 'प्रशिक्षण' में अन्तर है। दोनों शब्दों में तालमेल कर देना ठीक नहीं। 'विषय' के रूप में 'शिक्षा' को समझना तो ठीक है। 'शिक्षा' एक विषय है और उसमें शिक्षा-विषयक समस्त पाठ्यवस्तु का वर्णन रहता है। यह वर्णन सविस्तार और गहराई में होने तथा मस्तिष्क को अनुशासित कर सकने की स्थिति में 'अनुशासन' का रूप ले लेता है। विषय के रूप में शिक्षाशास्त्र की संज्ञा देते हैं जिसके अन्तर्गत विषय का गहराई में अध्ययन, उसके अनेक पक्षों का विविध दिशाओं से विश्लेषण, उसके नियमों-उपनियमों का निर्धारण, शैक्षिक धारणाओं का आलोचनात्मक और तुलनात्मक विवेचन, शैक्षिक परम्पराओं और प्रयोगों की उपयुक्तता और आधारभूत धारणाओं का परीक्षण आदि सभी बातें 'शिक्षाशास्त्र' में निहित होती हैं।

शिक्षा के उद्देश्य अथवा लक्ष्य के विषय में दार्शनिकों में मतभेद हो सकता है. परन्तु 'शिक्षा एक प्रक्रिया है' इसमें पूर्ण मतैक्य है-

शिक्षा विचार प्रक्रिया है ।

शिक्षा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया है

शिक्षा संशिलष्ट विकास की निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है ।

शिक्षा द्विमुखी प्रक्रिया है ।

शिक्षा त्रिमुखी प्रक्रिया है ।

शिक्षा आयोजित, सुधारात्मक प्रक्रिया है ।
उपर्युक्त में, शिक्षा-प्रक्रिया की अनेक विशेषताओं की ओर संकेत है किन्तु जो सर्वोपयुक्त है वह सुबोध अदावालं के शब्दों में इस प्रकार है-

शिक्षा वह सविचार प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के विचार तथा व्यवहार में परिवर्तन और परिवर्धन होता है-उसके अपने और समाज के उन्नयन के लिए।
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शिक्षा-दर्शन का स्वरूप

(NATURE OF EDUCATIONAL PHILOSOPHY)

शिक्षा दर्शन क्या है ? दर्शन के विभिन्न विभागों में शिक्षा दर्शन एक विभाग है और शिक्षा की विभिन्न शाखाओं में शिक्षा दर्शन एक शाखा है। इस कारण कहा जा सकता है कि शिक्षा दर्शन वह विज्ञान है जिसमें शिक्षा और दर्शन दोनों का योगदान है। शिक्षा दर्शन में बताया जाता है कि दर्शन के सिद्धान्तों का शिक्षा जगत् में अनुप्रयोग किस प्रकार होता है तथा होना चाहिए। जॉन ड्यूवी और उनके समर्थक शिक्षा को अधिक महत्व देते हैं और मानते हैं कि दर्शन तो शिक्षा का सामान्य सिद्धान्त ही है। कुछ विचारक शिक्षा दर्शन को एक नया क्षेत्र मानते हैं और बताते हैं कि इस क्षेत्र में शिक्षा की विभिन्न समस्याओं पर दार्शनिक दृष्टिकोण से विचार किया जाता है। अनेक विद्वानों का मत है कि दर्शन को शिक्षा दर्शन तक सीमित करना उपयुक्त नहीं। दर्शनशास्त्र में शिक्षा के अलावा भी अनेक प्रश्नों का अध्ययन किया जाता है। ये प्रश्न प्रायः ऐसे नहीं होते जिनका कोई निश्चित उत्तर दिया जा सक फिर भी ये प्रश्न अध्ययन- योग्य होते हैं।

दर्शन की संकल्पना

(CONCEPT OF PHILOSOPHY)

'दर्शन' शब्द 'दृश' धातु से बना है। 'दृश' का अर्थ है 'देखना'। यदि हम 'दर्शन' शब्द की व्याख्या करें तो करेंगे 'दृश्यते अनेन इति दर्शनः अर्थात् जिसके द्वारा वास्तविकता अथवा सत्य को देखा जाये, वही दर्शन है। आंग्ल भाषा का 'फिलॉसफी शब्द फिलोस' तथा 'सोफिया' से मिलकर बना है। 'फिलोस' का अर्थ 'अनुराग', और 'सोफिया' का अर्थ (ज्ञान) है। अंतएव 'ज्ञानानुराग' ही दर्शन है।

भिन्न-भिन्न दार्शनिकों ने दर्शन (अथवा दर्शनशास्त्र) की परिभाषा अपने-अपने ढंग से दी है। उनमें से अत्यन्त संक्षिप्त पर अत्यधिक सार्थक एवं तार्किक परिभाषा डॉ० राधाकृष्णन की है जो इस प्रकार है-
Philosophy is a logical inquiry into the nature of reality. 
अर्थात् "दर्शनशास्त्र यथार्थता के स्वरूप का तार्किक विवेचन है।"
प्रायः हम 'दर्शन' और 'फिलॉसफी' को पर्याय मानते हैं किन्तु दोनों में अन्तर है। 'दर्शन' में ज्ञान केवल अनुराग ही नहीं है अपितु इसमें मानसिक प्रक्रिया के तीनों पक्ष - ज्ञान, कर्म, भाव-निहित हैं। सत्य का साक्षात् दर्शन करना 'दर्शन' है। 'फिलॉसफर' बिना लक्ष्य निर्धारित किये ही विचार करना प्रारम्भ कर देता है किन्तु चिन्तन के समय 'दार्शनिक' के सामने लक्ष्य की स्पष्टता रहती है 1

शिक्षा की संकल्पना

(CONCEPT OF EDUCATION)

शिक्षा और जीवन का सम्बन्ध शाश्वत है। जब से सृष्टि है तभी से शिक्षा का अस्तित्व है और शिक्षा तथा जीवन की अजस्र धारा आदिकाल से बहती चली आ रही है। शिक्षा के कारण ही मनुष्य 'सृष्टि का ताज' कहा जाता है और उसी के बल पर मानव समाज अपना अस्तित्व बनाये हुए है। यह सब स्वीकार करने पर भी - शिक्षा क्या है ? उसका वास्तविक अर्थ क्या है ? जैसे प्रश्नों के उत्तर देना आसान नहीं है

वास्तव में शिक्षा की सही-सही परिभाषा करना एक समस्या है कुछ विचारक तो यह भी सोचते हैं कि जीवन की तरह शिक्षा को एक परिभाषा की सीमा से बाँधना उचित नहीं, फिर भी अनेक शिक्षाशास्त्रियों और मनीषियों ने शिक्षा को परिभाषित करने का प्रयास किया है।

बालक की क्षमता के अनुसार शिक्षा उसके शरीर और उसकी आत्मा में निहित सभी प्रकार की पूर्णता का विकास करती है।
 - प्लेटो

शिक्षा उपभोग्य, विचारशील, समरसतः संतुलित उपयोगी एवं प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया है।
- रूसो


शिक्षा बालक की उन समस्त क्षमताओं का विकास है जिनके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखने और अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने योग्य बनाता है। “शिक्षा अनुभवों की पुनर्रचना करने वाली प्रक्रिया है।"
- ड्यूवी

शिक्षा बालक की समस्त अन्तर्निहित शक्तियों व योग्यताओं का स्वाभाविक, प्रगतिशील व समविकास करने वाली प्रक्रिया है।
-पेस्तोलॉजी  

सा विद्या या विमुक्तये ।
- शंकराचार्य 
मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ही शिक्षा है। 
-विवेकानन्द
शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण प्रकटीकरण से है ।
-गाँधी

उपर्युक्त परिभाषाओं में कुछ विशेषताएँ स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। इसीलिए शिक्षा - की संकल्पना अपने अन्तर्गत न केवल उद्देश्य और अन्तिम परिणाम की परिकल्पना करती है बल्कि उसके प्रक्रिया भाग को भी समाहित करती है।

'शिक्षा' शब्द 'शिक्ष्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'सीखना सिखाना' । इसलिए शिक्षा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया है। अंग्रेजी का 'एडूकेशन' शब्द लैटिन के 'एडूकेटियो' का पर्याय है जो दो लैटिन धातुओं 'ए' और 'ड्यूको' से मिलकर बना है। 'ए' का अर्थ है 'अन्दर से' और 'ड्यूको' का अर्थ है 'बाहर निकालना।' इस प्रकार अंग्रेजी के एडूकेशन शब्द का व्युत्पत्तिक अर्थ हुआ-अन्दर से बाहर निकालना अर्थात् अन्तर्निहित शक्तियों को विकसित करना। इसी आधार पर एडिसन ने कहा था-

शिक्षा के द्वारा मनुष्य के अन्तर में निहित उन शक्तियों एवं गुणों का दिग्दर्शन होता है जिनको शिक्षा की सहायता के बिना अन्दर से बाहर निकालना असम्भव है।

एक अन्य मत के अनुसार 'एडूकेशन' शब्द 'एडूकेर' से निकला है जिसका भी अर्थ है 'बाहर निकालना' अथवा 'संवर्धित करना।' इसीलिए रॉस के शब्दों में,

“शिक्षा सहज विकास का अपरिवर्तन है । "
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शिक्षा-दर्शन की संकल्पना

(CONCEPT OF EDUCATIONAL PHILOSOPHY)

यह बताया जा चुका है कि दर्शन का वह भाग जिसमें शिक्षा की समस्याओं पर विचार किया जाता है और उन समस्याओं का निदान और समाधान किया जाता है, शिक्षा दर्शन कहलाता है। दर्शन मनुष्य-जीवन की व्याख्या करता है, जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करता है और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तात्कालिक उद्देश्य निश्चित करता है। शिक्षा दर्शन में उन उद्देश्यों की व्याख्या होती है तथा उनकी प्राप्ति के लिए शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप का भी अध्ययन किया जाता है। अखिल ब्रह्माण्ड और इस ब्रह्माण्ड में मानव जीवन की स्थिति, उसकी सार्थकता और भूमिका के प्रति हमारा एक दृष्टिकोण नहीं अपितु अनेक दृष्टिकोण हैं और इन्हीं भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों के कारण दर्शन के अनेक सम्प्रदायों का विकास हुआ है। इन विभिन्न सम्प्रदायों ने शिक्षा की प्रक्रिया को अपने-अपने ढंग से देखा है और उसकी व्याख्या अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। इस दृष्टि से शिक्षा दर्शन की संकल्पना के विषय में कहा जा सकता है कि-

शिक्षा-दर्शन शिक्षा के प्रति और उसकी तरह-तरह की समस्याओं के प्रति दर्शन के भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत करता है।
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दर्शन और शिक्षा अन्योन्याश्रित

(INTERDEPENDENCE OF PHILOSOPHY AND EDUCATION)

दर्शन, शिक्षा को प्रभावित करता है और शिक्षा दर्शन को प्रभावित करती है। दर्शन और शिक्षा अन्योन्याश्रित हैं। इसी तथ्य को फिश्टे ने बड़े सुन्दर शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है-

The art of education will never attain complete clearness in itself without philosophy. There is interaction between the two, and either without the oth is incomplete and unserviceable.
-Fichte
अर्थात
दर्शन की सहायता के बिना शिक्षा की कला पूर्ण स्पष्टता कभी भी नहीं प्राप्त कर सकती। दोनों में अन्तर्क्रिया होती है और प्रत्येक दूसरे के बिना अपूर्ण और निरर्थक है।

दर्शन और शिक्षा एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं-दर्शन विचारात्मक पक्ष है और शिक्षा क्रियात्मक पक्ष सर जॉन एडम्स अपने विद्यार्थियों से कहा करते थे कि “शिक्षा, दर्शन का गतिशील पहलू है" । शिक्षा, दर्शन की सहायता करती है और उसके सपनों को साकार करती है। किसी अन्य विचारक का कहना है कि “शिक्षा के सारे प्रश्न अन्ततोगत्वा दर्शन के प्रश्न हैं। इस विचारक के अनुसार, शिक्षा के प्रश्नों के उत्तर दर्शन देता है।

यदि हम इतिहास के पन्नों को पलटें तो पायेंगे कि संसार में अनेक विचारक ऐसे हुए हैं जो अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में दार्शनिक रहे हैं किन्तु बाद में उन्होंने शिक्षा को बहुत बड़ी देन दी है। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, लॉक, रूसो, बर्टेण्ड रसेल, टैगोर, गाँधी, अरविन्द, राधाकृष्णन् आदि इसी श्रेणी में आते हैं। दूसरी ओर, उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री, दर्शन की समस्याओं पर विचार करते पाये गये हैं

पेस्तोलॉजी, हरबार्ट, फ्रोबेल, कमेनियस, नन, किलपैट्रिक, ड्यूवी आदि शिक्षा की समस्याओं पर विचार करते-करते दर्शन की व्याख्या में जुट गये । याज्ञवल्क्य, गौतम, वशिष्ठ, सन्दीपन, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि दार्शनिक और शिक्षक दोनों रूपों में विख्यात रहे हैं।

इस प्रकार दर्शन और शिक्षा की अन्योन्याश्रितता निर्विवाद है ।
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Kkr Kishan Regar

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