महात्मा गाँधी : जीवन-परिचय, जीवन-दर्शन, शिक्षा-दर्शन, बेसिक शिक्षा, शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन

महात्मा गाँधी


[MAHATMA GANDHI (1869-1948)]

जीवन-परिचय (LIFE-SKETCH)

भारतीय संत परम्परा में सत्य व अहिंसा, धार्मिक जीवन के मेरुदण्ड रहे हैं और धर्म के दस लक्षणों में इनकी गणना होती आ रही है। आदर्श व व्यक्तिगत आचरण के रूप में इनका चरम उत्कर्ष अनेक महापुरुषों के जीवन में देखा जाता है लेकिन जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में इनके प्रयोग का प्रयास महात्मा गाँधी के जीवन में ही दिखाई देता है, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को ही सत्य का प्रयोग माना और अपने समस्त कार्य-कलापों को इसके द्वारा अनुशासित एवं नियन्त्रित किया। उन्होंने सत्य व अहिंसा के द्वारा न केवल राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने का चमत्कारपूर्ण कार्य किया वरन् समाज, धर्म, राजनीति, शिक्षा इत्यादि समस्त क्षेत्रों में राष्ट्र को नवीन आलोक से भाषित किया। उन्होंने राष्ट्र को नई चेतना और नया जीवन प्रदान करने के कारण ही वह 'राष्ट्रपिता' के नाम से पुकारे जाते हैं
महात्मा गाँधी : जीवन-परिचय, जीवन-दर्शन, शिक्षा-दर्शन, बेसिक शिक्षा, शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन

गाँधीजी (मोहनदास करमचन्द गाँधी ) का जन्म, काठियावाड़ के पोरबंदर नामक स्थान में, 2 अक्टूबर, सन् 1869 ई० को हुआ था। इनका परिवार समृद्ध था और इनके पिता करमचन्द गाँधी पोरबन्दर राज्य के दीवान थे। गाँधीजी की माता बड़ी नम्र तथा दयालु थीं। 13 वर्ष की आयु में गाँधीजी का विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ। उन्होंने सन् 1887 ई० में एक साधारण छात्र की भाँति मैट्रिक्यूलेशन परीक्षा पास की। उस वर्ष उन्हें कानून पढ़ने के लिये 4 सितम्बर को जलयान द्वारा इंग्लैण्ड भेज दिया गया जहाँ वे विद्यार्थी के रूप में 3 वर्ष नौ मास तक रहे। 10 जून सन् 1891 ई० को गाँधीजी ने वकालात की परीक्षा पास की और बैरिस्टर बनकर भारत लौट आये। भारत लौट कर उन्होंने वकालात करने का प्रयास किया परन्तु इस व्यवसाय में उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। अप्रैल सन् 1893 ई० को गाँधीजी कानूनी सलाहकार के रूप में दक्षिणी अफ्रीका गये जहाँ उन्होंने भारतीयों पर किये जाने वाले अन्याय के विरुद्ध 20 वर्ष तक आवाज उठाते हुए अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक लड़ाई का श्री गणेश किया। अफ्रीका से लौट कर सन् 1915 ई० में वह विदेशी शासन का विरोध करते हुए भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया। सन् 1917 ई० में उन्होंने 'हरिजन उद्धार' ग्रामोद्योग तथा अन्य सामाजिक सुधारों एवं रचनात्मक कार्यों को करने के लिये साबरमती आश्रम की स्थापना की। उन्होंने सन् 1921 ई० में असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। इन्होंने भारत को विदेशी शासन से मुक्त कराने के लिये अपने असहयोग आन्दोलन को और भी तेज कर दिया। सन् 1942 ई० में स्वतन्त्रता आन्दोलन ने फिर जोर पकड़ा जिसके परिणामस्वरूप गाँधीजी को जेल भेज दिया गया। लेकिन स्वतन्त्रता की चिंगारी और भी अधिक भड़कती ही रही। हारकर सन् 1945 ई० में अंग्रेजों ने फिर समझौते की बातचीत आरम्भ की और विवश होकर 15 अगस्त सन् 1947 ई० को भारत छोड़ दिया। भारत स्वतन्त्र तो हो गया परन्तु देश का विभाजन हो गया और चारों ओर साम्प्रदायिक झगड़े आरम्भ हो गये। गाँधीजी ने इन झगड़ों को शान्त करने का प्रयास किया। इस नीति से खिन्न होकर 30 जनवरी सन् 1948 ई० को सायंकाल बिड़ला मन्दिर (दिल्ली) के पीछे के मैदान में प्रार्थना के लिये जाते समय नाथूराम गोडसे नामक एक युवक ने गोली चलाकर, मानवता एवं अहिंसा के पुजारी गाँधीजी का पार्थिव जीवन समाप्त कर दिया।

गाँधीजी का जीवन-दर्शन

(PHILOSOPHY OF LIFE)

गाँधीजी के विचारों को एक व्यवस्थित रूप देने में हमें कठिनाई का अनुभव होता है, क्योंकि उन्होंने दार्शनिक सिद्धान्तों पर एक तत्वदर्शी की तरह कभी प्रकाश नहीं डाला परन्तु अपने दैनिक जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के सम्बन्ध में उनकी ओर इंगित किया है। अतः गाँधीजी का जीवन ही उनका दर्शन है। गाँधीजी आधुनिक राष्ट्र के जनक कहे जाते हैं। यह सत्य व अहिंसा के पुजारी थे। वे सत्य को सार्वभौमिक एवं परम सत्ता स्वीकार करते थे। उनके अनुसार सत्य ही ईश्वर है।

गाँधीजी की विचारधारा आदर्शवादी दार्शनिक विचारधारा से मिलती-जुलती है। उनका सम्पूर्ण जीवन सत्य के लिए एक प्रयोग था। उनका सत्य- शिव तथा सुन्दर भी था । सत्य में शिवं एवं सुन्दरं निहित है। गाँधीजी कहा करते थे कि प्रायः मनुष्य 'सत्य' से यह अर्थ निकालते हैं कि हमको सत्य बोलना चाहिये। अतः सत्य केवल वाणी का ही विषय नहीं है, वरन् इसको व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिये। अर्थात् विचार, भाषण एवं कार्य में भी सत्यता होनी चाहिये। दूसरे शब्दों में सत्य का प्रयोग जीवन के प्रत्येक पहलू में होना चाहिये। यहाँ तक कि राजनीति को भी सत्य पर आधारित होना चाहिये। उनका तो यह कहना था कि साधारणतः सत्य का अर्थ सच बोलना मात्र ही समझा जाता है, पर मैंने व्यापक अर्थ में सत्य का प्रयोग किया है। विचार में, वाणी में और आचार में सत्य का होना ही वास्तविक सत्य है। यदि वह सत्य एक-दूसरे को अलग लगे तो भी घबराने की बात नहीं है। वह तो एक ही पेड़ के विभिन्न पत्तों जैसी बात होगी। इन सबका मूल एक है। लेकिन इनका यह मानना है कि सत्य की खोज आसान नहीं है। इसके पीछे मर मिटना होता है। इसके साथ तपस्या होती है, आत्मकष्ट सहन की भावना होती है, जिसमें स्वार्थ की गंध तक नहीं होती। ऐसी ही निःस्वार्थ खोज में लगा हुआ इन्सान आज तक भटका नहीं, अगर भटकता भी है तो वह ठोकर खाकर सही रास्ते पर आ जाता है।

गाँधीजी का दूसरा महामन्त्र अहिंसा के रूप में था। 'अहिंसा परमो धर्मः' कहकर प्राचीन ऋषियों ने भी अहिंसा के महत्त्व को स्वीकार किया था। इसका केवल नकारात्मक पक्ष न होकर सकारात्मक पक्ष महत्त्वपूर्ण है। सकारात्मक पक्ष के रूप में अहिंसा प्राणीमात्र से प्रेम करने की प्रेरणा देती है। समस्त प्राणियों के प्रति दुर्भावना का अभाव तो होना ही चाहिये। हिंसा न करना अर्थात् किसी को शारीरिक एव मानसिक चोट न पहुँचाना अहिंसा का अभावात्मक अर्थ है। इसलिये उनका कहना है कि अहिंसा बिना सत्य की खोज असम्भव है. यह दोनों ऐसे ओत-प्रोत हैं जैसे सिक्के के दोनों रूप उसमें किसे उल्टा कहें किसे सीधा फिर भी अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानना चाहिये। अतः गाँधीजी अहिंसा को साधन एवं सत्य को साध य के रूप में देखते थे। उनका कहना था कि उपयुक्त साध्य की प्राप्ति के लिये साधन की उपयुक्तता भी आवश्यक है। अपवित्र साधन से पवित्र साध्य प्राप्त नहीं हो सकता। अतः उनका कहना था कि साधन और साध्य समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। सत्य की प्राप्ति अहिंसा के द्वारा होती है। अतः व्यावहारिक रूप में दोनों एक ही हैं

सत्य व अहिंसा का अनुसरण कायरता का रास्ता नहीं है। कायर पुरुष की अहिंसा वास्तविक अहिंसा है ही नहीं। अतः अहिंसा एवं सत्य के लिये निर्भीकता जरूरी है। क्योंकि जब तक व्यक्ति निडर नहीं होगा तब तक वह सत्य एवं अहिंसा का अनुयायी नहीं हो सकता। भय के विभिन्न प्रकार हैं जैसे- बीमारी का भय, शारीरिक नुकसान का भय मृत्यु का भय, अधिकार का पद छिन जाने का भय इत्यादि । सभी प्रकार के भयों से मुक्त होना चाहिये ।

इसी निर्भीकता का गुण विकसित होने पर मनुष्य सत्याग्रह करेगा, अर्थात् वह सत्य पर अटल रहना सीखेगा। सत्य पर अटल रहने एवं साध्य को प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं। मार-काट भी एक मार्ग है तथा अहिंसा स्वयं एक मार्ग है। बिना खून-खराबी किये अपनी बात पर अटल रहकर तथा जनमत को प्रभावित करके मनुष्य साध्य प्राप्त कर सकता है। अतः गाँधीजी के लिये सत्याग्रह वह प्रविधि थी जिसके माध्यम से वे सामाजिक एवं राजनीतिक बुराइयों को दूर करने के लिये आन्दोलन करते थे। 
एक लेख में गाँधीजी लिखते हैं- 
"मैं अत्याचारी तलवार की धार को पूरी तरह कुंठित करना चाहता हूँ, इसके विरोध में एक अधिक तेज शस्त्र को रखकर नहीं, किन्तु उसकी इस आशा की कि मैं उसका शारीरिक प्रतिरोध करूँगा, निराशा में बदलकर|
(यंग इण्डिया', 8 अक्टूबर, 1925 ) 
गाँधीजी वर्गहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे जिससे ऊँच-नीच, गरीब-अमीर सभी के साथ समानता का व्यवहार हो। वे अस्पृश्यता को सबसे बड़ा अभिशाप समझते थे और हरिजनों द्वारा उनका सबसे प्रमुख कार्यक्रम था। इसके साथ ही साथ देश में साम्प्रदायिक तनाव कम करने के लिये भी उन्होंने अथक प्रयास किया। गाँधीजी भारत में रामराज्य का स्वप्न देखते थे जिसमें राज्य का संचालन नैतिक नियमों पर आधारित होना चाहिये। गाँधीजी का कथन था कि "आज देश को सच्चा कलाकार चाहिये, वैज्ञानिक चाहिये, परिश्रमी त्यागी कृषक और श्रमिक चाहिये, कुशल कारीगर तथा साहित्यकार चाहिये। क्या हमारा आज का विद्यार्थी इन सबकी पूर्ति की क्षमता रखता है ? इन अभावों की पूर्ति के लिये सिनेना, नाचरंग तथा विलास की क्रियाओं को छोड़कर देश का पुजारी चाहिये। 
गाँधीजी ने मानव जीवन में सादगी की हमेशा प्रशंसा की है। वे कहते हैं कि परिग्रह मत करो। पक्षी की भाँति रहो। कुटिया में रहना सीखो। गाँधीजी स्वयं सादगी में रहते थे। उनकी दृष्टि से यदि केवल हमारे फैशन का भूत ही हमारे समाज से उतर जाय तो सभी में नैतिकता आ जाये तमाम राष्ट्रीय व्यय भार बच जाये।

गाँधीजी का शिक्षा-दर्शन

(GANDHIJI'S PHILOSOPHY OF EDUCATION )

महात्मा गाँधी ने शिक्षा पर कोई ग्रन्थ नहीं लिखा जिससे उनके शिक्षा सम्बन्धी विचारों की व्यवस्थित रूप से जानकारी नहीं मिलती है। उन्होंने समय-समय पर अपने विचार सभाओं में तथा 'हरिजन' के अनेक लेखों में व्यक्त किये। गाँधीजी का शिक्षा दर्शन उनके जीवन-दर्शन के अनुरूप ही है। उनका जीवन-दर्शन कर्मयोग का पर्याय है। वह भारतीय परम्परा के बिल्कुल अनुकूल जीवन के परम लक्ष्य-मुक्ति में विश्वास रखते हैं तथा कर्मयोग की साधना के द्वारा उसकी प्राप्ति पर बल देते हैं। गाँधीजी के लिये सत्य ही ईश्वर है और अहिंसा कर्मयोग की साधना संसार के अधिकांश लोग इन्हें एक महान राजनीतिज्ञ ही मानते हैं लेकिन उन्होंने राजनीतिक क्रान्ति के साथ-साथ सामाजिक क्रान्ति को भी जन्म दिया जिसमें शिक्षा का प्रमुख स्थान था। उनकी बुनियादी शिक्षा (Basic Education) योजना उनके शिक्षा दर्शन का मूर्त रूप थी। इस शिक्षा का लक्ष्य भारतीय जनता के हृदय तथा मन को पवित्र करके एक शोषण विहीन समाज की स्थापना करना था। इस दृष्टि से गाँधीजी एक महान् शिक्षाशास्त्री भी थे ।

(1) शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)

शिक्षा शब्द को परिभाषित करते हुए गाँधीजी ने स्वयं लिखा है- "शिक्षा से मेरा तात्पर्य है- बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में पाये जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का चहुँमुखी विकास ।"
("By education I mean an all-round drawing out of the best in child and man-body, mind and spirit").

उपरोक्त परिभाषा को स्पष्ट करते हुए इन्होंने लिखा कि "साक्षरता" न तो शिक्षा का अन्त है और न ही प्रारम्भ। वरन् यह तो शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण साधन है जिसके द्वारा स्त्री-पुरुष शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं किन्तु साक्षरता पूर्ण शिक्षा नहीं है।"

अतः गाँधीजी शिक्षा के विषयों और साधनों से अधिक जोर बालक के व्यक्तित्त्व पर देते हैं। पेस्तालॉजी की भाँति गाँधीजी भी बालक के सर्वतोमुखी, संगतिपूर्ण विकास में विश्वास करते हैं। उनके विचार में मनुष्य केवल शरीर, बुद्धि, हृदय व आत्मा नहीं है बल्कि इन सबके सामंजस्यपूर्ण विकास में ही शिक्षा का सार और उसकी पूर्णता निहित है। शिक्षा की व्याख्या करते हुए गाँधीजी ने कहा है कि- "शिक्षा को बालक और बालिका के सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व को विकसित करना चाहिये। कोई भी शिक्षा ठोस नहीं कही जा सकती है जो बालक व बालिका को एक उपयोगी नागरिक नहीं बनाती है।" मनुष्य की पूर्णता उसके व्यक्तित्त्व के पूर्ण विकास में है, अतः शिक्षा का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा का संगतिपूर्ण विकास करे । इस प्रकार हम देखते हैं कि गाँधीजी शिक्षा का अर्थ व्यापक रूप में ग्रहण करते हैं जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण जीव समाविष्ट है। इसीलिये इन्होंने शिक्षा के उद्देश्यों की विस्तृत रूप से विवेचना की है ।

(2) शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education )

गाँधीजी ने शिक्षा के उद्देश्यों को निम्नांकित दो भागों में विभाजित किया है- (अ) शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य (Immediate Aims of Education); और (ब) शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य (Ultimate Aim of Education) |

(अ) शिक्षा का तात्कालिक उद्देश्य (Immediate Aims of Education ) - 

गाँधीजी की शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) चरित्र निर्माण (Character Building) - 
समाज की पूर्णता लोगों के चरित्र पर आश्रित है, अतः गाँधीजी ने चरित्र-निर्माण को शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य मानते हैं। उनका मानना है कि "सच्ची शिक्षा साहित्यिक प्रशिक्षण में नहीं है, वरन चरित्र-निर्माण है। गाँधीजी ने इस उद्देश्य पर इतना अधिक बल दिया है कि यदि उन्हें चरित्र-निर्माण और साहित्यिक प्रशिक्षण दोनों में से एक को चुनना हो तो वह साहित्यिक प्रशिक्षण का त्याग भी कर सकते हैं। "सन् 1932 में उनसे यह पूछा गया कि यदि भारत स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है तो आपके विचार में शिक्षा का लक्ष्य क्या होगा ? उन्होंने निःसंकोच होकर तत्काल उत्तर दिया, 'चरित्र-निर्माण। उनका यह मानना है कि व्यक्तिगत चरित्र की पवित्रता, एक ठोस शिक्षा के निर्माण के लिये अनिवार्य है। अतः विद्यार्थियों को अपने भीतर खोजना है और अपने व्यक्तिगत चरित्र का ध्यान रखना है और बिना आरम्भिक व्यक्तिगत पवित्रता के चरित्र निरर्थक हैं इसलिये उनका अटल विश्वास है कि " समस्त ज्ञान का उद्देश्य होना चाहिये चरित्र-निर्माण। हमारा सारा अध्ययन यदि हृदय को शुद्ध नहीं बनाते हैं तो हमारे लिये व्यर्थ हैं।"

(2) जीविकोपार्जन का उद्देश्य (Vocational Aim ) —
 गाँधीजी वर्तमान शिक्षा-पद्धति के इस दोष को भली-भाँति जानते थे कि इसमें बालकों का शिक्षा काल समाप्त होने पर भी उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान आदि जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से मुक्त होने का कोई आश्वासन नहीं है। आज की भाँति बेकारी की समस्या तब भी विद्यमान थी। यह एक स्वीकृत तथ्य है कि जब तक मुनष्य अपनी आरम्भिक आवश्यकताओं से मुक्त नहीं होता तब तक भौतिक, नैतिक और बौद्धिक उन्नति नहीं कर सकता है, आध्यात्मिक उन्नति की बात तो दूर रही। गाँधीजी शिक्षा की ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिसके आधार पर आजकल की निरुद्देश्य शिक्षा प्राप्त करने वाले बालकों से भिन्न प्रत्येक बालक व बालिका विद्यालय छोड़ने के पश्चात्, किसी व्यवसाय में लगकर आत्मनिर्भर हो जायें। इसलिये गाँधीजी ने सन् 1937 ई० में 'हरिजन' नामक पत्रिका में लिखा कि- "सच्ची शिक्षा को बालक और बालिकाओं के लिये बेकारी के विरुद्ध एक प्रकार का बीमा होना चाहिये।" ("The education ought to be for children a kind of insurance against unemployment"). गाँधीजी 'वर्णधर्म' में विश्वास करते थे। उनके विचार में शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जो बालकों को जीवन के लिये तैयार कर सके, उनके वातावरण और वंशगत पेशों के अनुकूल हो। प्रत्येक बालक में अपना वंशगत व्यवसाय करने की स्वाभाविक क्षमता होती हैं और उसे अपने पैतृक व्यवसाय को तब तक नहीं छोड़ना चाहिये जब तक कि वह अपने भीतर किसी अन्य व्यवसाय के लिये पर्याप्त क्षमता और आकांक्षा का अनुभव न करे।
 
(3) सांस्कृतिक उद्देश्य (Cultural Aim ) 
भारतीय दार्शनिक परम्परा के अनुसार गाँधीजी संस्कृति को बौद्धिक कार्य की उपज नहीं मानते हैं। उनके विचार में संस्कृति आत्मा का गुण है जो मानव व्यवहार के सभी क्षेत्रों को व्याप्त कर लेता है। कस्तूरबा बालिकाश्रम, नई दिल्ली की बालिकाओं को जो गाँधीजी ने उपदेश दिया था उससे उनके संस्कृति के सम्बन्ध में विचार का अनुमान किया जा सकता है, "मैं शिक्षा के सांस्कृतिक पक्ष को साहित्यिक पक्ष से अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति आधार है, मूल वस्तु है जिसे छात्राओं को यहीं से प्राप्त करना चाहिये। तुम्हारे व्यवहार और आचरण के छोटे से छोटे कार्यों में इसका प्रदर्शन होना चाहिये। तुम कैसे बैठती हो, कैसे कपडे पहनती हो ताकि कोई व्यक्ति एक निगाह से देखकर कह सके कि तुम इस संस्था की उपज हो तथा तुम्हारे व्यवहार में एवं परस्पर व्यवहार में तुम्हारी आन्तरिक संस्कृति प्रकट होनी चाहिए। निम्न प्रकृति के सभी प्रतिबन्धों से मुक्त व्यक्ति आत्मा की वास्तविक संस्कृति को प्रदर्शित कर सकता है।

(4) संगतिपूर्ण विकास (Perfect Development ) — 
गाँधीजी संगतिपूर्ण विकास में विश्वास करते हैं और इसीलिये वह बालक के शरीर, मन और आत्मा का पूर्ण विकास चाहते थे। क्योंकि इन तीनों के योग से मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्त्व का निर्माण होता है। इन तीनों के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध विद्यमान है, अतः इनका विकास साथ-साथ होना चाहिये। अतः गाँधीजी का मानना है कि- 'जब तक शरीर और मन के विकास के साथ-साथ आत्मा का जागरण नहीं होगा, तब तक शरीर और मन का जागरण अधूरा ही रहेगा। अतः उच्चतम शिक्षा की उपलब्धि के लिये कोई भी शिक्षाविद् इन तीनों में से एक की भी उपेक्षा नहीं कर सकता है। यह तीनों अलग-अलग, स्वतन्त्र रूप में, एक-दूसरे से अलग विकसित नहीं किये जा सकते। अतः इनका विकास साथ-साथ होना चाहिये ।

(5) वैयक्तिक और सामाजिक विकास (Individual & Social Development )— 
गाँधीजी ने सामाजिक और वैयक्तिक इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय स्थापित किया 1 वह अनेकता में एकता की उपलब्धि करना चाहते हैं। गाँधीजी व्यक्तिगत मानव-आत्मा के महत्व को अत्यन्त सम्मान देते हैं। गाँधीजी के अनुसार मनुष्य जीवन का उच्चतम उद्देश्य आत्मबोध की प्राप्ति है जो कि बिना आत्म-त्याग के असम्भव है। अतः आत्म-निग्रह, समाज सेवा स्वतः ही शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य में आ जाते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि "मैं व्यक्ति स्वातंत्र्य को महत्त्व देता हूँ किन्तु आपको यह नहीं भूलना चाहिये कि मनुष्य सारभूत रूप में सामाजिक प्राणी है। वह अपनी वर्तमान स्थिति तक इसलिये उठ पाया कि उसने सामाजिक प्रगति की आवश्यकताओं के लिये अपनी वैयक्तिकता को अनुकूल बनाना सीखा है। अतः दोनों का विकास इस सीमा तक अन्योन्याश्रित हैं कि एक के बिना दूसरे के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता ।

(6) राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता का विकास (Development of National- ism and Internationalism ) —
 गाँधीजी शिक्षा के राष्ट्रीय उद्देश्य में विश्वास करते हैं। लेकिन उनके राष्ट्रवाद का ध्येय यह नहीं है कि भारत शेष मानवता से अपने को पृथक रखे । उनके राष्ट्रवाद का उद्देश्य है कि भारत एक दिन विश्व मानवता में अपने अस्तित्त्व को तय कर दे। जिस प्रकार एक डूबा हुआ व्यक्ति दूसरों की सहायता नहीं । कर सकता है उसी प्रकार एक डूबा हुआ राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सहायता नहीं कर सकता। दूसरों की रक्षा करने के पूर्व भारत को स्वयं अपनी रक्षा करनी होगी। इसलिये उनका कहना था कि भारत स्वतन्त्र हो, अपने पैरों पर खड़ा हो। अतः इसके लिये स्वदेश की सेवा करनी चाहिये। स्वदेश की सेवा से अभिप्राय संकुचित नहीं वरन् विशाल है। स्वदेश की शुद्ध सेवा करने में विदेशी की भी शुद्ध सेवा होती है।

(ब) शिक्षा का सर्वोच्च उद्देश्य (Ultimate Aim of Education ) — 

भारत की आदर्शवादी दार्शनिक परम्परा के अनुकूल गाँधीजी का विश्वास है कि जीवन और शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य आत्मा की प्राप्ति है। क्योंकि आत्मा का विकास करना चरित्र-निर्माण करना है और यह व्यक्ति को ईश्वरीय ज्ञान और आत्मबोध (Self Realization) की ओर अग्रसर होने में सहायता पहुँचाता है। गाँधीजी उपनिषदों की भाँति, स्वामी दयानन्द व विवेकानन्द की ही भाँति समाज में रहते हुए आत्मबोध प्राप्त करने में विश्वास करते थे। इसलिये वह वास्तविक शिक्षा उसे कहते हैं जो मुक्ति प्रदान करे- सा विद्या या विमुक्तये।' इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान वही है जो मोक्ष की ओर ले जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार महानता में लघुता सम्मिलित होती है। अतः शिक्षा का उद्देश्य केवल आत्मिक ज्ञान नहीं है और न मुक्ति का अभिप्राय है कि मृत्यु के बाद की मुक्ति । ज्ञान में वे सभी प्रकार के प्रशिक्षण शामिल हैं जो मानव सेवा के लिये लाभप्रद हैं और मुक्ति का अर्थ है सभी प्रकार की दासता से मुक्ति, यहाँ तक कि इसी जीवन में। अतः आत्मा की स्वतन्त्रता सर्वश्रेष्ठ स्वतन्त्रता है। संक्षेप्त में गाँधीजी शिक्षा के द्वारा आत्म विकास के लिये आध्यात्मिक स्वतन्त्रता दिलाना चाहते थे ।

(3) पाठ्यक्रम (Curriculum)

गाँधीजी प्रचलित विद्याभ्यास और उसे करने-कराने की रीति को दोषपूर्ण पाते हैं। इनका मानना था कि सच्चा विद्याभ्यास वह है जिसके द्वारा हम आत्मा को, अपने आपको, ईश्वर को, सत्य को पहचानें। इस पहचान के लिये किसी को साहित्य- ज्ञान की आवश्यकता हो सकती है, किसी को भौतिक-शास्त्र की, किसी को कला की, परन्तु इसका मात्र उद्देश्य आत्म-दर्शन होना चाहिये। अतः गाँधीजी ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से चार मुख्य प्रकार की मानवी प्रकृति-साहित्यिक, वैज्ञानिक, कलात्मक और रचनात्मक तथा इनसे सम्बन्धित विषयों की ओर संकेत किया है। वह किसी भी ज्ञान एवं रुचि की अपेक्षा नहीं करते और प्रत्येक ज्ञान एवं कार्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन स्वीकार करते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि गाँधीजी ने अन्य विषयों के साथ-साथ विभिन्न उद्योगों को भी ईश्वर प्राप्ति को निमित्त मानकर शिक्षा में सांस्कृतिक और जीविकोपार्जन के उद्देश्यों में सुन्दर समन्वय स्थापित किया है।

(4) शिक्षण विधि (Methods of Teaching)

गाँधीजी ने जिस नवीन शिक्षा योजना का विचार जनता के समक्ष रखा उसमें शिक्षण-विधि नितान्त नवीन है। प्रचलित शिक्षण विधि में अध्यापक एवं छात्र में कोई सम्पर्क नहीं रहता। अध्यापक व्याख्यान देकर चला जाता। छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में बैठे रहते। इस प्रकार की दोषपूर्ण शिक्षण-पद्धति के विपरीत गाँधीजी ऐसी शिक्षण प्रक्रिया को लाना चाहते थे जिसमें छात्र व शिक्षक के बीच की खाई कम हो और छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में न होकर सक्रिय अनुसंधानकर्त्ता, निरीक्षणकर्त्ता एवं प्रयोगकर्ता के रूप में हों।
    शिक्षण विधि में गाँधीजी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन चाहते थे और वह यह कि शिक्षण का माध्यम मातृभाषा हो । शिक्षण पुस्तकीय न होकर क्राफ्ट केन्द्रित होना चाहिये। इसको वे केवल मनोरंजन का साधन न मानकर चरित्र-निर्माण का भी साधन मानते थे। इस क्राफ्ट केन्द्रित शिक्षा के द्वारा वे बालकों को हाथों की शिक्षा देना चाहते थे। क्राफ्ट-केन्द्रित शिक्षा विधि में क्रिया व अनुभव पर बल देते हैं। इस प्रकार की शिक्षण-पद्धति की आवश्यकता प्रविधि है- समन्वय । जिससे अभिप्राय यह है कि विभिन्न विषयों की शिक्षा अलग-अलग विषय के रूप में न होकर समन्वित ज्ञान के रूप में होगी। क्राफ्ट शिक्षण का केन्द्र बिन्दु होगा और सभी विषय क्राफ्ट से समन्वित किये जायेंगे। गाँधीजी ने शिक्षा की जो नवीन योजना भारत के समक्ष रखी उसमें श्रम को आध्यात्मिक एवं नैतिक महत्त्व प्रदान किया गया है। अतः शिक्षण विधि के सन्दर्भ में 'जाकिर हुसैन समिति के अनुसार - "गाँधीजी ने अपनी शिक्षण विधि में सहयोगी क्रिया, नियोजन, यथार्थता, पहलकदमी और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व पर बल दिया है।" ("Stress should be laid on the principles of Co-operative activity, planning, accuracy, initiative and individual responsibility in learning"). 

(5) बालक और आरम्भिक शिक्षा (Child and Primary Education)

गाँधीजी ने बालक की आरम्भिक शिक्षा को अधिक महत्त्व दिया है। यह शिक्षा बालक को परिवार के अन्तर्गत मिलती है। गाँधीजी इस भ्रम का खण्डन करते हैं कि पहले पाँच वर्षों में बच्चे को शिक्षा प्राप्ति की आवश्यकता नहीं होती। उनके अनुसार वास्तविकता यह है कि पहले पाँच वर्षों में बच्चे को जो मिलता है वह फिर कभी मिलता ही नहीं है। इसलिये उनका मानना है कि- "जिन संस्कारों का विकास बालक में पाँच वर्ष तक विकसित किये जाते हैं। उन सभी का विकास आगे चलकर सौ अध्यापक मिलकर भी नहीं कर पाते हैं। अतः बालक के भली-भाँति पालन-पोषण के लिये, उसके स्वास्थ्य एवं स्वस्थ मानसिक विकास के लिये माता-पिता को शिशुपालन आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। बालक को एक आदर्श बालक बनने के लिये स्वयं माता-पिता को अपने चरित्र एवं आदर्श का उचित विचार रखना चाहिये ।

गाँधीजी विद्यार्थी में शुद्ध मन के निर्माण के लिये सात्विक भोजन पर बल देते हैं। ब्रह्मचर्य के पालन के लिये इन्द्रिय पर नियन्त्रण प्राप्त करना आवश्यक है। सात्विक भोजन, व्रत उपवास आदि से मानसिक विकार शान्त हो जाते हैं । जैसा अन्न वैसा मन" इस कहावत में बहुत तथ्य है। मनुष्य अपने ऊपर नियन्त्रण प्राप्त करने की भावना से ही गाँधीजी ने 'सात्विक भोजन के साथ-साथ प्राकृतिक उपचार' के सिद्धान्त पर भी बल दिया है। क्योंकि उनका मानना है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही दोषों के कारण बीमार पड़ता है।

गाँधीजी आत्म-नियन्त्रण अथवा आत्म-शुद्धि के लिये प्रत्येक विद्यार्थी के लिये प्रार्थना करना आवश्यक समझते हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिये प्रतिदिन प्रार्थना करना अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने आश्रमवासियों को एक पत्र में लिखा था कि- "प्रार्थना छूट जाये तो मनुष्य को भारी दुःख होना चाहिये। खाना छूटे, पर प्रार्थना न छूटे। क्योंकि खाना छोड़ना कितनी ही बार लाभदायक होता है. प्रार्थना का छूट जाना कभी भी लाभदायक हो ही नहीं सकता।" प्रार्थना मन लगाकर की जानी चाहिये। गाँधीजी व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार की प्रार्थना में विश्वास करते हैं। इसलिये उनका कहना है कि बालक जब समझने लगे तो माता को चाहिये कि वह तुरन्त बालक को प्रार्थना करना सिखा दे ।

(6) बेसिक शिक्षा (Basic Education)

गाँधीजी शिक्षा की प्रचलित पद्धति से पूर्णतया असन्तुष्ट थे। उन्होंने यह अनुभव किया कि हमारी शिक्षा किताबी शिक्षा है, वह केवल बुद्धि का प्रशिक्षण करती है। भारत की वर्तमान शिक्षा योजना अवास्तविक और कृत्रिम है। इसके अनेक दोषों में से मुख्य दोष यह है कि इसका जीवन की परिस्थितियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं है, विभिन्न विषयों में कोई एकसूत्रता नहीं है और न इसमें वातावरण के साथ बुद्धिपूर्वक सक्रिय रूप से अनुकूलता प्राप्त करने की कोई व्यवस्था ही है। यह बालक को अपने देश की संस्कृति से अलग रखती है। इस शिक्षा प्रणाली से निकला हुआ शिक्षित युवक शरीर से तो भारतीय होता है, किन्तु हृदय और मस्तिष्क से विदेशी हो जाता था। अतः प्रचलित शिक्षा की आलोचना करते हुए गाँधीजी ने कहा कि- "भारत की वर्तमान शिक्षा योजना न केवल बेकार है, वरन् निश्चित रूप से हानिप्रद भी है। बहुत से बालक तो मानो अपने माता-पिता के लिये और अपने पारिवारिक पेशों के लिये खो ही जाते हैं। उनमें बुरी आदतें पड़ जाती हैं, वे शहरी ढंग अपनाने लगते हैं, कुछ विषयों का भी उन्हें अल्प ज्ञान हो जाता है, परन्तु इसे और जो कुछ भी कहा जाये. यह शिक्षा नहीं है। अतः गाँधीजी ने सोचा यदि देश को राजनैतिक स्वराज्य मिल भी जाये तो भी सामाजिक एवं आर्थिक स्वराज्य देश में तब तक नहीं आ सकता, जब तक शिक्षा को राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं बनाया जा सकता। अतः उन्होंने बेसिक शिक्षा का दर्शन देश के सम्मुख रखा । बेसिक शिक्षा गाँधीजी की देश के लिए एक प्रमुख भेंट थी ।

बेसिक शिक्षा का जन्म (Origin of Basic Education) –वर्तमान शिक्षा में व्याप्त दोषों को दूर करने के लिये गाँधीजी ने शिक्षा में क्रांतिकारी परिवर्तन किया । क्योंकि उनके विचार कोरी कल्पना पर आधारित न होकर वरन् उनके शिक्षा सम्बन्धी प्रयोगों पर आधारित है। गाँधीजी जब अफ्रीका में थे तो वहाँ पर टालस्टाय फार्म खोला था। यहाँ पर बच्चों को कुछ हाथ का काम करना पड़ता था और केवल तीन घण्टे पढ़ाई-लिखाई में दिये जाते थे। शिक्षा मातृभाषा द्वारा दी जाती थी । पुस्तकों का सहारा बहुत ही कम लिया जाता था। यह कार्यक्रम सन् 1911 ई० से 1914 ई० तक चलता रहा। भारत आने पर भी गाँधीजी ने अपने शिक्षण के प्रयोग को बन्द नहीं किया। सन् 1915 ई० में साबरमती आश्रम में उन्होंने प्रयोग को जारी रखा। अतः गाँधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचार उनके अनुभवों पर आधारित हैं।

अतः गाँधीजी ने अपने जीवन के भिन्न-भिन्न समय पर किये गये शिक्षा प्रयोगों के आधार पर प्राप्त विचारों को राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहार में लाने के लिये हरिजन' में उसे प्रकाशित किया। 'हरिजन' में योजना के प्रकाशित होने के उपरान्त, 22, 23 अक्टूबर सन् 1937 ई० को 'वर्धा' नामक स्थान में ही अपनी अध्यक्षता में होने वाली 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद में गाँधीजी ने अपने उद्घाटन भाषण में शिक्षा सम्बन्धी विचार व्यक्त किये। सम्मेलन में इस विषय पर पर्याप्त विचार-विमर्श किया और परिषद् ने सर्वसम्मति से निम्नांकित प्रस्ताव स्वीकार किये-

1. राष्ट्रीय स्तर पर सात वर्ष ( 7 से 14 वर्ष) तक बालकों को निःशुल्क, अनिवार्य शिक्षा दी जाय।

2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो ।

3. बच्चे की सम्पूर्ण शिक्षा का केन्द्र कोई शिल्प-हाथ का काम हो ।

4. शिक्षा की यह योजना धीरे-धीरे अध्यापक के पारिश्रमिक को पूरा करेगी परिषद् ने डॉ० जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में उपर्युक्त प्रस्तावों के अनुरूप एक विस्तृत पाठ्यक्रम प्रस्तुत करने के लिये एक समिति की नियुक्ति की। इस समिति ने 2 दिसम्बर, सन् 1937 ई० को तथा अप्रैल सन् 1938 ई० को क्रमशः अपने दो प्रतिवेदन प्रस्तुत किये। वर्धा योजना जिस मूल रूप में प्रस्तुत हुई वह डॉ० जाकिर हुसैन के प्रथम प्रतिवेदन में पूरी तरह प्राप्त होती है। इन्हीं आधारभूत नियमों पर भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा की बुनियाद खड़ी हुई। इस शिक्षा को गाँधीजी 'नई तालीम' या 'बुनियादी शिक्षा' कहते थे। इस शिक्षा को और भी कई नामों से पुकारा जाता है, जैसे - वर्धा योजना, आधारभूत शिक्षा, मौलिक शिक्षा, बेसिक एजूकेशन आदि ।

बेसिक शिक्षा का नामकरण-गाँधीजी ने यथा शिक्षा को बेसिक शिक्षा का नामकरण क्यों रखा ? बेसिक से अभिप्राय बुनियाद या नींव अर्थात् आधारभूत । चूँकि यह शिक्षा आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित है। अतः इसका नामकरण बेसिक शिक्षा रखा उसके निम्नांकित कारण हैं-

है ।

1. यह शिक्षा हमारी मूलभूत आवश्यकताओं ( Basic needs) की पूर्ति करती

2. यह शिक्षा हमारी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की प्रतीक है तथा उसकी रक्षा एवं उसी के विकास के लिये इसका निर्माण किया गया।

3. यह शिक्षा सभी के लिये सुलभ है और इसका पाठ्यक्रम ऐसा है जिसे सभी पूरा कर सकते हैं अर्थात् यह प्रत्येक भारतीय की सम्पत्ति है।

4. यह शिक्षा हमारे जीवन के आधार पर किसी शिल्प पर केन्द्रित होती है और हमें जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने योग्य बनाती है।

5. यह शिक्षा पद्धति किसी भी प्रकार के विकास के लिये आवश्यक 'श्रम' के महत्त्व को स्वीकार करती है और बच्चों में श्रम करने की आदत डालती है|

6. यह पद्धति भारतीय संस्कृति के मूल दर्शन- सत्य व अहिंसा पर आधारित है। 7. यह शिक्षण पद्धति सामाजिक उत्थान के लिये आवश्यक सामाजिक भावना का विकास करती है।

बेसिक शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त (Basic Principles of Basic Education)-


(1) शिक्षा अनिवार्य तथा निःशुल्क होनी चाहिये- 

मनुष्य अन्य प्राणियों से इसी दृष्टि से भिन्न होता है कि शिक्षा के द्वारा उसकी मूल प्रवृत्तियों में शोधन हो जाता है और वह पाशविक व्यवहार को छोड़कर ऐसा व्यवहार करने लगता है जिससे उसका और उसके साथियों का जीवन सरल एवं सुखमय हो जाता है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु से अधिक और कुछ नहीं होता। इस प्रकार मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिये शिक्षा एक अनिवार्य आवश्यकता है। जनतन्त्र की सफलता तो शिक्षा पर ही निर्भर करती है। इसलिये परिस्थितियों को देखते हुए बेसिक शिक्षा 7 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिये ही अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था पर बल देती है।

भारत एक निर्धन देश है। आर्थिक संकटों से घिरे गरीब, भरपेट भोजन नहीं. कर पाते, उनके पास शिक्षा पर व्यय करने के लिये पैसे कहाँ से आये ? यदि हम यह चाहते हैं कि सभी बच्चे अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त करें तो हमें उसे निःशुल्क करना होगा। सरकार अपनी सीमाओं को देखते हुए बेसिक शिक्षा 7 से 14 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा को ही निःशुल्क करने पर बल देती है। गाँधीजी के विचार से देश के निर्धन बच्चों को शिक्षा से वंचित रखना उनके अधिकारों का हनन है और मानवीय कसौटी पर हिंसा है।

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा- 

किसी भी बालक के जीवन में उसकी मातृभाषा का बहुत महत्त्व होता है। मातृभाषा को बच्चे जन्म के पश्चात् ही सीखने लगते हैं और सहज में ही उनका इस पर अधिकार हो जाता है। इसलिये प्रत्येक बालक जितनी सरलता से अपनी मातृभाषा में विचार करता है, उतनी सरलता से अन्य भाषा के माध्यम से नहीं कर पाता। इसलिये गाँधीजी ने बेसिक शिक्षा में मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया है। इतना ही नहीं अपितु मातृभाषा बच्चे के मानसिक एवं बौद्धिक विकास का साधन होती है। गाँधीजी ने मानसिक विकास के लिये मातृभाषा को उतना ही आवश्यक माना है जितना शारीरिक विकास के लिये माँ का दूध । इससे ही बच्चों में भावात्मक एकता विकसित होती है। मातृभाषा के अध्ययन के द्वारा बच्चे अपनी संस्कृति से परिचित होते हैं। गाँधीजी आत्मनिर्भरता में विश्वास रखते थे। अतः भाषा की दृष्टि से भी वे मातृभाषा पर निर्भर रहने का सुझाव देते थे। उन्होंने अंग्रेजी या अन्य किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाये रखने का कड़ा विरोध किया। गाँधीजी का मानना है कि विदेशी माध्यम बालकों के मस्तिष्क पर दबाव डालता है। वह रट्टू तोता व नकलची बनाती है। बालक मौलिक रूप से नहीं सोच पाता और स्वदेश में रहते हुए भी परदेशी हो जाता है। उनका कहना है कि "अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम रखने से बच्चों का स्वाभाविक मानसिक विकास नहीं हो पाता और उनकी मौलिकता नष्ट हो जाता है।"

(3) शिक्षा हस्तकला अथवा उद्योग पर केन्द्रित बेसिक शिक्षा का तीसरा प्रमुख सिद्धान्त है- 

सम्पूर्ण शिक्षा को किसी हस्तकला या उद्योग पर केन्द्रित करना । चूँकि अंग्रेजी शिक्षा ने हमें श्रम से पृथक कर दिया था इसलिये गाँधीजी ने हस्तकला अथवा उद्योग को अनिवार्य विषय बनाया और शिक्षा की समस्त क्रिया को उसी पर केन्द्रित कर दिया। शुरू से ही श्रम करने वाले बच्चे श्रम से घृणा करने के स्थान पर उसके महत्त्व को समझने लगते हैं और उसमें श्रद्धा रखने लगते हैं। इससे समाज में श्रमिकों व धनिक वर्ग के बीच की खाई पटती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी यह सिद्धान्त एक उपयुक्त सिद्धान्त है। क्रिया द्वारा सीखना स्थाई सीखना होता है। बालक की रचनात्मक प्रवृत्ति को क्रियाशील रखने एवं उसे विकसित करने के लिये शिक्षा को हस्तकला एवं उद्योग पर केन्द्रित करना उचित ही है।

शिक्षा को हस्तकार्य अथवा उद्योग पर आधारित करने का कारण यह भी था कि गाँधीजी लोगों को अहिंसावादी बनाना चाहते थे। उनका मानना था कि अहिंसा चित्त वृत्तियों के निरोध से आती है और यह निरोध त्याग पर आधारित होता है। त्याग के लिये कर्म या उद्योग का अभ्यास आवश्यक है। हस्तकार्य अथवा उद्योग पर आधारित शिक्षा में बच्चे सामूहिक रूप से कार्य करते हैं और इस प्रकार प्रेम. सहानुभूति और सहयोग का पाठ पढ़ते हैं। अतः कहा यह जाता है कि- "उद्योग या उत्पादक हस्तकार्य ही प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण के मिलने का स्वाभाविक स्थान है।"

(4) शिक्षा-स्वावलम्बी - 

गाँधीजी का यह मानना था कि भारतवर्ष जैसे निर्धन देश में प्रत्येक बच्चे को शिक्षा देना तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक कोई ऐसा रास्ता नहीं मिलता कि बालक अपनी पढ़ाई का खर्च स्वयं निकाल सकें। इसलिये गाँधीजी ने इस शिक्षा में अनिवार्य हस्तकला अथवा उद्योग कार्य की सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक उपयोगिता के साथ-साथ गौण रूप में उसकी आर्थिक उपयोगिता पर भी विचार किया और यह उम्मीद व्यक्त की कि बालकों द्वारा बनी हुई वस्तुओं के विक्रय से होने वाले लाभ से कम से कम अध्यापकों का वेतन तो निकलना ही चाहिये। इसलिये बेसिक शिक्षा का एक यह भी सिद्धान्त है कि बालक जिन हस्तकार्य या उद्योग के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करें, उसके द्वारा निर्मित वस्तुओं से आर्थिक लाभ करें और इस प्रकार स्वावलम्बी बनें। इससे यह भी आशय है कि यथा शिक्षा प्राप्त करने के बाद बच्चे देश के स्वावलम्बी नागरिक बनें और देश के आर्थिक उत्थान में योग दें। क्योंकि स्वावलम्बियों के देश से ही शोषण या हिंसा समाप्त हो सकती है। अतः गाँधीजी ने 'हरिजन' में लिखा कि- "एक राष्ट्र के रूप में हम तब तक आगे नहीं बढ़ सकते, जब तक हमारी शिक्षा धन पर आधारित नहीं होगी। अतः शिक्षा स्वावलम्बी हो।"

(5) ज्ञान एक इकाई के रूप में-

गाँधीजी अनेकत्त्व में एकत्त्व के सिद्धान्त को मानते हैं। इसलिये उनके विचार से समस्त ज्ञान का एक ही लक्ष्य है और वह सत्य अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति और उसके लिये उन्होंने अहिंसा को साधन माना था और इसलिये उनकी बेसिक शिक्षा योजना में अहिंसा की प्राप्ति का प्रयत्न है। अतः गाँधीजी ने पाठ्यक्रम के समस्त विषयों को समन्वित रूप से पढ़ाने पर बल दिया । शिक्षा को किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग पर केन्द्रित करने के पीछे एक विचार यह भी रहा है कि समस्त ज्ञान को किसी भी हस्तकौशल अथवा उद्योग से सम्बन्धित करके एक इकाई के रूप में दिया जा सके।

(6) नागरिकता का आदर्श-

गाँधीजी इस बात पर बल देते हैं कि अध्यापकगण जिन पर इस योजना को चलाने का भार है उन्हें नागरिकता के उस आदर्श को भली-भाँति समझ लेना चाहिये जिस पर यह योजना आधारित है। गाँधीजी यह चाहते है कि बालकों को पर्याप्त अवसर मिलने चाहिये कि वे अपने देश की समस्याओं पर विचार करे और अपने कर्त्तव्य एवं अधिकार को समझें। विद्यार्थियों को समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य को किसी लाभदायक सेवा द्वारा पूरा करना चाहिये। हस्तकला केन्द्रित शिक्षा बालक को कर्मठ एवं क्रियाशील बनायेगी, बालक को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखायेगी। गाँधीजी का कहना है कि भली-भाँति चुना हुआ हस्तकला विषय जहाँ ज्ञान को पूर्ण बनाता है वहाँ विद्यालय और जातीय जीवन में आवश्यक सम्बन्ध भी स्थापित करता है। यह योजना सहकारी क्रिया-कलापों का पक्ष लेती है और इस प्रकार सामाजिक प्रशिक्षण के अवसर प्रदान करती है जिससे सामाजिक कार्यकुशलता आती है।

बेसिक शिक्षा का पाठ्यक्रम-

बेसिक शिक्षा-प्रणाली का पाठ्यक्रम 7 वर्ष का है। यह 7 से 14 वर्ष तक के बालक एवं बालिकाओं के लिये निर्धारित किया गया है पाँचवीं कक्षा तक सह-शिक्षा का आयोजन किया गया है। इसके उपरान्त यद्यपि बालक और बालिकाओं के लिये पाठ्यक्रम समान है फिर भी बालिकाओं के लिये सामान्य विज्ञान के स्थान पर गृह विज्ञान की शिक्षा की व्यवस्था की गई है। बेसिक शिक्षा पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषयों को रखा गया है-

1. हस्तकला एवं उद्योग - (कताई-बुनाई, बागवानी, कृषि, काष्ठकला, चमड़े का काम, भौगोलिक तथा स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार कोई अन्य हस्तकला) ।

2. मातृ-भाषा।

3. व्यावहारिक गणित ।

4. सामाजिक विषय (इतिहास, भूगोल एवं नागरिक शास्त्र ) ।

5. सामान्य विज्ञान (वनस्पति-शास्त्र, प्राणि-शास्त्र, रसायन शास्त्र इत्यादि) । 6. संगीत ।

7. चित्रकला ।

8. स्वास्थ्य विज्ञान (सफाई, व्यायाम एवं खेलकूद आदि) ।

9. हिन्दुस्तानी (आजकल राष्ट्र-भाषा हिन्दी उनके लिये जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है)।

इस सूची में मानव के उपयोग में आने वाली सभी विषयों का समावेश है परन्तु अंग्रेजी भाषा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। इसके स्थान पर हिन्दुस्तानी भाषा पढ़ाई जायेगी। गाँधीजी के अनुसार यह पाठ्यक्रम अंग्रेजी को छोड़कर प्रचलित हाई-स्कूल के बराबर होगा। धार्मिक शिक्षा को वर्धा-योजना के पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया गया है। इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि "हमने वर्धा-शिक्षा योजना में से धर्म का बहिष्कार कर दिया है क्योंकि हमें भय है कि आज जिन धर्मों की शिक्षा दी जाती है अथवा जिनका पालन करना होता है वे मेल के स्थान पर झगड़े उत्पन्न कराते हैं। साथ ही मेरा विश्वास है कि बच्चों को ऐसी शिक्षा अवश्य देनी चाहिये जिसमें सभी प्रमुख धर्मों का सार निहित हो। यह धर्म-सार केवल शब्दों और पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जा सकता, वरन् इसे बालक तो केवल शिक्षक की दैनिक जीवनचर्या से ही सीख सकता है।' गाँधीजी बालकों को स्वावलम्बन के धर्म का पाठ सिखाना चाहते थे।"

अध्यापन की समय-सारणी

गाँधीजी ने बेसिक शिक्षा अध्यापन की समय-सारणी को 5.30 घण्टे में निर्धारित किया है जिनका विभाजन निम्नांकित है-



बेसिक शिक्षा की विशेषताएँ-

सैद्धान्तिक रूप में बुनियादी शिक्षा योजना भारत के लिये उपयुक्त शिक्षा योजना थी। अब तक के वर्णन से उसकी विशेषताओं का आभास हो जाता है।

यहाँ हम उन सब विशेषताओं को क्रमबद्ध रूप से दोहरा रहे हैं, जो कि निम्नलिखित हैं-

1. उद्योग द्वारा शिक्षण-

 बेसिक शिक्षा की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें सम्पूर्ण शिक्षा किसी उद्योग के द्वारा होती है। लेकिन इसमें ध्यान देने योग्य यह बात है कि बेसिक शिक्षा में उद्योग की शिक्षा न होकर उद्योग के द्वारा शिक्षा होती है। हाथ के काम के माध्यम से शिक्षा दी जाती है, हाथ का कार्य केवल माध्यम है। अतः बेसिक स्कूल को कारखाना नहीं समझना चाहिये। हाथ के कार्यों में तीन मुख्य हैं- कातना - बुनना, खेती का काम और मिट्टी का काम ।

2. बुनियादी शिक्षा का पाठ्यक्रम वास्तविक एवं उपयोगी 

यह शिक्षा भारतीय के वास्तविक जीवन से सम्बन्धित है। इस शिक्षा के पाठ्यक्रम में भारतीयों की सामाजिक दशा का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। यह पाठ्यक्रम केवल पुस्तकीय एवं सैद्धान्तिक न होकर उसमें बालक के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक समस्त विषयों एवं क्रियाओं का समावेश किया गया है। पाठ्यक्रम में किसी हस्तकला अथवा उद्योग को अनिवार्य कर यह शिक्षा बच्चों को श्रम के प्रति आकर्षित करती है। इस पाठ्यक्रम को बालकों की रुचि योग्यता एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाया गया है।

बुनियादी शिक्षा में मातृ-भाषा (Mother Tongue) को विशेष स्थान दिया गया है और उसी को शिक्षण का माध्यम स्वीकार किया गया है। जिन बालकों की मातृ-भाषा हिन्दी नहीं है उनके लिए मातृ-भाषा के साथ-साथ राष्ट्रीय भाषा हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य किया गया है। अतः ऐसा पाठ्यक्रम राष्ट्रीय एकता के विकास का प्रयत्न करता है।

3. बुनियादी शिक्षा की शिक्षण विधि मनोवैज्ञानिक

 इस शिक्षा की शिक्षण विधि में शिक्षण के समस्त मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का पालन किया गया है। इसकी शिक्षण विधि के तीन प्राकृतिक वातावरण, सामाजिक वातावरण और कोई हस्तकला या उद्योग है। अतः शिक्षण विधि में घर, समाज तथा विद्यालय वातावरण एवं जीवन में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया गया है। इस विधि में बच्चों की रुचि, रुझान व योग्यता तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर समस्त ज्ञान को किसी उद्योग अथवा हस्तकला के माध्यम से एक इकाई के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार इस शिक्षण विधि में 'समवाय शिक्षण' (Correlated Teaching) पर बल दिया गया है। इस विधि की समस्त क्रियाएँ वास्तविक होती हैं, शिक्षार्थी उनमें रुचि लेते हैं और स्वयं करके स्वानुभव द्वारा सीखते हैं। अतः करके सीखा हुआ ज्ञान स्थाई होता है।

4. श्रम का महत्त्व 

अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली में बालक श्रम से घृणा करना सीखता था जबकि बेसिक शिक्षा में प्रत्येक छात्र को हाथ से कार्य करना पड़ता है। इसलिये यह शिक्षा बालकों में श्रम से घृणा का भाव विकसित नहीं करती है। अतः बेसिक शिक्षा बालकों में श्रम से प्रेम करने की आदत डाल देती है ।

5. बेसिक शिक्षा में शिक्षक और शिक्षार्थी को उचित स्थान- 

पूर्व में हमने यह देखा है कि इस शिक्षा में बालकों की रुचि, रुझान, योग्यता एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है। इस दृष्टि से यह योजना बाल-केन्द्रित है। इसका पाठ्यक्रम भी रुढ (Rigid) न होकर लचीला होता है। इसलिये इसमें शिक्षक तथा विद्यार्थियों दोनों को पर्याप्त स्वतन्त्रता रहती है। यह बालक के वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार के विकास पर बल देती है तथा अध्यापकों से यह आशा करती है कि वह बच्चों के साथ प्रेम, सहानुभूति और सहयोगपूर्ण व्यवहार करें और उनके वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास में सहयोग प्रदान करें।

6. मनोवैज्ञानिक आधार-

बेसिक शिक्षा, मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित है। इसे बाल-केन्द्रित शिक्षा की संज्ञा दी जाती है। क्योंकि इसमें बालक को प्रधानता दी जाती है। बालक को इस शिक्षा में प्रतिदिन आत्म प्रकाशन का अवसर दिया जाता है। बालक उद्योगों में अच्छा काम करके दूसरों को प्रभावित कर सकता है। इसमें बालक की शक्तियों का विकास किसी कार्य के द्वारा किया जाता है

7. सामाजिक एवं सांस्कृतिक आधार-

सामाजिक आधार से तात्पर्य यह है कि शिक्षा से समाज की उन्नति हो। समाज में बेकारी व बेरोजगारी की समस्या को समाप्त करें। चूँकि बेसिक शिक्षा में बालक के सामाजिक गुणों के विकास पर भी बल दिया जाता है। शिक्षा मे पुस्तकों की अपेक्षा स्वतन्त्र ज्ञान पर बल दिया जाता है। समस्त विषयों की शिक्षा किसी हस्तकला के चारों ओर केन्द्रित रहती है। अतः हस्तकला के द्वारा बालकों में सहिष्णुता, आज्ञापालन, सहयोग आदि का भाव विकसित किया जाता है। भारतीय समाज के उन्नयन के लिये जिस प्रकार के सदस्यों की आवश्यकता है, यह शिक्षा उस प्रकार के सदस्य बनाने का दावा करती है।

बुनियादी शिक्षा भारतीय संस्कृति की पृष्ठभूमि में बालक को शिक्षा देती है। आज मानव समाज को अहिंसा की आवश्यकता है। देश को ऐसे नागरिकों की आवश्यकता है जो विज्ञान को सांस्कृतिक नियमों से समन्वित कर सकें। बेसिक शिक्षा ऐसी ही सांस्कृतिक विचारधारा की पोषक है। इसलिये इसके समर्थक इसे अहिंसक क्रांति का बिगुल समझते हैं।

बेसिक शिक्षा के दोष-सैद्धान्तिक रूप में बेसिक शिक्षा की चाहे कितनी भी सराहना की जाये परन्तु व्यावहारिक रूप में यह शिक्षा प्रणाली एकदम असफल रही है अतः इस शिक्षा में निम्नलिखित दोषों को ध्यान में रखते हुए इसकी आलोचना की जाती है-

1. यह शिक्षा योजना केवल 7 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिये उपलब्ध है। इसका उच्च शिक्षा से उपयुक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं किया गया है।

2. बेसिक शिक्षा के उद्देश्य उपयुक्त तो हैं लेकिन वे व्यापक नहीं हैं। व्यापक इस दृष्टि से नहीं है कि यह शिक्षा बच्चों को केवल कुटीर उद्योगों की सीमा में बाँधती है। आधुनिक विज्ञान के इस औद्योगिक युग में कुटीर धन्धों में शक्ति का प्रयोग उसके अपव्यय के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता है।

प्रारम्भ से बच्चों को किसी हस्तकला अथवा उद्योग की शिक्षा देना उचित प्रतीत नहीं लगता है। क्योंकि इसका दुष्परिणाम यह निकलता है कि बच्चे शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य व्यावहारिक कुशलता को ही समझने लगते हैं और विद्यालय कुटीर उद्योग केन्द्रों तक सीमित रह जाते हैं।

3. बेसिक शिक्षा योजना में पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों के लिये समय विभागचक्र का विभाजन भी उपयुक्त नहीं है जिसमें शिल्प अथवा उद्योग कार्य को 3 घण्टे 20 मिनट प्रतिदिन दिये गये हैं, यह अनुचित है। क्योंकि शेष विषयों के लिए इसकी तुलना में कम समय दिया गया है।

4. बेसिक शिक्षा की शिक्षण विधि भी पूर्णरूप से मनोवैज्ञानिक नहीं है। इसमें हस्तकला अथवा उद्योग को केन्द्र बनाकर बालक का स्थान गौण कर दिया गया है। अतः उस शिक्षण विधि को मनोवैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता जिसमें कि बच्चे को केन्द्र नहीं माना जाता। इस विधि में बालकों को बचपन में ही जबकि उनकी रुचियाँ विशिष्टता एवं निश्चितता को प्राप्त नहीं कर पातीं तब ही किसी हस्तकला अथवा उद्योग का चयन करना होता है। जरूरी नहीं कि बड़ा होने पर उनकी रुचियाँ यथा हस्तकला या उद्योग में ही हो। अतः इस दृष्टि से भी इसकी शिक्षण विधि अमनोवैज्ञानिक है ।

5. बेसिक शिक्षा में धार्मिक शिक्षा को कोई स्थान नहीं दिया गया है जबकि बिना धर्म के शिक्षा अधूरी, लंगड़ी व पंगु होगी। धर्म जैसे ठोस आधार के अभाव में कोई भी शिक्षा योजना सफल नहीं हो सकती है

6. समस्त ज्ञान को एक इकाई के रूप में प्रदान करना सैद्धान्तिक रूप से मनोवैज्ञानिक अवश्य है परन्तु ऐसा करना बहुत ही कठिन है। समस्त विषयों एवं क्रियाओं को किसी हस्तकला अथवा उद्योग के माध्यम से पढ़ाना तो असम्भव है।

7. आधारभूत हस्तकला अथवा उद्योग की सहायता से बच्चों का मानसिक विकास सम्भव नहीं है। अतः इस शिक्षा से बच्चों का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं होगा ।

गाँधीजी को शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन (Contribution)

गाँधीजी के उपरोक्त शैक्षिक विचारों से आभास होता है कि उनका शिक्षा के क्षेत्र में अद्वितीय देन है। वे पहले शिक्षाशास्त्री थे जिन्होंने भारतीय जीवन को ध्यान में रखते हुए वातावरण के अनुसार ऐसी शिक्षा योजना प्रस्तुत की जिसको कार्य रूप में परिणत करने में भारतीय समाज में एक नया जीवन आने की गुंजाइश है। उनके शैक्षिक विचारों का अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वह हृदय से आदर्शवादी थे। उन्होंने अपने आदर्शों को वास्तविक तथा लाभप्रद बनाने का प्रयास किया था। अतः उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद तथा प्रयोजनवाद की छाप स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उक्त तीनों विचारधाराओं में आपस में कोई विरोध न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। क्योंकि आदर्शवाद उनके दर्शन का आधार है एवं प्रकृतिवाद तथा प्रयोजनवाद उसके सहायक हैं। गाँधीजी के शिक्षा दर्शन को हम आदर्शवाद इसलिए कह सकते हैं क्योंकि यह जीवन के अन्तिम लक्ष्य सत्य को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है, प्रकृतिवादी इसलिये कि वह बालक को उसकी प्रकृति के अनुसार विकसित करने पर जोर देता है तथा प्रयोजनवादी इसलिये कि बालक को उसकी रुचि के अनुसार क्रिया करके सीखने पर बल देता है। डॉ० एम० एस० पटेल ने इसी सन्दर्भ में ठीक ही लिखा है- "दार्शनिक के रूप में गाँधीजी की महानता इस बात में है कि उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद और प्रयोजनवाद की मुख्य प्रवृत्तियाँ अलग और स्वतन्त्र नहीं हैं वरन् वे सब मिल-जुलकर एक हो गई हैं, जिससे ऐसे शिक्षा दर्शन का जन्म हुआ है जो आज की आवश्यकताओं के लिये उपयुक्त होगा तथा मानव आत्मा की सर्वोच्च आकांक्षाओं को सन्तुष्ट करेगा। गाँधीजी की बेसिक शिक्षा के सन्दर्भ में प्रो० हुमायूँ कबीर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा- 'राष्ट्र के लिए गाँधीजी की अनेक देनों में से नवीन शिक्षा के प्रयोग की देन सबसे महान् है। यह तरुण व्यक्तियों को प्रेम, सहयोग, सत्य के आधार पर एक समुदाय के रूप में रहने की शिक्षा देकर नये समाज के लिये नागरिकों को तैयार करने का प्रयत्न करती है।"
Kkr Kishan Regar

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