वर्ण व्यवस्था | जाति व्यवस्था | दलित समुदाय | दलित चेतना | जनजातीय समुदाय | जाति व जनजाति | जनजातीय विकास | पिछड़े समुदाय का विकास

वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था | जाति व्यवस्था | दलित समुदाय | दलित चेतना | जनजातीय समुदाय | जाति व जनजाति | जनजातीय विकास | पिछड़े समुदाय का विकास

"वर्ण व्यवस्था" एक प्राचीन भारतीय समाज की जाति व्यवस्था को सूचित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला शब्द है। इसे "चातुर्वर्ण्य" भी कहा जाता है, जिसे वेदों और पुराणों में उल्लिखित किया गया है। यह व्यवस्था भारतीय समाज को चार मुख्य वर्गों में विभाजित करती है:

  • 1. ब्राह्मण: इस वर्ग में ज्ञान, शिक्षा, और यज्ञों का प्रबंधन करने वाले व्यक्तियाँ शामिल होती थीं।
  • 2. क्षत्रिय: इस वर्ग में राजा, सैन्य, और शासन के कार्य करने वाले व्यक्तियाँ शामिल होती थीं।
  • 3. वैश्य: इस वर्ग में व्यापार, कृषि, और व्यवसाय के कार्यकर्ता शामिल होते थे।
  • 4. शूद्र: इस वर्ग में श्रमिक, और सेवानिवृत्ति के कार्य करने वाले व्यक्तियाँ थीं।

इस वर्ण व्यवस्था के अनुसार, हर व्यक्ति को उनकी जन्म के आधार पर एक विशिष्ट वर्ण में जन्मने के कारण उन्हें विशेष कार्यों का पालन करना था। यह व्यवस्था पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में मान्यता प्राप्त है, लेकिन आधुन्विक समय में इस वर्ण व्यवस्था की मान्यता गिरती गई है, और भारतीय समाज में सामाजिक और आर्थिक बदलावों के कारण इसका पालन अधिक समय से नहीं होता है। भारत में समाज में जातिवाद, जाति भेदभाव, और सामाजिक असमानता के खिलाफ आंदोलन हुए हैं, और सरकारें समाज में और समाजिक सुधार के लिए कई कदम उठाती हैं।

भारतीय संविधान में समाज को असमानता के खिलाफ सजाग रखने और वर्ण व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए धारा 15(1) के तहत समाज में शोषित और वंचित वर्गों के लिए आरक्षित निर्वाचन के प्रावधान किए गए हैं।

सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, भारत में वर्ण व्यवस्था का महत्व कम हो गया है, और लोग अपने योग्यता और प्रतिबद्धता के आधार पर अपने करियर की राह चुनने में अधिक स्वतंत्र होते हैं। इसका एक मुख्य उद्देश्य सामाजिक समानता और न्याय की दिशा में सामाजिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करना है।

वर्ण-व्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Varna- Vyavastha) 

विश्व की सामाजिक व्यवस्थाओं में वर्ण-व्यवस्था का एक अद्वितीय स्थान है। इस व्यवस्था की कुछ संरचनात्मक एवं कार्यात्मक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं— 

(1) श्रम विभाजन पर आधारित वर्ण-व्यवस्था के अर्न्तगत विभिन्न वर्णों कर्म इस प्रकार निर्धारित किये गये थे कि सभी सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति हो सके। प्रत्येक अपने दायित्व का पालन करता हुआ सामाजिक प्रगति में अपना योगदान देता था। 

( 2 ) विशेषीकरण में सहायक जहाँ वर्ण-व्यवस्था में विभिन्न प्रकार के कार्यों का विभिन्न वर्गों में विभाजन हुआ है वहाँ उसके परिणामस्वरूप पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही प्रकार के कार्यों को करते रहने से लोगों को कार्य विशेष में निपुणता भी प्राप्त हुई है । इससे सम्पूर्ण समाज को विशेषीकरण का लाभ मिला है। 

(3) गुण एवं स्वभाव पर आधारित - यद्यपि कुछ लोग वर्ण-व्यवस्था को जन्म पर आधारित स्तरीकरण का रूप मानते हैं, परन्तु प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों. से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में इस व्यवस्था का आधार व्यक्ति के गुण एवं स्वभाव रहा है। धीरे-धीरे इस व्यवस्था में कठोरता आती गयी और इसमें जन्म का महत्त्व बढ़ता गया अर्थात् यह व्यवस्था जन्म प्रधान बन गई। 

( 4 ) शक्ति एवं अधिकारों का निश्चित वितरण- इस व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न वर्गों की भिन्न-भिन्न शक्तियाँ और अधिकार रहे हैं। यद्यपि शक्ति और अधिकार की दृष्टि से ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च रही है। परन्तु अन्य वर्णों को भी सामाजिक दृष्टि से महत्व दिया गया है। सभी वर्गों को समाज रूपी शरीर के विभिन्न अंगों के रूप में मान्यता प्रदान कर सभी के कार्यों को सामाजिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी माना गया है। कौन किस कार्य को करेगा, कौन किस वर्ण का सदस्य होगा, यह व्यक्ति विशेष के गुण एवं स्वभाव पर निर्भर करता है। धीरे-धीरे विभिन्न वर्णों में शक्ति एवं अधिकार की दृष्टि से एक निश्चित संस्तरण पनपने लगा जिसने एक वर्ण को दूसरे से ऊँचा अथवा नीचा मानना आरम्भ हुआ । 

(5) व्यवसायों का पूर्व निर्धारण – वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक वर्ण के कुछ परम्परागत पूर्व निर्धारित व्यवसाय रहे हैं। साधारणतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने वर्ण से सम्बन्धित व्यवसाय को अपनाने की ही आज्ञा थी। यद्यपि भृगु ने बताया है कि व्यक्ति के 

व्यवसाय के आधार पर ही उसका वर्ण निर्धारित होता था, लेकिन यह वर्ण-व्यवस्था के विकास की प्रारम्भिक अवस्था के समय की बात है। बाद में तो व्यक्ति के व्यवसाय का निर्धारण उसके वर्ण-विशेष की सदस्यता के आधार पर ही होने लगा। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि व्यावसायिक निश्चितता वर्ण-व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। 

(6) गुणात्मक प्रेरणा- वर्ण-व्यवस्था ने व्यक्तियों को अपने वर्ण-धर्म का पालन करने की विशेष प्रेरणा प्रदान की। यह कहा गया कि जो व्यक्ति अपने वर्ण धर्म का पालन करेगा, उसे इस जीवन में तो उच्च स्थान प्राप्त होगा ही, परन्तु आगामी जीवन में भी उसे इसका फल मिलेगा, उनका जन्म ज्यादा अच्छे कुल और वर्ण में होगा। इस प्रेरणा ने व्यक्तियों को कर्त्तव्य पालन के लिये विशेष प्रोत्साहन दिया। 

(7) आध्यात्मिकता पर विशेष जोर- भारतीय संस्कृति में आध्यात्मवाद को विशेष महत्व दिया गया है। वर्ण-व्यवस्था को धर्म के साथ इस प्रकार जोड़ दिया गया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने दायित्व निर्वाह को पुनीत कर्त्तव्य के रूप में समझने लगा । भारतीय विचारक इस बात से भली-भाँति परिचित थे कि अनावश्यक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता सामाजिक संघर्षों को बढ़ाने में योग देती है। यही कारण है कि यहां वर्ण- व्यवस्था के अन्तर्गत वर्ण-धर्म का निर्धारण इस प्रकार किया गया कि प्रत्येक व्यक्ति स्वधर्म के पालन को सर्वाधिक महत्व दे। वर्ण-व्यवस्था में सामूहिक कल्याण के साथ- साथ व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया गया है। 

( 8 ) कर्म के सिद्धान्त एवं पुनर्जन्म की धारणा पर जोर-वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न व्यक्ति अपनी-अपनी सामाजिक स्थिति से सन्तुष्ट रहें और उसके अनुरूप अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहें, इस हेतु इस व्यवस्था को कर्म के सिद्धान्त एवं पुनर्जन्म की धारणा के साथ जोड़ दिया गया। ऐसा करके एक ओर व्यक्ति को अपनी सामाजिक स्थिति के प्रति सन्तुष्ट रहने और दूसरी ओर अपने दायित्व का ठीक ढंग से निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान की गयी 

जाति व्यवस्था

जाति व्यवस्था एक सामाजिक व्यवस्था होती है जो किसी समाज में व्यक्तियों को उनकी जाति या वर्ग के आधार पर विभाजित करती है और सोसायटी के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक हियरार्की या वर्ग व्यवस्था स्थापित करती है। यह व्यवस्था आधारित होती है जैसे कि किसी व्यक्ति की जन्मजात गुणों, जाति, जाति, लिंग, या कुल के आधार पर। जाति व्यवस्था कई भिन्न प्रकार की हो सकती है और विभिन्न समाजों और संस्कृत सामाजिक या सांस्कृतिक परिपर्णता के आधार पर वर्गों को प्राथमिकता देती है, और यह आमतौर पर समाज के अंदर व्यक्ति की पहचान, सामाजिक स्थिति, और अधिकारों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

जाति प्रथा की विशेषताएँ (Characteristics of Caste System )—- 

एन. के. दत्ता ने जाति की निम्नांकित संरचनात्मक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का उल्लेख किया है- 

(1) एक जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते । 

(2) प्रत्येक जाति में दूसरी जातियों के साथ खान-पान के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध होते हैं। 

(3) अधिकांश जातियों के पेशे निश्चित होते हैं। 

(4) जातियों में ऊँच-नीच का एक संस्तरण होता है, जिसमें ब्राह्मणों की स्थिति सर्वमान्य रूप से शिखर पर है। 

(5) व्यक्ति की जाति उनके जन्म के आधार पर ही आजीवन के लिए निश्चित होती है। 

(6) सम्पूर्ण जाति-व्यवस्था ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर आधारित है। 

डॉ. घुरिये ने जाति की निम्नांकित छः सांस्कृतिक एवं संरचनात्मक विशेषताओं का उल्लेख किया है--- 

(1) समाज का खण्डनात्मक विभाजन-जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को विभिन्न खण्डों में विभाजित कर दिया है और प्रत्येक खण्ड के सदस्यों की स्थिति, पद और कार्य निश्चित हैं। घुरिये कहते हैं कि खण्ड विभाजन से तात्पर्य हैं- एक जाति के सदस्यों की सामुदायिक भावना सम्पूर्ण समुदाय के प्रति न होकर अपनी ही जाति तक सीमित होती है अर्थात् व्यक्ति की निष्ठा एवं श्रद्धा समुदाय के बजाय अपनी जाति के प्रति होती है। प्रत्येक जाति की एक जाति-पंचायत होती है जो जाति के सदस्यों पर नियन्त्रण रखती है और उनसे जातीय नियमों का पालन करवाती है। जाति के नियमों का उल्लंघन करने वाले पर जुर्माना किया जाता है और कभी-कभी उसे जाति से बहिष्कृत भी कर दिया जाता है। 

( 2 ) संस्तरण- समाज में सभी जातियों की सामाजिक स्थिति समान नहीं है वरन् उनमें ऊँच-नीच का एक संस्तरण अथवा उतार-चढ़ाव पाया जाता है। ऊँच-नीच की व्यवस्था में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊँचा है और शूद्रों का स्थान सबसे नीचा । क्षत्रिय एवं वैश्य इनके मध्य में हैं। जन्म पर आधारित होने के कारण इस संस्तरण में स्थिरता एवं दृढ़ता पायी जाती है। 

( 3 ) भोजन तथा सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध - जाति-व्यवस्था में जातियों के परस्पर भोजन एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक निषेध पाये जाते हैं। प्रत्येक जाति के ऐसे नियम हैं कि उसके सदस्य किस जाति के यहाँ कच्चा, पक्का तथा फलाहारी भोजन कर सकते हैं, किनके हाथ का बना भोजन कर सकते एवं किनके यहाँ पानी पी सकते हैं, किनके साथ बैठकर हुक्का-बीड़ी पी जा सकती है, किनके यहां धातु या मिट्टी के बर्तनों का उपयोग अपने लिए किया जा सकता है, आदि। सामान्यतः ऊँची जातियों के द्वारा बनाया गया भोजन निम्न जातियाँ स्वीकार कर लेती हैं किन्तु निम्न जातियों द्वारा बनाया गया कच्चा या कभी- कभी पक्का भोजन भी उच्च जातियों द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता है। 

( 4 ) नागरिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार जाति-व्यवस्था में उच्च जातियों को कई सामाजिक एवं धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त हैं, जबकि निम्न अछूत जातियों को उनसे वंचित किया गया है। खासतौर से दक्षिण भारत में अछूत जातियों पर 

अनेक निर्योग्यताएँ लादी गयी हैं। मालाबार के इजावाह लोगों को जूते पहनने, छाता लगाने एवं गाय का दूध निकालने की आज्ञा नहीं थी। अछूतों का स्कूल, मन्दिर, तालाब, कुओं एवं सार्वजनिक स्थानों एवं बगीचों के उपयोग की मनाही थी। अछूतों की बस्तियाँ गाँव से दूर होती थीं। इस प्रकार उच्च जातियों को सामाजिक एवं धार्मिक विशेषाधिकार प्राप्त रहे हैं और अछूतों को अनेक निर्योग्यताओं से पीड़ित रहना पड़ा है। 

(5) पेशे के अप्रतिबन्धित चुनाव का अभाव - प्रायः प्रत्येक जाति का एक परम्परागत व्यवसाय होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होता रहता है। कई जातियों के नाम से ही उनके व्यवसाय का बोध होता है। प्रत्येक जाति यह चाहती है कि उसके सदस्य निर्धारित जातिगत व्यवसाय ही करें। अन्य जातियों के लोग भी एक व्यक्ति को अपना जातीय व्यवसाय बदलने से रोकते हैं। किन्तु कुछ व्यवसाय ऐसे हैं जैसे, कृषि व्यापार एवं सेना में नौकरी आदि जिनमें सभी जातियों के व्यक्ति काम करते हैं। 

( 6 ) विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध जाति की एक प्रमुख विशेषता यह है कि प्रत्येक जाति अपनी ही जाति अथवा उपजाति में विवाह करती है। जाति या उपजाति से बाहर विवाह करने वाले को जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है । 

(7) जन्मजात सदस्यता — जाति की सदस्यता जन्मजात होती है। एक व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, मृत्युपर्यन्त उसी में बना रहता है। शिक्षा, धर्म, व्यवसाय एवं गुणों में वृद्धि करने से जाति परिवर्तित नहीं की जा सकती। 

( 8 ) जाति का राजनीतिक रूप- डॉ. सक्सेना का मत है कि जाति एक राजनीतिक इकाई भी है क्योंकि प्रत्येक जाति व्यावहारिक आदर्श के नियम प्रतिपादित करती हैं और अपने सदस्यों पर उनको लागू करती है। जाति-पंचायत, उसके कार्य और संगठन जाति के राजनीतिक पक्ष के ही प्रतीक हैं। जाति के द्वारा विधायक, न्यायिक और कार्यकारिणी सम्बन्धी कार्य भी सम्पन्न किये जाते हैं जिसके कारण उसे राजनीतिक इकाई का रूप मिलता है। उच्च जातियों की अपेक्षा निम्न जातियों में जाति पंचायतों का संगठन अधिक सुदृढ़ होता है। जाति पंचायत के सदस्य साधारणत: वंशानुगत होते हैं। वर्तमान में जाति पंचायतों का क्षेत्र सीमित हो गया है। 

किन्तु जाति की इन विशेषताओं में वर्तमान समय में बहुत कुछ बदलाव आया है जिसके परिणामस्वरूप जाति के रचनात्मक एवं सांस्कृतिक स्वरूप में परिवर्तन हुए जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे। 

 जाति-व्यवस्था के गुण एवं दोष— 

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में 'जाति व्यवस्था' एक महत्त्वपूर्ण संकल्पना है, जिसे भारतीय सामाजिक विशिष्टता के रूप में देखा जा सकता है। इस व्यवस्था के गुण-दोषों की विवेचना निम्नलिखित रूप में की जा सकती है- 

जाति-व्यवस्था के गुण- 

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के एक अनिवार्य अंग के रूप में जाति व्यवस्था में निम्नांकित गुण पाए जाते हैं- 

1. जाति व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को स्थिर सामाजिक पर्यावरण प्रदान करती है। इसी आधार पर मजूमदार ने भी कहा है कि " जाति व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा का वह आधार है जहां व्यक्ति को रोजगार, आवास और विवाह से सम्बन्धित सुरक्षा प्राप्त होती है, जो व्यक्ति के परिवर्तनशील स्वभाव के कारण सम्भव नहीं हो पाती।" 

2. जाति व्यवस्था एक ही जाति के सदस्यों में सद्भावना एवं सहयोग की भावना विकसित करती है। निर्धन एवं जरूरत मंदों की सहायता करती है। साथ ही जजमानी प्रथा द्वारा सभी जातीय समूहों की परस्पर निर्भरता में वृद्धि करती है। 

3. यह व्यक्ति के आर्थिक व्यवसाय का निर्धारण करती है। प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट व्यवसाय होता है जिससे बच्चों के प्रशिक्षण के अवसर के साथ ही उनका भविष्य भी निश्चित हो जाता है। 

4. अन्तर्जातीय विवाहों पर प्रतिबन्ध लगाकर इसने उच्च जातियों की प्रजातीय शुद्धता को सुरक्षित बनाए रखा है। इसने सांस्कृतिक शुद्धता पर बल देकर स्वच्छता की आदतों का विकास किया है। 

5. चूँकि जाति व्यवस्था व्यक्ति को भोजन, संस्कार और विवाह सम्बन्धी जातिगत नियमों के पालन का आदेश देती है, अतः राजनीतिक एवं सामाजिक विषयों पर उसके विचार व बौद्धिक क्षमता उसकी जातीय प्रथाओं द्वारा प्रभावित हो जाते हैं। 

6. वर्ग संघर्ष की वृद्धि किए बिना यह वर्ग चेतना का विकास करती है। विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों के लोगों को एक ही समाज में संगठित करने का यह सर्वोत्तम प्रयास था जिसने देश को संघर्षरत प्रजातीय समूहों में विभक्त होने से बचाया । 

7. यह सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक विभिन्न कार्यों-शिक्षा, शासन, घरेलू सेवा आदि का प्रबन्ध, धार्मिक विश्वास, 'कर्म सिद्धान्त में विश्वास', की संपुष्टि करती है, जिससे कार्यों के विषम विभाजन को भी संसार का दैवीय विधान समझकर स्वीकार कर लिया जाता है। 

8. जाति व्यवस्था में जातीय प्रथाएँ, विश्वास, कौशल, व्यवहार एवं व्यापारिक विशिष्टताओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करती हैं। इस प्रकार संस्कृति की निरंतरता बनी रहती है। 

9. इसने सामाजिक जीवन को राजनीतिक जीवन से पृथक् रखकर अपनी स्वतंत्रता को राजनीतिक प्रभावों से मुक्त रखा है। 

जाति-व्यवस्था के दोष 

एक ओर जहाँ हमारी जाति व्यवस्था में कई गुण पाये जाते हैं वहीं यह कई एक दोषों से भी युक्त है, जो निम्नवत हैं- 

1. चूँकि व्यक्ति को अपने जातीय व्यवसाय को ही करना पड़ता है, जिसे वह अपनी इच्छा अथवा अनिच्छा के अनुसार बदल नहीं सकता, अतएव इसने श्रम की गतिशीलता को रोका है। 

2. इसने अस्पृश्यता को जन्म दिया है। इसके अतिरिक्त इसने अन्य दोषों, यथा-बाल विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रणाली और जातिवाद को भी जन्म दिया है। 3. इसने एक जाति को दूसरी जाति से पृथक करके तथा उनके बीच किसी भी सामाजिक अन्तर्क्रिया को प्रतिबन्धित करके हिन्दू समाज में सद्भावना एवं एकता के विकास को रोका है। 

4. जाति व्यवस्था में आनुवांशिक व्यवसाय के कारण व्यक्ति अपनी योग्यता व रुचि के अनुसार कोई अन्य व्यवसाय नहीं अपना सकता। यह लोगों की क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं करती, जिससे यह अधिकतम उत्पादन में बाधक सिद्ध होती है । 

5. जाति-व्यवस्था देश में राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधक सिद्ध हुई है। जाति- भक्ति की भावना ने दूसरी जातियों के प्रति घृणा उत्पन्न की जो राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए अनुकूल नहीं है। 

6. यह राष्ट्र की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति में बड़ी भारी बाधक रही है। कर्म के सिद्धान्त में विश्वास करने के कारण लोग परम्परावादी हो जाते हैं। चूँकि उनकी आर्थिक स्थिति निश्चित होती है, इससे उनमें गतिशीलता के प्रति उदासीनता देखी जाती है। 

7. जाति व्यवस्था अप्रजातंत्रीय है क्योंकि इसने सबको जाति, रंग अथवा विश्वास के भेदभाव के आधार पर समानता के अधिकार से वंचित कर दिया है । 

8. जाति-व्यवस्था ने जातिवाद को जन्म दिया है। इसमें किसी जाति के सदस्यों में जातिगत भावनाएँ होती हैं और वह न्याय, समता, भ्रातृत्व जैसे स्वस्थ सामाजिक मानकों को भुलाकार अपनी जाति के प्रति अंधभक्ति प्रदर्शित करते हैं। राजनीतिज्ञ जातिवाद की भावना का, राष्ट्रीय हितों को दांव पर लगाते हुए अपने लाभ हेतु पक्षपोषण करते हैं। 

मूल्यांकन- 

उपरोक्त दोनों पक्षों पर विचारोपरांत स्पष्ट है कि तुलनात्मक रूप से इस व्यवस्था के दोष अधिक हैं। जातीय व्यवस्था स्थिर समाज को जन्म देती है। चूँकि इसमें प्रस्थिति का निर्धारण जन्म के आधार पर होता है, परिणामतः व्यक्ति अपने कार्यों को न तो बदल सकता है और न ही उन्नत कर सकता है, अतएव विशिष्ट प्रयासों को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। जब तक जातीय अवरोधों को समाप्त नहीं कर दिया जाता जिससे निम्न प्रस्थिति के व्यक्ति को व्यक्तिगत प्रयत्नों का लाभ प्राप्त हो सके तब तक भारतीय समाज के तीव्र विकास और सामाजिक पुनर्निर्माण में बाधा उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहेगी । 

जाति तथा वर्ण में अन्तर  

जाति तथा वर्ण (Caste and Varna) – प्राय: जाति एवं वर्ण को एक ही समझ लिया जाता है। इसका कारण यह है कि प्राचीन समय में जाति नहीं वरन् वर्ण ही प्रचलित थे और बाद में चलकर वर्णों से जातियों की उत्पत्ति हुई। फिर भी इन दोनों में पर्याप्त अन्तर हैं। 

वर्ण एवं जातियों में अन्तर- 

(1) वर्ण गुण तथा कर्म पर आधारित हैं जबकि जाति जन्म पर जाति की सदस्यता व्यक्ति को जन्म से प्राप्त होती है, जबकि वर्ण की सदस्यता गुण एवं कर्म के 

आधार पर । 

(2) वर्ण की संख्या जाति से कम है— शास्त्रों में केवल चार वर्णों— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का उल्लेख किया गया है जबकि जातियों की संख्या हजारों में है । 

( 3 ) वर्ण जाति की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं— जाति की उत्पत्ति जैन एवं बौद्ध धर्म के हास के बाद मानी जाती है जबकि वर्ण-व्यवस्था प्राचीन वैदिक काल से ही प्रचलित रही है। 

( 4 ) वर्ण जाति की अपेक्षा लचीली व्यवस्था है— जाति जन्म से निर्धारित होने के कारण कठोर है, उसे बदला नहीं जा सकता जबकि वर्ण का आधार कर्म एवं गुण होने के कारण उसे बदलना सम्भव है। परशुराम ब्राह्मण थे जो बाद में क्षत्रिय बन गये थे । 

(5) वर्ण में खान-पान, विवाह एवं सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध नहीं पाये जाते जबकि जाति में पाये जाते हैं— क्षत्रिय राजा शान्तनु ने शूद्र कन्या सत्यवती से तथा दुष्यन्त ने कण्व ऋषि द्वारा पालित शकुन्तला से विवाह किया था । 

(6) वर्ण समानता पर आधारित है, जाति नहीं— वर्ण व्यवस्था में ऊँच-नीच का संस्तरण नहीं पाया जाता है, सभी वर्णों का समान महत्व माना गया है। दूसरी ओर जातियों में ऊँच-नीच की भावना होती है। 

(7) वर्ण व्यवस्था कर्त्तव्यों की व्याख्या करती है जबकि जाति खान-पान, विवाह, सामाजिक सहवास एवं पेशे सम्बन्धी निषेधों की । 

जाति व्यवस्था में परिवर्तन एवं इसके कारक 

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में जाति प्रथा से सम्बन्धित जो परिवर्तन स्पष्ट हो रहे हैं उन्हें प्रमुख रूप से तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है— (क) जाति की संरचना में परिवर्तन, (ख) जातिगत निषेधों में परिवर्तन तथा (ग) जातिगत मनोवृत्तियों में परिवर्तन । 

जाति की संरचना में परिवर्तन- 

परम्परागत भारतीय समाज में जाति व्यवस्था की सम्पूर्ण संरचना इस प्रकार थी जिसमें ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च थी। सामाजिक व्यवस्था की रूपरेखा वर्तमान समय में राज्य के द्वारा बनाये गये कानूनों द्वारा निर्धारित होती है। आधुनिक मूल्यों के विकास के साथ ही धार्मिक विश्वास स्वयं ही लौकिक जीवन से दूर हट रहे हैं। व्यक्तियों को संविधान द्वारा समानता का अवसर प्रदान किया गया है। अतः व्यक्ति की प्रस्थिति का निर्धारण आज जातिगत नियमों से न होकर उसकी योग्यता और कुशलता के द्वारा हो रहा है। 

स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति के अन्तर्गत सभी जातियों की स्थिति पूर्णतया निश्चित थी जिसमें किसी प्रकार का भी परिवर्तन सम्भव नहीं था। वर्तमान समय में इस संस्तरण में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज प्रत्येक उप-जाति अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए प्रयत्नशील है। श्री निवास ने इस प्रक्रिया को 'संस्कृतिकरण' कहा है। आज एक जाति दूसरे जाति को अपने से उच्च मानकर उसका आधिपत्य मानने को तैयार नहीं है। व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति भी आज जाति की सदस्यता से निर्धारित न होकर उसकी योग्यता, कार्यक्षमता, नेतृत्व अथवा आर्थिक सफलता से निश्चित होती है। 

जाति-व्यवस्था की संरचना संस्तरण में जिन व्यक्तियों को अस्पृश्य, दलित अथवा अन्त्य मानकर समस्त अधिकारों से वंचित कर दिया गया था, उनकी स्थिति में आज सबसे अधिक परिवर्तन हुआ है। महात्मा गांधी और अम्बेडकर के प्रयत्नों से इन व्यक्तियों को समान अधिकार ही नहीं दिये गए हैं बल्कि सभी सरकारी नौकरियों व राजनीतिक संस्थाओं में उनके लिए स्थान भी आरक्षित कर दिये गये हैं जिससे उनकी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति में सुधार हो सके। दलित जातियों को मन्दिरों में प्रवेश का अधिकार मिल जाने से जाति-व्यवस्था का वह धार्मिक आधार भी समाप्त हो गया जिसके द्वारा सवर्णों और अस्पृश्यों के बीच विभेद को धार्मिक वैधता प्राप्त होती थी। 

जातिगत निषेधों में परिवर्तन 

जाति व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व अनुलोम और अन्तर्विवाह की वह व्यवस्था थी जिससे एक जाति अपनी स्थिति बनाए रखती थी। समकालीन भारत में अन्तर्जातीय विवाहों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। विधवा विवाह को अधिक से अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है। बाल विवाह को कानून के द्वारा दण्डनीय अपराध बना दिया है जिनके कारण बाल विवाह के स्थान पर विलम्ब विवाह की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। गोत्र, प्रवर और सपिण्ड जैसी धारणाओं में व्यक्तियों का विश्वास कम होता जा रहा है। कानूनों द्वारा भी ऐसे विवाहों को मान्यता दे दी गई है। 

जाति व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक जाति का व्यवसाय निश्चित होता था जो आनुवांशिक होता था। वर्तमान समय में जाति का यह आधार लगभग समाप्त ही हो चुका है। नगरों में लगभग सभी व्यावसायिक क्षेत्रों में सभी जातियों के व्यक्ति लगे होते हैं। इस प्रकार आज व्यावसायिक जीवन की गतिशीलता ने सभी जातियों को समान आर्थिक अवसर प्रदान किया है। 

पारम्परिक जाति व्यवस्था में प्रत्येक जाति अपने से निम्न जाति के सदस्यों द्वारा स्पर्श किये गये भोजन पर प्रतिबन्ध लगाती थी लेकिन वर्तमान समय में जाति का यह आधार लगभग समाप्त ही हो गया है। औद्योगिक नगरों में सैकड़ों व्यक्ति एक साथ कारखानों में काम करते हैं और अवकाश के समय में साथ-साथ बैठकर भोजन करते हैं। होटल, जलपान गृहों, चाय-पार्टियों तथा उत्सवों में सभी जातियों के व्यक्ति उस भोजन को ग्रहण करते हैं जो अज्ञात व्यक्तियों द्वारा बनाए गए हों जिनका स्पर्श करना भी जाति- व्यवस्था द्वारा वर्जित था । 


जाति व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य था कि वह अपनी जाति के सदस्यों से ही अधिकतम सम्पर्क बढ़ाए, उच्च जातियों की श्रेष्ठता में विश्वास रखे और निम्न जातियों से दूरी बनाए रहे। आज जाति प्रथा का यह आधार पूर्णतया कमजोर पड़ गया है। आज बहुत सी उच्च जातियां अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए उन सभी व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करती हैं जिनकी छाया भी किसी समय अपवित्रता का कारण बन जाती थी। 

जातिगत मनोवृत्तियों में परिवर्तन- 

आधुनिक समाज का शिक्षित विवेकशील व्यक्ति जन्म के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक प्रस्थिति के निर्धारण को रूढ़िगत मानता है। शिक्षा के प्रसार के कारण व्यक्तियों की मनोवृत्ति में तेजी से परिवर्तन हो रहा है और आज किसी भी ऐसे व्यक्ति का सम्मान किया जाता है जो शिक्षित, कुशल और सम्पन्न हो, फिर चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में क्यों न हुआ हो । 

जाति व्यवस्था आज भी हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रही है लेकिन जाति के इस प्रभाव को केवल राजनीतिक और आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए ही प्रयुक्त किया जा रहा है। आज कोई भी शिक्षित व्यक्ति यह स्वीकार नहीं करता है कि इस व्यवस्था का सम्बन्ध किसी अलौकिक अथवा ईश्वरीय शक्ति से है। इसे एक सामाजिक कुरीति अथवा रूढ़ि के रूप में ही देखा जाता है। 

जाति प्रथा को स्थायी बनाए रखने में जाति-पंचायतों तथा जाति-सभाओं का महत्वपूर्ण योगदान था । यह जाति - बहिष्कार, जाति-भोज और तरह-तरह की प्रायश्चितता का भय दिखाकर व्यक्तियों को जाति के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य करते रहते थे। आज जातिगत पंचायतों के पास कोई व्यावहारिक अधिकार नहीं है और अब यह एक निष्क्रिय संस्था मात्र रह गई है जिसके कारण जाति प्रथा को सशक्त करने वाला स्थानीय आधार समाप्त हो गया है। 

जाति व्यवस्था में परिवर्तन के कारक- 

जाति व्यवस्था में होने वाले उपर्युक्त परिवर्तन कई कारकों के संयुक्त परिणाम हैं जिसका वर्णन निम्नांकित रूप से किया जा सकता है- 

1. ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद से ही व्यक्ति ईसाई धर्म की एकता और समानता से प्रभावित होने लगे थे। यही भावना थी जिसके फलस्वरूप भारत में सुधार आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसने जाति प्रथा का विरोध किया । 2. भारत में औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप व्यक्ति की स्थिति आर्थिक आधार पर निर्धारित होने लगी। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की सामाजिक और धार्मिक स्थिति उसकी जाति और वंश से प्रभावित न होकर उसकी आर्थिक सफलता से प्रभावित होने लगी। परिवहन और संचार के साधनों में तीव्र विकास से सभी जातियों के व्यक्तियों को एक दूसरे के निकट सम्पर्क में आने को अवसर मिला जिससे जातीय बन्धन शिथिल पड़ने लगे। 

3. भारत में आधुनिक शिक्षा के विस्तार के साथ ही एक बड़े वर्ग ने जाति व्यवस्था 

जैसी सभी व्यवस्थाओं का विरोध करना आरम्भ कर दिया। शिक्षा से तर्क का महत्त्व बढ़ा और जाति के धार्मिक आधारों को तार्किक दृष्टिकोण से देखा जाने लगा और इन मान्यताओं पर प्रश्न खड़ा किया जाने लगा। 

4. स्वतंत्रता आन्दोलन के समय महात्मा गांधी, तिलक, लाला लाजपत राय 

और बहुत से क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में सभी धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों और वर्णों के व्यक्तियों ने कन्धे से कन्धा मिलाकर राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया जिसके परिणामस्वरूप जातिगत दूरी कम हुई । 

5. भारत में प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था स्थापित होने के बाद जाति-व्यवस्था की 

संरचना अपने आप ही विघटित होने लगी क्योंकि प्रजातंत्र का मूलदर्शन समानता, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता पर आधारित है जबकि जाति- व्यवस्था जन्म से ही व्यक्ति को भेदभाव, निम्न जातियों के शोषण और धार्मिक कंट्टरता की सीख देती है। 

6. भारत में जाति-व्यवस्था इसलिए एक प्रभावपूर्ण संस्था बनी हुई थी क्योंकि इसकी उत्पत्ति और नियमों को धर्म और अलौकिक विश्वासों के साथ जोड़ दिया गया था। सम्प्रति में जाति सम्बन्धी धार्मिक विश्वासों में कमी आयी है। 

7. परम्परागत रूप से जाति पंचायतों ने जातिगत नियमों को स्थिर बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था जो जाति प्रथा के नियमों का उल्लंघन करने पर व्यक्ति को जाति से बहिष्कार करके, आर्थिक जुर्माने से तथा कभी-कभी शारीरिक क्षति पहुँचाकर दण्डित करती थी । वर्तमान समय में जाति पंचायतों का दण्ड देने का अधिकार पूर्णतया समाप्त हो चुका है। 

8. जाति को स्थायी बनाने में संयुक्त परिवारों का योगदान सदैव महत्त्वपूर्ण रहा है। संयुक्त परिवार बच्चे को आरम्भ से ही परम्परागत जीवन व्यतीत करने, कर्मकाण्डों और रूढ़ियों में विश्वास करने तथा जातिगत भेदभाव को सिखाने का केन्द्र- -स्थल रहे हैं। औद्योगीकरण तथा व्यवसायों की विविधता के कारण . संयुक्त परिवारों के विघटन ने जाति व्यवस्था को कमजोर किया। 

9. आधुनिक शिक्षा के प्रसार और सुधार आन्दोलनों के कारण स्त्रियों की स्थिति में तेजी से सुधार हो रहा है, वे स्वयं उन जातिगत नियमों का विरोध करने लगी हैं जिनके कारण उनका जीवन पशु-तुल्य हो गया था। 

10. स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में जितने भी सामाजिक अधिनियम बने उनमें से अधिकतर विधान जाति प्रथा की सैद्धान्तिक मान्यताओं के विरुद्ध हैं। 1954 के विशेष विवाह अधिनियम ने अन्तर्विवाह प्रतिबन्धों पर प्रभाव डाला । अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 के द्वारा अस्पृश्यता अथवा इससे सम्बन्धित सभी प्रकार के आचरण को अपराध घोषित कर दिया गया। सन् 1956 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के द्वारा मिताक्षरा और दायभाग के भेद को समाप्त करके स्त्रियों को पुरुषों के समान ही साम्पत्तिक अधिकार दिए गए । इन सभी अधिनियमों के कारण एक ऐसे समतामूलक पर्यावरण का निर्माण हुआ जिसमें जाति प्रथा के स्थायित्व पर कठोर आघात हुआ क्योंकि जाति व्यवस्था अपनी प्रकृति में असमानताओं पर आधारित थी । 

दलित समुदाय 

दलित समुदाय वे हिन्दू जातियाँ जिनके संपर्क में आने पर उच्च जाति के हिन्दुओं को शुद्धिकरण करना पड़े दलित कहलाते हैं और जो भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के अंतर्गत सबसे निचले अवस्था पर अवस्थित हैं। 'दलित' एक मराठी शब्द हैं जिसका शाब्दिक अर्थ हैं—'धरती' अथवा ' टूटे हुए खंड' और इसे सबसे पहले महाराष्ट्र में 'दलित पैन्थर्स' द्वारा प्रचलन में लाया गया जिससे उनका तात्पर्य था अनुसूचित जाति की जनता । तत्पश्चात् इस परिभाषा को व्यापक बनाने के प्रयास में किसी भी दबे-कुचले समूह के लिए इसका प्रयोग किया जाने लगा। दलित मुख्य रूप से केवल अनुसूचित जातियों का संदर्भ प्रस्तुत करते हैं, यथा वे जातियाँ जो हिन्दू वर्ण व्यवस्था में वर्ण- व्यवस्था से बाहर थीं और 'अवर्ण' अथवा अस्पृश्य मानते हुए जिन्हें अशुद्ध समझा जाता था और जाति पदानुक्रम में सबसे नीचे रखा जाता था जिसने असमानता को बनाए रखा। दलित भारत की जनसंख्या के लगभग 16 प्रतिशत हैं और आर्थिक एवं सामाजिक रूप से भारतीय समाज के निम्नतर श्रेणियों से सम्बन्ध रखते हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या 13.8 करोड़ थी। (कुल जनसंख्या संख्या के 15.8 प्रतिशत) । वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार वे 16.66 करोड़ से भी अधिक, (समग्र जनसंख्या के लगभग 16.2 प्रतिशत) हैं। वे पूरे देश भर में फैले हैं तथापि उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा व महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में वे अधिक संघनित हैं। उनकी आबादी तमाम संसदीय एवं विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में फैली हुई है, और देश में ये निर्वाचकगण के लगभग एक-तिहाई हैं। 

दलित न सिर्फ निम्न जाति श्रेणी से ही ताल्लुक रखते हैं बल्कि वे भारतीय समाज के निम्न वर्ग श्रेणी से भी ताल्लुक रखते हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वे मुख्य रूप से गरीब किसान, बंटाई - मजदूर तथा कृषि श्रमिक होते हैं। शहरी अर्थव्यवस्था में वे मूल रूप से श्रमजीवी जनसंख्या के अधिकांश भाग का निर्माण करते हैं। 

परंपरागत भारतीय समाज में इन दलित जातियों के साथ कई निर्योग्यताएँ जुड़ी थीं। इन्हें नगर से बाहर रहना होता था तथा सूर्यास्त के बाद नगर में प्रवेश वर्जित था। इन्हें मंदिर, सार्वजनिक कुओं, तालाब आदि के प्रयोग की अनुमति नहीं थी। इनको उच्च हिन्दू जाति से कुछ कदम की दूरी बनाए रखना आवश्यक था। ये सोना-चांदी को धारण नहीं कर सकते थे। इन्हें केवल मिट्टी के बर्तन प्रयोग करने की अनुमति थी। पुरुष घुटने से नीचे तथा कमर के ऊपर वस्त्र नहीं पहन सकते थे। पुरुष बाल नहीं कटवा सकते थे। इन्हें छाता, चप्पल के प्रयोग की अनुमति नहीं थी । इनकी स्त्रियों को शरीर के ऊपरी भाग ढ़कने तथा फूल, मेंहदी आदि के प्रयोग का अधिकार नहीं था । 

दलित जाति की उपरोक्त निर्योग्यताओं का वितरण भारतीय समाज में असमान था। कुछ क्षेत्रों में जहाँ इनकी संख्या अधिक थी ये निर्योग्यताएँ कमजोर थीं और जहां इनकी संख्या कम थी वहां निर्योग्यताएँ कठोर थीं। चूंकि जाति व्यवस्था का आधार धर्म था और परंपरागत भारतीय समाज धर्म प्रधान समाज था इसके फलस्वरूप धर्म आधारित मूल्य व्यवस्था के तहत दलित जाति की इस व्यवस्था को न केवल समाज द्वारा वैद्यता प्राप्त थी बल्कि दलित भी इसे मान्यता देते थे और इन निर्योग्यताओं का उल्लंघन करना पाप समझते थे। 

अंग्रेजों के आगमन के साथ आधुनिकता के मूल्यों का प्रसार प्रारंभ हुआ फलस्वरूप धर्म का प्रभाव कमजोर हुआ और दलितों की अपनी स्थिति के बारे में प्रदान की गई वैधता कमजोर हुई साथ ही इन नवीन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में उनमें अपनी जाति के लिये चेतना का उद्भव हुआ जिसको 'दलित चेतना' कहते हैं । 

यद्यपि दलित चेतना के उद्भव की व्यवस्थित शुरूआत भारत में आधुनिकता के मूल्यों के प्रवेश से मानी जाती है लेकिन इसके लिए कई कारक संयुक्त रूप से उत्तरदायी रहे हैं- 

1. स्वतंत्रता, समानता एवं सामाजिक न्याय के मूल्यों का प्रसार । 

2. आधुनिक शिक्षा, तार्किक, वैज्ञानिक एवं वैश्विक दृष्टि का प्रसार । 

3. सुधार आन्दोलन के नेता, जैसे- ज्योतिबा फुले, श्री नारायण गुरु आदि द्वारा किए गए प्रयास । 

4. यातायात एवं संचार साधनों का विकास। 

5. औद्योगीकरण एवं नगरीकरण के कारण प्रदत्त की गई स्थान, योग्यता एवं अर्जित प्रस्थिति का महत्व । 

6. प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं के द्वारा किए गए प्रयास यथा महात्मा गांधी द्वारा हरिजन सेवक संघ (1932) की स्थापना, भीमराव अम्बेडकर द्वारा 'डिप्रेस्ड क्लास सोसायटी' की स्थापना तथा रिपब्लिकन पार्टी (1957) का निर्माण जिसके प्रभाव में दलितों द्वारा सामूहिक रूप से बौद्ध धर्म ग्रहण किया गया। 

7. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की स्थापना का प्रभाव जिसके अन्तर्गत परंपरागत निर्योग्यताओं का उन्मूलन, बिना किसी भेदभाव के सबको समान अवसर तथा संरक्षणात्मक भेदभाव की नीति आदि का प्रावधान किया गया। 

8. राजनीतिक दलों द्वारा किए गए प्रयास जिसमें समर्थन जुटाने और मतों को लामबंद करने के उद्देश्य से दलितों को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करने के प्रयास महत्वपूर्ण है। 

दलित चेतना का परिणाम 

ब्रिटिश शासन के दौरान दलितों में अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक परिस्थितियों में सुधार हेतु उत्पन्न की गई जागृति ने भारतीय समाज में दोनों ही तरह के परिणाम (सकारात्मक और नकारात्मक) उत्पन्न किए- 

सकारात्मक परिणाम 

दलित चेतना के सकारात्मक परिणामों के रूप में निम्नलिखित बातों को शामिल किया जा सकता है- 

1. देश के विभिन्न भागों में दलित जातियां संगठित समूहों के रूप में उदित हुईं और प्रौद्योगिक उन्नयन की दिशा में संगठित एवं सामूहिक प्रयास प्रारंभ हुए फलत: प्रौद्योगिक सुधार संभव हुआ । 

2. समतामूलक समाज की स्थापना में यह सहायक रही जिसके कारणों के रूप में 

निम्न तत्वों को उत्तरदायी माना जा सकता है- 

(i) स्कूल कॉलेजों में साथ-साथ पढ़ने से लोगों में समानता की भावना का संचार हुआ। 

(ii) आर्थिक समानता की ओर बढ़ाये गये कदमों ने दलितों को अन्य समुदायों की तरह समर्थ बनाया । 

(III) राजनीतिक समानता की भावना ने अधिकारों के स्तर पर समानता उत्पन्न की। 

(iv) शैक्षणिक समानता के अवसरों ने आधुनिक मूल्यों के रूप में स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व के मूल्यों का विस्तार किया । 

3. इससे सामाजिक गतिशीलता के अवसरों में वृद्धि हुई है जिससे दलितों को अपनी स्थिति सुधारने के अवसर प्राप्त हुए। 

4. दलित चेतना आधुनिकीकरण एवं सामाजिक विकास में सहायक एक समतामूलक समाज की स्थापना करने में सहायक हुई हैं। 

5. लोकतंत्र की सफलता में सहायक के रूप में दलित चेतना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसने 

(i) अशिक्षित निरक्षर जातियों को जातीय आधार पर जागरूक और उनके अपने अधिकारों के प्रति जागृत किया है।

 (ii) जाति संगठनों को दबाव समूह के रूप में कार्य करने हेतु प्रेरित किया है जिसने उनको अपने हितों की पूर्ति के लिए क्रियाशील बनाया है। 

(ii) मंत्रीमण्डल में जातीय आधार पर प्रतिनिधित्व प्रदान करने पर बल दिया है। 

नकारात्मक परिणाम — 

यद्यपि एक ओर दलित चेतना ने जहाँ अनेकों सकारात्मक परिणाम दिए हैं वहीं इसने कुछ दुष्परिणामों को भी उत्पन्न किया है, जैसे- 

1. इसने आर्थिक और राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने हेतु जातीय प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष में वृद्धि ( राजस्थान में गुर्जर - मीणा संघर्ष आदि) की है। 

2. जातिवाद में वृद्धि का कारण रही है और जातीय संघर्षों में वृद्धि हेतु प्रेरक रही है । 

3. इस रूप में लोकतंत्र के विकास में बाधक बनी है। 

4. नक्सलवाद को प्रोत्साहन (बिहार, झारखंड में छत्तीसगढ़) मिला है। 

मूल्यांकन – 

निश्चित तौर पर दलित चेतना के उद्भव ने नकारात्मक परिणामों को उत्पन्न किया है, परन्तु इन परिणामों का संबंध मुख्यतः संक्रमणकालीन स्थितियों से है जहाँ परंपरागत शक्ति संरचना टूट रही थी और नई शक्ति संरचना स्थापित हो रही थी । दलित चेतना के फलस्वरूप दलितों की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है और अंततः यह समतामूलक समाज की दिशा में परिवर्तन में सहायक रहा है। सच्चदानंद सिन्हा के अनुसार दलित वर्ग में भी एक ऊँचा वर्ग उभर रहा है जिसे उन्होंने दलित अभिजन की संज्ञा दी है। 

परन्तु, अभी भी दलितों का यह उत्थान पर्याप्त नहीं है। अभी भी अधिकांश गंदगी का काम दलित जातियां ही करती हैं। छूआछूत का व्यवहार अभी भी जारी है। (मुख्यत: सार्वजनिक भोज के समय) इसी प्रकार सरकार के दोपहर भोजन कार्यक्रम में भी ऊँच- नीच के विवाद चर्चा का विषय रहा है। भारत में अपराध 2006 रिपोर्ट के अनुसार आज भी प्रति घंटे में एक दलित की पिटाई या उस पर अत्याचार होता है और प्रतिदिन 2 दलितों की हत्या की जाती है और 2 दलितों के घर जला दिए जाते हैं। दलितों के साथ घटने वाली घटनाएँ जैसा कि 2007 में हरियाणा और महाराष्ट्र में हुआ उनकी वर्तमान निम्न स्थिति को ही दर्शाती है। 

लेकिन कानपुर में अम्बेडकर की मूर्ति तोड़े जाने पर दलितों द्वारा किया गया आंदोलन दलितों में आई चेतना को दर्शाता है । 

जनजातीय समुदाय पर टिप्पणी लिखिए। 

जनजातीय समुदाय -

जनजातीय समुदाय भारतीय संरचना का एक प्रमुख घटक है जिनकी जनसंख्या भारतीय जनसंख्या की लगभग 8.43% है और जिनको देश के सर्वाधिक पिछड़े समुदाय के रूप में स्वीकार किया जाता है। 

जनजातीय समुदाय की परिभाषा को लेकर मानवशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद रहा है। बैरियर एल्विन इनको भारत वर्ष के वास्तविक 'स्वदेशी उपज' के रूप में देखते हैं तो घुर्ये ने इन्हें 'पिछड़ा हिन्दू' कहकर परिभाषित किया है। 

मजूमदार के अनुसार, "एक जनजाति परिवारों या परिवार के समूहों का एक संकलन होती है, जिसका एक सामान्य नाम होता है जिसके सदस्य एक निश्चित भू- भाग पर निवास करते हैं, एक-सी भाषा बोलते हैं और विवाह, व्यवसाय या उद्योग के विषय में कुछ निषेधों का पालन करते हैं तथा परस्पर एक निश्चित एवं मूल्यांकित आदान-प्रदान की व्यवस्था का विकास करते हैं।" 

इन दोनों अतिवादी दृष्टियों से इतर कुछ मानवशास्त्रियों- समाजशास्त्रियों; जैसे- सुरजीत सिन्हा, एफ. जी. बेली आदि ने भारतीय जनजाति को जाति के साथ निरंतरता के संदर्भ में समझाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार जहाँ सभ्यता के एक किनारे पर जनजातियाँ हैं, तो दूसरे किनारे पर जातीय समूह। जनजातियों में समतावादी और आत्मनिर्भर सामाजिक व्यवस्था होती है, वे जातियों की तरह अन्योन्याश्रित नहीं होते और उनका भूमि के साथ प्रत्यक्ष संबंध होता है। 

भारतीय संदर्भ में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयुक्त ने वर्ष 1952 की रिपोर्ट में कुछ सामान्य एवं विशिष्ट अभिलक्षणों की सूची दी है। ये अभिलक्षण हैं- (i) जनजातीय लोग सभ्य दुनिया से दूर वन और पहाड़ों जैसे दुर्गम क्षेत्रों में रहते हैं, (ii) ये लोग नीग्रेटो, ऑस्ट्रेलॉयड या मंगोलॉयड परिवारों में से किसी एक से हैं, (iii) वे एक जनजातीय बोली बोलते हैं, (iv) वे 'जीववाद' जीवत्वारोपणवादी आदिम धर्म को मानते हैं। इस धर्म में भूत-प्रेतों की पूजा का विशेष महत्त्व होता है, (v) वे अनाज बीनना, शिकार करना, वन उत्पादों का संग्रह करना आदि 'आदिम' पेशों में संलग्न रहते हैं और (vi) सामान्य रूप से ये जनजातीय लोग मांसाहारी होते हैं। इसमें एक बात और जोड़ सकते हैं कि उन्हें खाने और पीने का शौक होता है। 

उपर्युक्त अभिलक्षणों के बारे में टिप्पणी करते हुए ए. आर. देसाई कहते हैं कि जिन 2 करोड 50 लाख लोगों को जनजातियों के अंतर्गत वर्णित किया गया है उनमें से केवल 50 लाख लोगों में ही ये अभिलक्षण पाए जाते हैं। डी. एन. मजूमदार के अनुसार पूर्वी भारत की जनजातियों को छोड़कर अन्यत्र सभी जगह इस उपमहाद्वीप में विभिन्न नृजातीय अंश मिले हुए हैं। इस प्रकार निश्चित रूप से यह कहना बड़ा मुश्किल है कि जनजाति कौन हैं और गैर- जनजाति कौन हैं। 

मजूमदार के अनुसार पूरे भारत में बिखरे हुए जनजातीय लोगों में पाई जाने वाली सामाजिक और सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद उनके सामाजिक जीवन में नातेदारी ही संगठन की प्रमुख इकाई है। प्रायः इन इकाइयों का ही भूस्वामित्व, आर्थिक उत्पादन और खपत के मामलों में महत्त्व होता है। अतः कुछ विभिन्नताओं के बावजूद इनमें कुछ सामान्य अभिलक्षण भी अवश्य पाए जाते हैं । 

आज निर्वहन अर्थव्यवस्था में बहुत कम ही जनजातीय समूह शिकार और खाद्यान्न संग्रह की आजीविका पर निर्भर हैं, उनमें से अधिकांश लोग झूम खेती या कृषि करते हैं और कुछ अन्य जनजातीय लोग पशुचारक खानाबदोश हैं। सामान्य रूप से जनजातीय 

लोग पैसे के लेन-देन का धंधा नहीं करते। इस प्रकार जनजातीय समाज सामान्यतः सजातीय समाज हैं, उनमें सोपानक्रम का कोई महत्व नहीं है। 

राजनीतिक दृष्टि से, जनजातीय समाज अपेक्षाकृत सरल और समतावादी होते हैं। वंश परंपरा, कुल-गोत्र और नातेदारी राजनीतिक संगठनों को अधिव्याप्त कर लेते हैं। जनजातीय धर्म कम व्यवस्थित, कम ही विशेषीकृत और कम विस्तार वाला होता है। 

भारतीय जनजातियों पर यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो हम पाते हैं कि विभिन्न जनजातीय समूहों में न केवल विविधताएँ विद्यमान हैं, बल्कि कई लक्षण ऐसे हैं जो जाति एवं जनजाति समुदायों में सामान्य है ऐसी स्थिति में भारतीय जनजातीय समुदाय की स्पष्ट परिभाषा करना एक कठिन कार्य है। भारतीय संविधान में भी जनजाति की परिभाषा नहीं की गयी हैं और उन्हें एक ऐसे पिछड़े समुदाय के रूप में देखा जाता है जिसको राष्ट्रपति अनुच्छेद 342 के आधार पर अधिसूचित करता है। इस आधार पर भारतीय संविधान में अब तक 533 समुदायों को अधिसूचित किया गया है और उन्हें अनुसूचित जनजाति कहा गया है। 

जाति व जनजाति में अन्तर लिखिए। 

जाति व जनजाति में अन्तर

जाति और जनजाति आदिम समुदायों में जनजाति और हिन्दू समाज में जाति महत्वपूर्ण सामाजिक समूह हैं । जाति एवं जनजाति (जाति हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत एक प्रदत्त सदस्यता वाला अन्तर्विवाही सोपानिक समूह है जिसका एक निश्चित पेशा होता है जो कुछ सामाजिक सहवास एवं खान-पान संबंधी निषेधों का पालन करता है और जिनको कुछ निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं) दोनों के अर्थों के सम्बन्ध में काफी भ्रम रहा है। कभी-कभी जाति और जनजाति का प्रयोग पर्यायवाची रूप में किया गया है। बहुत-सी जनजातियों को जाति और जातियों को जनजातियाँ कहा गया है। फिर भी, दोनों में कुछ मूलभूत अंतर पाये जाते हैं। 

जाति तथा जनजाति में अन्तर- 

वास्तविकता के धरातल पर भारतीय सामाजिक संरचना के निर्णायक अंग के रूप में और कुछ सामान्य अभिलक्षणों की समरूपता के बावजूद जाति एवं जनजाति पृथक् संकल्पनाएँ हैं अत: इनमें अन्तर जान लेना समीचीन है। 

1. जाति के लोगों का अधिकांशतः एक ही व्यवसाय होता है जबकि एक ही जनजाति के लोग अलग-अलग व्यवसाय करते हैं। जनजातियों में जाति की तुलना में आर्थिक स्वतंत्रता अधिक पायी जाती है, यद्यपि देश में अनेक ऐसी जनजातियाँ भी हैं जो एक ही व्यवसाय में लगी हुई हैं और विभिन्न आवश्यक वस्तुओं के लिए अन्य जनजातियों पर निर्भर हैं। फिर भी पेशे के अप्रतिबन्धित चयन का अभाव एवं जजमानी प्रथा अवधारणात्मक स्तर पर केवल जाति के साथ संयुक्त हैं। 

2. प्रत्येक जनजाति का अपना एक विशिष्ट राजनीतिक संगठन होता है लेकिन जाति का इस प्रकार का कोई स्पष्ट राजनीतिक संगठन नहीं पाया जाता यद्यपि कभी-कभी नीची समझी जाने वाली जातियों की पंचायतें अपनी-अपनी जातियों के लिए राजनीतिक संगठन के रूप में कार्य करती हैं। 3. एक जाति बहुत-सी उपजातियों से मिलकर बनती हैं परन्तु एक जनजाति में उपजतियाँ नहीं पायी जाती हैं। मैक्स वेबर के अनुसार जहाँ एक जनजाति में पद और प्रस्थिति के भेद पाये जाते हैं, वहीं एक जाति के सभी सदस्यों का पद एकसमान होता है। 

4. जाति किसी काल्पनिक पूर्वज से अपनी उत्पत्ति नहीं मानती जबकि जनजातियाँ विभिन्न कल्पनाओं को ही अपनी उत्पत्ति का आधार मानती हैं। 

5. जनजातियों के अपने विशिष्ट धार्मिक विश्वास, देवी-देवता और विधि-संस्कार रहे हैं परन्तु हिन्दुओं से सम्पर्क के कारण ये हिन्दू कर्मकाण्डों का अनुसरण कर उनके देवी देवताओं को भी पूजती रही हैं और हिन्दू पुरोहितों की सेवाएँ भी प्राप्त करती रही हैं। प्रत्येक जनजाति का अपना धर्म और देवी-देवता रहे हैं जबकि जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति का अपना कोई पृथक् धर्म और देवी- देवता नहीं पाया जाता है। 

जनजातियों के विकास के बारे में किए जा रहे प्रयासों का वर्णन कीजिए। 

जनजातीय विकास-

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार द्वारा जनजातीय विकास हेतु एकीकरण की नीति अपनाई गई जिसका उद्देश्य था कि जनजातियों को उनकी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने की स्वतंत्रता देते हुए उन्हें राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा में शामिल किया जाए ताकि भारतीय जनजातियों का विविधता में एकता बनाए रखते हुए विकास सुनिश्चित किया जा सके। 

इस संदर्भ में जनजातीय विकास हेतु दो तरह से प्रयास किए गए— 

1. संवैधानिक प्रयास 

2. विकास कार्यक्रमों के माध्यम से प्रयास । 

संवैधानिक प्रयास- 

यह एक सामान्य तथ्य है कि भारत की विविधता में जनजातीय संस्कृति, क्षेत्र तथा इतिहास का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनजातियों की इन विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए, उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिये निम्नांकित संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं- 

1. आजादी के बाद जनजातियों को एक पिछड़े समूह के रूप में स्वीकार किया गया और उनका राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार संविधान की अनुसूची में रखकर उनके विकास हेतु विशेष प्रयास किया गया। 

2. अनुच्छेद-15, 16, 19 के द्वारा उन्हें गैर जनजातीय लोगों के समकक्ष लाने और उनके हितों की रक्षा एवं विकास का विशेष प्रावधान किया गया है। 3. अनुच्छेद- 46 के द्वारा उनके शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों की रक्षा हेतु राज्य द्वारा विशेष प्रयास करने का प्रावधान किया गया। 

4. अनुच्छेद-244 के माध्यम से जनजातीय आबादी की बहुलता वाले क्षेत्रों को 5वीं अनुसूची के अंतर्गत अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने का प्रवधान किया गया ताकि इन क्षेत्रों के विकास हेतु विशेष प्रयास किया जा सके। 

5. जनजातीय बहुल राज्यों को 6वीं अनुसूची में शामिल कर उनको जनजातीय क्षेत्र घोषित किया गया और इनके विकास हेतु विशेष प्रावधान किया गया, (असम, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा) । 

6. अनुच्छेद- 164 के तहत जनजातीय बहुल राज्यों में जनजातीय कल्याण हेतु एक प्रभारी मंत्री का प्रावधान किया गया जो इनकी समस्याओं और विकास के संदर्भ में नीति निर्माण कर सके। 

7. अनुच्छेद-330, 332 के द्वारा जनजातियों के सदस्यों के लिए क्रमशः लोकसभा व विधानसभा में आरक्षण का प्रावधान किया गया जिससे देश में इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके । 

8. अनुच्छेद-335 के द्वारा सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया जिससे लोक सेवाओं में इनकी उपस्थिति को सुनिश्चित किया जा सके। 

9. अनुच्छेद- 338 के द्वारा इनके लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान किया गया जो जनजातियों के विकास के साथ जनजातीय समस्याओं का पर्यवेक्षण कर उनको दूर करने का प्रयास करता है। 

10. अनुच्छेद- 339 (1) के द्वारा राष्ट्रपति को अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन का रिपोर्ट लेने के लिए आयोग नियुक्त करने अधिकार दिया गया। 

उपरोक्त के अलावा अनुच्छेद 275 (1), 339 (2) आदि के माध्यम से भी अनुसूचित जनजातियों के सुरक्षा एवं विकास को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया ।

विकास कार्यक्रमों के माध्यम से प्रयास- 

जनजातियों के विकास और उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिये संवैधानिक प्रावधानों के साथ ही सरकार ने विभिन्न विकास कार्यक्रमों को आत्मसात् किया ताकि जनजातीय विकास के लक्ष्य को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त किया जा सके। ऐसे कार्यक्रमों में से कुछ इस प्रकार हैं- 

1. 1954 में ग्रामीण सामुदायिक विकास हेतु 43 विशेष बहुउद्देशीय कार्यक्रमों को समता एवं स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के अन्तर्गत जनजातीय परिवारों के लिए पांच वर्षों के लिए आरंभ किया गया। 

2. 1957 में इन योजनाओं को आदिवासी विकास खण्डों के 'अल्प गहन मॉडल' या 'गहन विकास मॉडल' के द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। 

3. 1961 के ढेबर आयोग की सिफारिश पर 'आदिवासी विकास खण्ड' को विकास के माध्यम की इकाई माना गया और इस योजना में जनजातियों की 40% आबादी को समाहित करते हुए इसको लगभग 500 खण्डों में समाहित किया गया। 

4. सिलुआवो समिति की सिफारिश के अनुसार 4 राज्यों में जनजातीय विकास एजेंसियों को प्रारंभिक योजनाओं के रूप में शुरू किया गया। 

5. जनजातीय क्षेत्र विकास कृषक बल, 1974-75 द्वारा प्रस्तुत जनजातीय उपयोजना कार्यक्रम को 17 राज्यों तथा 2 संघ शासित क्षेत्रों के कुछ पहचाने गए क्षेत्रों में लागू किया गया। 

जनजातीय उपयोजना कार्यक्रम, कृषि, भूमि सुधार, सिंचाई, खेती के उन्नत तरीकों, भू-अभिलेखों को पूरा करने को उच्च प्राथमिकता देने, बागवानी, पशुपालन एवं संबंधित व्यवसायों के क्षेत्र में उपलब्ध मानवशक्ति की बेहतर उपयोगिता के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने, स्थानीय रोजगार पर आधारित कुटीर उद्योगों का विकास करने तथा सामाजिक आर्थिक विकास को गति प्रदान करने के लिए वैधानिक, संस्थागत एवं भौतिक क्षेत्रों सहित मूल ढांचे के विकास का प्रयास किया गया। साथ ही उनमें सभी प्रकार के शोषण को समाप्त करने के लिए योजनाबद्ध प्रयास किए गए। 

उपरोक्त के अलावा शिक्षा, कोचिंग, परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण, पुस्तक बैंक, निशुल्क छात्रावास आदि विशेष कल्याणकारी प्रावधान किया गया है। 

मूल्यांकन- 

जनजातीय विकास हेतु किए गए उपरोक्त प्रयासों के परिणामस्वरूप जनजातीय समुदाय की स्थिति में काफी सुधार हुआ है; जैसे- 

1. जनजातीय समुदाय के शिक्षा के स्तर में वृद्धि हुई है। मीणा, गारो, खासी आदि 

जनजातियों में शिक्षा का प्रतिशत काफी ऊँचा पहुँच गया है। 

2. आज विभिन्न जनजातियाँ आरक्षण का लाभ प्राप्त करके विभिन्न पदों पर कार्य कर रही हैं जिससे उनकी आर्थिक स्थिति के साथ-साथ सामाजिक स्थिति में भी सुधार हुआ है। 

3. विभिन्न जनजातीय समुदाय के लोगों की राजनीतिक सत्ता में सहभागिता 

सुनिश्चित हुई है। राजनीतिक सहभागिता से वह अपनी समस्याएँ ठीक ढंग से रख पाने और राष्ट्रीय विकास की धारा में अपने को जोड़ पाने में सक्षम हुए हैं। 

4. जनजातीय समुदाय के लोगों के जीवनस्तर में सुधार हुआ है। आर्थिक समृद्धि एवं राजनीतिक सशक्तिकरण के कारण उनकी जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है। 

5. आज जनजातीय समुदाय के लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक है, वे लोकनिर्णयन को कुशलता से अपने पक्ष में प्रभावित कर रहें हैं और सत्ता के विकेन्द्रीकरण का लाभ उठा रहे हैं। 

परन्तु, उपरोक्त उपलब्धियों को पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। अगर इन उपलब्धियों पर गौर किया जाए तो यह न केवल अपेक्षा से बहुत कम हैं बल्कि असंतुलित विकास को परिलक्षित कर रही हैं, जैसे- 

1. आज भी जनजातियों में शिक्षा का स्तर अन्य समूहों की तुलना में बहुत ही निम्न है। बहुत सी जनजातियों में शिक्षा का स्तर अप्रत्याशित रूप से कम है। 

2. सरकारी नौकरियों एवं राजनीतिक क्षेत्रों में आज भी इनका प्रतिनिधित्व कम है जिसके कारण मुख्य राष्ट्रीय धारा के साथ इनका एकीककरण संतोषजनक नहीं हो सकता है। 

3. आज भी इनमें जागरूकता का अभाव तथा सभी क्षेत्रों में पिछड़ापन विद्यमान है फलत: इनका साहूकारों द्वारा शोषण जारी है। इनकी जमीन गैर-आदिवासी लोगों की ओर हस्तांतरित हो रही है। ये लोग विकास कार्यक्रमों का पूरा लाभ उठा नहीं पाते हैं और प्राप्त राजनीतिक अधिकारों का समुचित उपयोग भी नहीं कर पाते हैं। 

4. आदिवासी क्षेत्रों में जो विकास हुआ है उसका लाभ कुछ क्षेत्रों की जनजातियों ( मीणा आदि) द्वारा अधिक प्राप्त किया गया है जबकि आज भी कई जनजातियां जंगली जीवन व्यतीत कर रही हैं और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति अत्यंत पिछड़ी हुई हैं, जैसे-बैगा, चेंचू, कादर आदि । 

5. लाभ प्राप्त करने वाली जनजातियों में भी उन्हीं व्यक्तियों ने लाभ प्राप्त किया है जो समृद्ध, शक्तिशाली व अपेक्षाकृत समर्थ हैं जबकि उस समुदाय का एक बड़ा भाग पिछड़ा हुआ है एवं विकास कार्यक्रम से वंचित है । 

6. विकास की अधिकांश योजनाएँ केन्द्र द्वारा बनायी गयी हैं जिससे वहां की क्षेत्रीय समस्याओं का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाया अतः विकास कार्यक्रम पूर्णत: सफल नहीं हो सके। 

जनजातीय विकास से सम्बन्धित उपरोक्त विसंगतियों के लिए प्रमुखतः निम्न कारक उत्तरदायी रहे हैं- 

1. जनजातियों की सुरक्षा एवं विकास हेतु उठाए जाने वाले कदमों के संदर्भ में संघ सरकार की एवं राज्य सरकार की नीति अधिक प्रभावी नहीं रही है। इसका एक प्रमुख कारण दोनों में तालमेल का अभाव रहा है। 

2. 5वीं अनुसूची में निहित प्रावधान पूर्णतया उपयुक्त नहीं रहे हैं। 

3. कई संवैधानिक प्रावधानों का व्यावहारिक रूप से लागू किया जाना संभव नहीं हो पाया है। 

4. जनजातीय उपयोजना को प्रशासन तंत्र में प्रशासनिक इच्छा शक्ति की कमी के कारण अपेक्षित सफलता नहीं मिल पायी। 

5. जनजातीय विकास की प्रक्रिया में जनजातियों की सहभागिता को नकारा गया है जिससे नीतियों एवं कार्यक्रमों के निर्धारण के संबंध में गलत प्राथमिकताओं का निर्धारण किया गया है। 

6. प्रशासनिक ढांचे में एकरूपता का अभाव, संरचनात्मक सुविधाओं का अभाव, जनजातीय नेतृत्व की कमी आदि कारणों से भी जनजातीय विकास दुष्प्रभावित हुआ है। 

7. जनजातियों में विद्यमान परम्परागत मान्यताएँ एवं रूढ़ियाँ तथा शिक्षा एवं जागरूकता का अभाव उनके विकास में बाधक रहा है। 

स्पष्ट है कि जनजातीय विकास आज भी अपने अपेक्षित लक्ष्य से दूर एवं असंतुलन से परिपूर्ण है, विकास का लाभ अगर मिला भी है तो इसने एक ऐसे अभिजन वर्ग को उत्पन्न किया है जो आज मिलने वाले सभी लाभों को हड़प रहा है और जनजातीय समुदाय का बहुत बड़ा भाग वंचित है। परिणामस्वरूप जनजातियों में असंतोष उत्पन्न हुआ है जिसकी परिणति स्वायत्तता की मांग के अलावा अलगाववाद, क्षेत्रवाद और नक्सलवाद के रूप में हो रही है। अतः आज भारतीय समाज में विविधता में एकता बनाए रखने और समानुपातिक लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु आवश्यक है कि जनजातीय समुदाय का सामाजिक विकास कर उनको राष्ट्र की मुख्य धारा में एकीकृत किया जाए, जिसके लिए निम्न सुझावों को ध्यान में रखा जा सकता है- 

1. जनजातीय उपयोजना को राज्य सरकार की योजना से अलग किया जाए और प्रत्येक क्षेत्र में अलग से आदिवासी योजनाओं को लागू करने का प्रयास किया जाए। 

2. जनजातीय उपयोजना के लिए निर्धारित धनराशि का अलग से उपयोग किया जाए और इस राशि का आवंटन क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखते हुए किया जाए। 

3. प्रत्येक एकीकृत योजना के लिए योजना एवं कार्यक्रमों के निष्पादन के लिए एक प्रणाली प्रशासन लागू किया जाए। 

4. योजनाओं का निर्धारण जनजातियों की स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाए। 

5. विभिन्न विकास कार्यक्रमों में स्थानीय जनजातियों की अधिकाधिक सहभागिता को सुनिश्चित किया जाय । 

6. जनजातीय क्षेत्रों में संरचनात्मक सुविधाओं का विकास किया जाए। 

7. विकास का एक ऐसा मॉडल विकसित किया जाय, जिससे विकास कार्यक्रमों का लाभ वास्तविक रूप से जरूरतमंद लोगों तक पहुँच सके। 

8. विकास की प्रक्रिया में स्वयंसेवी संस्थाओं को अधिकाधिक संबद्ध किया जाए। 

9. जनजातियों को शिक्षित एवं जागरूक किया जाए ताकि वे सुविधाओं और विकास कार्यक्रमों का लाभ उठाने में सक्षम हो सकें। 

भारत में जनजातियों को समानता देने के लिए कौन से साधन और उपाय अपनाए गए हैं? 

भारत में जनजातियों को समानता देने के लिए साधन और उपाय 

भारत में जनजातीय जनसंख्या व्यापक रूप से फैली हुई है। कुछ क्षेत्रों में इनकी आबादी काफी धनी है। 85 प्रतिशत जनजातीय जनसंख्या मध्य भारत में ही निवास करती हैं। 11 प्रतिशत से अधिक पूर्वोत्तर राज्यों में और बाकी के 3 प्रतिशत से थोड़ा अधिक शेष भारत में रहते हैं। चूँकि ये जनजातियाँ प्राचीन समय से सघन वन, दुर्लभ जगहों पर निवासित हैं। अतः इनका विकास सामान्य जनों की तुलना में कम है किन्तु देश के विकास में समस्त जनसंख्या का उन्नति करना आवश्यक है । अतएव जनजातीय समुदाय का विकास करना एवं देश के मुख्य धारा में जोड़ना जरूरी है अत: इन जनजातियों को समानता देने के लिए भारत में कई साधनों एवं उपायों को अपनाया गया है जो निम्नलिखित हैं- 

(i) जनजाति समुदाय के शिक्षा हेतु कई महत्त्वपूर्ण उपाय अपनाये गए हैं; जैसे- शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण तथा नामांकन हेतु आवश्यक शर्तों में छूट दी जाती है। उनको छात्रवृत्ति प्रदान करना आदि। 

(ii) धन-सम्पत्ति में जनजातीय समुदाय के हितों की सुरक्षा करना । 

(iii) विभिन्न प्रकार के नौकरियों में पदों पर आरक्षण करना । 

(iv) जनजातीय समुदाय हेतु विभिन्न प्रकार के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक डितों के लिए राज्यों द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करना। 

(v) जनजातियों के सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक अन्याय एवं शोषण से सुरक्षा हेतु राज्यों के द्वारा दिए गए, नीति निर्देश का पालन करना। 

(vi) जनजातियों की जमीन पर पारम्परिक अधिकारों की मान्यता एवं भूमि अलगाव से वैधानिक सुरक्षा प्रदान करना। 

(vii) लोकसभा, राज्यसभा एवं पंचायती राज में इन समुदायों के लोगों का आरक्षण करना। 

अतः जनजातीय समुदाय के समानता हेतु उन्हें विशेष सुविधा देकर देश के मुख्य धारा में जोड़कर उनका सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक विकास किया जा सकता है जिससे देश का विकास भी संभव है। 

जनजातियों के विकास हेतु वर्तमान में सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास

सरकार द्वारा किए गए प्रयास – जनजातियों में व्याप्त अशिक्षा की गंभीर समस्या के निवारण के लिये संवैधानिक प्रावधानों के साथ ही सरकार द्वारा विभिन्न कार्यक्रम भी चलाये गये हैं जो इस प्रकार हैं- 

1. अनुच्छेद 15 ( 4 ), और अनुच्छेद 46 के द्वारा इनको समानता के अधिकार के साथ ही संविधान द्वारा इनके सामाजिक शैक्षिक विकास हेतु प्रयास की राज्य से अपेक्षा की गयी है। 

2. शैक्षिक संस्थाओं में 75% आरक्षण प्रदान कर जनजातियों की साक्षरता एवं उच्च शिक्षा को सुनिश्चित करने का संविधान द्वारा प्रयास किया गया है। 

3. अनेक प्रकार की छात्रवृत्तियों का आवंटन सरकार द्वारा जनजातीय विद्यार्थियों के लिए किया जाता है जिससे वे शिक्षा हेतु प्रेरित एवं प्रोत्साहित हो सकें। 

4. नवोदय विद्यालयों में नई शिक्षा नीति के तहत जनजातीय विद्यार्थियों को विशेष सुविधा प्रदान की जाती है साथ ही जनजातीय बहुल इलाकों में एकलव्य विद्यालय जैसे आवासीय स्कूलों की स्थापना की गई है। 

5. जनजातीय बहुल क्षेत्रों में गैर- औपचारिक शिक्षा केन्द्र या प्रौद्योगिक शिक्षा केन्द्र की स्थापना के द्वारा जनजातियों में शिक्षा बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। 

6. 1992 की संशोधित शिक्षा नीति के तहत जनजातियों हेतु अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं- 

(i) दोपहर भोजन योजना 

(ii) मुफ्त पाठ्य सामग्री, यूनिफार्म आदि का आवंटन 

(iii) 200 की आबादी वाले क्षेत्रों में जे. के. एम. के दायरे में स्कूलों की स्थापना का प्रावधान । 

(iv) सर्वशिक्षा अभियान । 

7. 14 वर्ष तक के सभी बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल करना भी जनजातीय शिक्षा बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जा रहा है। 

8. कस्तूरबा गांधी स्वतंत्र विद्यालय योजना एवं शिक्षाकर्मी परियोजना के माध्यम से जनजातीय शिक्षा बढ़ाने के विशिष्ट प्रयास किए जा रहे हैं। 

9. NGOs एवं इसाई मिशनरियों द्वारा किए गए प्रयासों द्वारा भी जनजातीय क्षेत्रों में शैक्षिक कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है। 

मूल्यांकन- 

स्पष्ट है कि अशिक्षा जनजातियों की प्रमुख समस्या रही है और इसको दूर करने हेतु कई रूपों में प्रयास किए गए हैं और किए जा रहे हैं जो निश्चित तौर पर उपलब्धिपरक रहे हैं। आजादी के बाद से आज तक साक्षरता दर में वृद्धि हुई है और अनेक जनजातीय समुदाय आज सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गैर-जनजातियों के समानांतर आ चुके हैं, जैसे मीणा, खासी आदि । परन्तु आज भी कई जनजातियों में (जैसे- बैगा, बिरहोर, आदि में) साक्षारता की दर लगभग 35% या इससे भी कम है जिसके लिए मुख्यत: निम्न कारक उत्तरदायी रहे हैं- 

1. जनजातीय संस्कृति एवं उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति उनके शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में बाधक है। 

2. उनको शिक्षा, उनकी मातृभाषा में नहीं दी जा सकी है। 

3. शिक्षकों की अनुपस्थिति एवं उदासीनता तथा औपचारिक पाठ्यक्रम भी उनको इस दिशा में अभिप्रेरित करने में बाधक है। 

4. विभागीय भ्रष्टाचार प्रदान की गई सुविधाओं को अपेक्षित व्यक्ति तक पहुँचाने में बाधक रहा है। 

5. जनजातीय समुदाय के मलाईदार परत ( क्रीमी लेयर) के लोगों द्वारा तमाम लाभों को हड़प लिया गया है और नीचे वाला वर्ग आज भी वंचित है। 

अतः उपरोक्त कमियों को दूर करके ही जनजातियों में अशिक्षा की समस्या का समाधान संभव है और उन्हें विकास की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है और इस हेतु निम्न सुझावों पर अमल आवश्यक प्रतीत होता है- 

1. ऐसा पाठ्यक्रम हो जो जनजातीय परंपराओं, स्थानीय आवश्यकताओं तथा राष्ट्रीय शिक्षा योजना में संतुलन स्थापित कर सके तथा रुचिकर होने के साथ- साथ रोजगार प्रदान करे। 

2. पर्याप्त शैक्षिक संस्थाएँ एवं शिक्षकों की व्यवस्था की जाए तथा ऐसे शिक्षकों का चयन किया जाए जिन्हें जनजातीय भाषा का ज्ञान हो। 

3. शिक्षा के प्रति अभिभावकों में जागरूकता विकसित की जाए। 0

4. योजनाएं ऐसी हों जिससे शिक्षक एवं माता-पिता के मध्य संबंध स्थापित हो सकैं और इन योजनाओं का अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सके। 

5. जनजातीय शिक्षा को एक सामाजिक आंदोलन का स्वरूप दिया जाये और इस कार्य में स्वयंसेवी संस्थाओं, युवाओं एवं छात्राओं की अधिकतम सहभागिता सुनिश्चित की जाए। (इस हेतु उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में जनजातीय क्षेत्रों में प्राथमिक एवं पूर्व माध्यमिक शिक्षा प्रदान करना, आवश्यक प्रायोगिक विषय के रूप में शामिल किया जा सकता है)। 

जातियों और जनजातियों के प्रति भेदभाव मिटाने के लिए सरकार द्वारा लिए गए निर्णय

स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही भारत सरकार अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए अनेक विशेष कार्यक्रम चलाती रही है। ब्रिटिश भारत की सरकार ने 1935 में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की अनुसूचियाँ तैयार की थीं जिनमें उन जातियों तथा जनजातियों के नाम दिए गए थे जिन्हें उनके विरुद्ध बड़े पैमाने पर बरते जा रहे भेदभाव के कारण विशेष व्यवहार का पात्र माना गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन नीतियों को तो जारी रखा ही गया, उसमें कई नई नीतियाँ भी जोड़ दी गई। इनमें सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन यह किया गया कि 1990 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों से अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी कुछ विशेष कार्यक्रम जोड़ दिए गए हैं। इन वंचित समूहों के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम की विवेचना निम्न प्रकार से है- 

अनुसूचित जाति के लिए संवैधानिक प्रावधान — संविधान में अनुसूचित जातियों को सुरक्षा और विशेष सुविधाएँ देने का प्रावधान है। सरकार अनुसूचित जाति के लिए एक आयुक्त नियुक्त कर उनकी शिकायतों और प्रतिकूल स्थिति का जायजा लेती है। अनुसूचित जातियों के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए उपाय निम्नलिखित हैं- 

(1) अस्पृश्यता का उन्मूलन, (2) सामाजिक अन्याय और विभिन्न प्रकार के शोषण से सुरक्षा, (3) जन साधारण के लिए स्थित धार्मिक संस्थानों को अनुसूचित जातियों के लिए सुलभ करवाना। (4) कुएँ, तालाबों, दुकानों, रेस्तराँ और सड़कों आदि पर अनुसूचित जातियों के जाने पर लगे प्रतिबंधों को हटाना। (5) शैक्षणिक संस्थानों में नामांकन के लिए विशेष सुविधा देना। (6) शिक्षा के लिए विशेष लाभ और आर्थिक सहयोग उपलब्ध करवाना। (7) सरकारी सेवाओं में भर्ती व पदोन्नति में विशेष प्रावधान, (8) लोकसभा व विधानसभाओं तथा पंचायती राज संस्थाओं में विशेष प्रतिनिधित्व का प्रावधान, (9) उनके कल्याण तथा हितों को सुरक्षित करने के लिए एक अलग विभाग एवं सलाहकार परिषद् के गठन का प्रावधान। 

अनुसूचित जनजातियों के लिए संवैधानिक प्रावधान - 

( 1 ) जनजातियों की शिक्षा के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। इसके अन्तर्गत शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण तथा नामांकन हेतु आवश्यक शर्तों में छूट, छात्रवृत्ति आदि आते हैं। (2) नौकरियों में पदों का आरक्षण, (3) संपत्ति में जनजातीय हितों की सुरक्षा, (4) जनजातियों के आर्थिक व शैक्षणिक हितों में सहयोग और सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से सुरक्षा के निर्देश राज्यों को दिए गए हैं। (5) लोकसभा, राज्यसभा तथा पंचायती राज संस्थानों में स्थानों का आरक्षण । (6) भूमि पर पारम्परिक अधिकारों की मान्यता एवं भूमि अलगाव से वैधानिक सुरक्षा । राष्ट्रपति कभी भी आयोग का गठन कर अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन एवं राज्यों में अनुसूचित जनजाति के कल्याण का जायजा ले सकते हैं। 

पिछड़े समुदाय का विकास

भारत के संविधान में इन सम्भावना को स्वीकार किया गया है कि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के अलावा और भी कई समूह हो सकते हैं जो सामाजिक असुविधाओं से पीड़ित हैं। ऐसे समूहों को जाति पर आधारित होना आवश्यक नहीं है। लेकिन वे किसी जाति के नाम पर पहचाने जाते हैं। इन समूहों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग कहा जाता हैं। 

देश में यह आवश्यकता महसूस की गई कि एक ऐसा वर्ग जो शिक्षा एवं अन्य सुविधाओं से वंचित रह जाएगा तो राष्ट्र का विकास सम्भव नहीं है। अतः पिछड़े समुदाय के विकास हेतु राष्ट्रीय तौर पर शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में योजनाबद्ध प्रयास किये गये हैं । इस हेतु अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक विकास का प्रमुख लक्ष्य है— उनके शिक्षा के सभी स्तरों पर गैर अनुसूचित जाति एवं जनजातियों की जनसंख्या के साथ बराबरी में प्रयास करना, अनुसूचित जाति व जनजाति के 6 से 11 वर्ष के आयु वर्ग के सभी बच्चों का स्कूलों में दाखिला करना एवं स्कूल में उनके बने रहने की स्थिति को सुनिश्चित किया गया है। पिछड़े वर्ग के निर्धन परिवारों के छात्रों को छात्रवृत्ति भोजन, वस्त्र आदि प्रदान करना। उनको दी जाने वाली छात्रवृत्ति को मासिक रूप से ठीक समय पर भुगतान करना, पोस्ट मैट्रिक ॠण छात्रवृत्तियाँ प्रदान कर उसके शैक्षिक विकास पर योगदान किया जा रहा है। इसके अलावा अधिक-से- अधिक बच्चे स्कूलों में आये इस हेतु यूनीफार्म, लेखन सामग्री, पुस्तकें आदि की 

सहायता प्रदान की जा रही हैं ऐसे परिवार जो सफाई, चर्मशोधन जैसे व्यवसाय से जुड़े हैं। उन बालकों को अतिरिक्त आर्थिक सहायता प्रदान कर उनका विकास किया जा रहा है। पिछड़े वर्ग के विकास हेतु छात्रों को मध्याह्न भोजन प्रदान किया जा रहा है। इन वर्गों के लोगों को विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में 'आश्रम स्कूलों' की व्यवस्था की जा रही है। 

पिछड़े वर्ग के उन्नयन हेतु नौकरी में आरक्षण, महिलाओं की नौकरी की आयु सीमा में छूट दी जा रही है। राजनैतिक क्षेत्रों में भी अनुसूचित जनजाति एवं जाति के सशक्तिकरण हेतु आरक्षण दिया गया है; जैसे— पंचायत, लोकसभा, विधानसभा आदि । अतएव देखा गया है कि पिछड़े वर्ग के विकास हेतु सरकार की बहुत योजनाएँ एवं प्रयास जारी है। जिससे वे भी देश के विकास हेतु अपना योगदान दे सकें और उनके साथ जो असमानता का भेदभाव किया जाता है वह भी दूर हो सके और वे राष्ट्र के विकास के मुख्य धारा से जुड़ सकें । 

महत्वपूर्ण प्रश्न - उत्तर

प्रश्न 1. शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती क्या है? 

उत्तर- समाज में विषमता है। आजकल की शिक्षा व्यवस्था लिंग, गरीबी, धर्म आदि भेदभावों से प्रभावित होती है। शिक्षा किस प्रकार सामाजिक समानता का सन्देश देती है। यह शिक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। 

प्रश्न 2. विद्यालय का समाज से क्या सम्बन्ध है? 

उत्तर- विद्यालय का समाज से घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि समाज के बालक ही विद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर समाज में सुधार प्रक्रिया को विकसित करते हैं। 

प्रश्न 3. गोत्र किसे कहते हैं? 

उत्तर—गोत्र जाति का वह उपभाग है, जो अपने समूह (गोत्र) से बाहर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने वाला है। व्यक्ति अपनी ही जाति में अपने गोत्र से बाहर शादी करता है । 

प्रश्न 4. परिवारों की वंशावली रखने वालों का क्या कहा जाता है? 

उत्तर— भाट या जागा । 

प्रश्न 5. हिन्दू समाज में कितने वर्ण हैं? 

उत्तर - हिन्दू समाज में कार्य व्यवस्था के आधार पर चार वर्ण बनाए गए हैं- (1) ब्राह्मण (2) क्षत्रिय (3) वैश्य और (4) शूद्र । 

प्रश्न 6. बहुसंख्यक लोगों को शिक्षा से जोड़ने के लिए क्या आवश्यक है ? 

उत्तर- बहुसंख्यक लोगों को शिक्षा से जोड़ने के लिए विद्यालयों का सशक्तिकरण करना जरूरी है। विद्यालय का दायित्व है कि वे समाज के लोगों से करीबी से जुड़ें और एक श्रेष्ठ समाज व राष्ट्र के आदर्शों को साकार करने की कोशिश करें। 

प्रश्न 7. समाज में सबसे ज्यादा श्रेष्ठ किस वर्ण को माना गया था? उत्तर - समाज में सबसे ज्यादा श्रेष्ठ ब्राह्मण वर्ण को माना गया है। प्रश्न 8. क्षत्रिय वर्ण का मुख्य कार्य क्या था ? 

उत्तर—देश की रक्षा, प्रशासन और शासन कार्य क्षत्रिय वर्ण करता था । 

प्रश्न 9. वैश्यों का कार्य क्या था? 

उत्तर- व्यापार, वाणिज्य और कृषि कार्य अधिकतर वैश्य वर्ण वाले करते थे। प्रश्न 10. शूद्रों का कार्य क्या था ? 

उत्तर- उक्त तीन वर्णों की सेवा करना शूद्रों का कार्य था। 

प्रश्न 11. जाति की दो विशेषताएँ लिखिए। 

उत्तर- (i) जाति जन्मजात होती है। मृत्यु तक उसकी वही जाति रहती है। (ii) कुछ जातियाँ उच्च तथा कुछ निम्न स्तरीय जाति समुदाय में मानी जाती है। प्रश्न 12. अनुलोम विवाह किसे कहते हैं? 

उत्तर- जब उच्च वर्गीय व्यक्ति निम्न वर्गीय जाति से विवाह संबंध स्थापित कर लेता है, तो इस व्यवस्था को अनुलोम विवाह कहते हैं। 

प्रश्न 13. हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में जाति व्यवस्था किस प्रकार है? उत्तर- सिक्खों, मुसलमानों तथा ईसाइयों में भी जाति व्यवस्था का प्रभाव पाया जाता है। सिक्खों में मजहबी सिक्ख, जाट सिक्ख व खत्री सिक्ख आदि हैं। मुसलमानों में भी अशरफी व अजलाफी मुसलमान होते हैं। 

प्रश्न 14. अन्तर्जातीय विवाह कहाँ हो रहे हैं? 

उत्तर- उच्च जातियों में अन्तर्जातीय विवाह का (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों) प्रचलन बढ़ा है। परन्तु निम्न व पिछड़ी जाति वालों में अन्तर्जातीय विवाह नहीं के बराबर है । 

प्रश्न 15. संस्कृतिकरण क्या है? 

उत्तर-संस्कृतिकरण ऐसी प्रक्रिया का नाम है, जिसके द्वारा मध्य या निम्न जाति के सदस्य किसी उच्च जाति की धार्मिक क्रियाओं, घरेलू या सामाजिक रीति-रिवाजों को अपना कर अपनी सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाने का प्रयास करते हैं। 

प्रश्न 16. वर्तमान में दलित समाज के लोगों की स्थिति कैसी है? 

उत्तर- वर्तमान में दलित समुदाय की स्थिति पहले से काफी अच्छी है। सरकार द्वारा सार्वजनिक शिक्षा, जमींदारी का खात्मा, शहरीकरण, कानूनों में बदलाव और चुनावी राजनीति ने दलितों की स्थिति में बदलाव की प्रक्रिया को तेज किया है। 

प्रश्न 17. ग्रामीण परिवेश में दलितों की स्थिति कैसी है? 

उत्तर- गांवों में दलितों की स्थिति व्यावसायिक दृष्टि से अधिक ठीक नहीं है परन्तु शिक्षित बेरोजगारों के मुकाबले ठीक है। दलित समुदाय के 68 प्रतिशत कृषि कार्य करते हैं, 32 प्रतिशत गैर-कृषि कार्य करते हैं। इनमें सीमान्त किसान है। श्रम करते हैं, परन्तु बेरोजगार नहीं है। 

प्रश्न 18. गरीबी रेखा के नीचे कौन से लोग हैं? 

उत्तर- अनुसूचित व दलित वर्ग के लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। बाल मजदूरी भी दलित समुदायों में अधिक पाई जाती है। 

प्रश्न 19. सब प्रकार के साधन होते हुए लोग निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को क्यों पढ़ाते हैं? 

उत्तर- निजी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता महत्त्वपूर्ण है। सरकारी स्कूलों में कागजों की कार्यवाही पर विशेष महत्त्व दिया जाता है। आठवीं कक्षा तक तो बच्चों की शिक्षा गुणवत्ता की दृष्टि से प्रश्नचिह्न लगाती है। 

प्रश्न 20. जनजातीय समुदाय की दो विशेषताएँ बतलाइए । 

उत्तर- (i) जनजातीय वर्ग में सामाजिक स्तरीकरण का विभाजन नहीं होता है। (ii) जनजातियाँ अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक होती हैं उनमें राजसत्ता जैसी व्यवस्था नहीं होती है। 

प्रश्न 21. जनजाति (Tribe) शब्द का प्रयोग कब हुआ था? 

उत्तर- जनजाति शब्द का प्रयोग औपनिवेशिक काल में किया गया था। 

प्रश्न 22. भारत में जनजातीय समुदाय कहाँ तक फैला हुआ है? 

उत्तर— भारत में जनजातीय समुदाय राजस्थान, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा तक फैला हुआ है। राजस्थान में उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ व चित्तौड़गढ़ जनजातीय जिले हैं। 

प्रश्न 23. राजस्थान की पाँच जनजातियों के नाम लिखिए। 

उत्तर- राजस्थान में मीना, भील, गरासिया, सहरिया तथा डामोर आदि जनजातियाँ हैं। 

प्रश्न 24. जनजातीय वर्ग के बालकों की शिक्षा की क्या समस्याएँ हैं? 

उत्तर- जनजातीय वर्ग, आदिवासी दलित वर्ग आज भी प्रायः जंगलों में दूर-दूर मकान बनाते हैं। इनके मकान भी एक बस्ती की तरह न होकर एक-दो किलोमीटर दूर होते हैं। अत: ऐसे स्थानों पर स्कूल भी नहीं खोले जा सकते हैं। अतः शिक्षा की दृष्टि से आज भी ये पिछड़े हुए हैं। वैसे सरकार इनके विकास के लिए कई योजनाएँ बनाती है। 

Kkr Kishan Regar

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