मूल्य का अर्थ, परिभाषायें, मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया, लक्षण, प्रकृति के सिद्धान्त, महत्व, मूल्य शिक्षा का अर्थ

मूल्य 

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मूल्य का अर्थ


"मूल्य' शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द 'वैल्यू' का हिन्दी रूपान्तर है। वैल्यू' शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के वैलियर' शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है - योग्यता, उपयोगिता और महत्त्व। इस प्रकार शाब्दिक अर्थ में व्यक्ति या वस्तु का वह गुण, जिसके कारण उसका उपयोग या महत्त्व प्रकट होता है, भूल्य कहलाता है।

लेकिन मूल्य के सम्बन्ध में विभिन्न विचारकों ने भिन्न-भिन्न मत प्रतिपादित किये है। मूल्य क्या है? मूल्य वह है, जो मानव-इच्छा को पूरा करता है। मानव की इच्छाओं को पूरा क्यों करना चाहिए? इसका उत्तर होगा कि जीवित रहने के लिए इच्छाएं पूरी करनी पड़ती हैं। परन्तु हम जीवित क्यों रहना चाहते हैं? इसके उत्तर में हम अपने जीवन के कुछ लक्ष्य या उद्देश्य बनाएंगे, जिनके लिए हम जीते हैं। एक व्यक्ति कहता है कि वह कला की साधना के लिए, दूसरा कहता है कि वह सत्य की खोज के लिए और तीसरा कहता है कि वह ईश्वर प्राप्ति के लिए जीवित रहना चाहता है। एक कलाकार कला की रचना क्यों करना चाहता है, क्योंकि उसके अनुसार कला तो कला के लिए है। इसी तरह सत्य, सत्य के लिए, भलाई, भलाई के लिए, कर्तव्य, कर्तव्य के लिए तथा ईश्वर, ईश्वर के लिए है। इस तरह हम ऐसे मूल्यों की अवधारणाओं पर पहुंच जाते हैं, जो अन्तिम मूल्य हैं, जिनको अपने-आप में मूल्य मानना चाहिए, वे परम मूल्य हैं। दर्शन

इन्हीं स्वतः मूल्यों को मौलिक माना जाता है क्योंकि ये मनुष्य के उद्देश्य हैं। ये उन नद्देश्यों को प्राप्त करने के साधन हैं, जो परत: मूल्य हैं। परत: मूल्य का मूल्य उद्देश्य के मूल्य पर निर्भर है। यदि उद्देश्य मूल्यवान है, तो उसको प्राप्त करने का साधन भी मूल्यवान होगा, जैसे चश्मे का देखने के लिए प्रयोग होता है, यही उसका मूल्य है। वास्तव में परत: मूल्य अपने आप में मूल्य ही नहीं है, स्वतः ही मूल्य है।

मानव जीवनपर्यन्त सीखता रहता है तथा उसके अनुभवों में निरन्तर अभिवृद्धि होती है। जैसे-जैसे वह अधिकाधिक सीखता जाता है तथा परिपक्व होता है, वह ऐसे अनुबन्ध प्राप्त करता है, जो उसके व्यवहार को निर्देशित करते हैं। ये निर्देशक जीवन को दिशा प्रदान करते हैं। इन्हें मूल्य कहा जा सकता है। व्यवहार के निर्देशक के रूप में वे अनुभवों के विकसित व परिपक्व होने के साथ-साथ विकसित तथा परिपक्व होते हैं। वस्तु मूल्य किसी वस्तु या स्थिति का वह गुण है, जो समालोचना व वरीयता प्रकट करता है। यह एक आदर्श या इच्छा है, जिसे पूरा करने के लिए व्यक्ति जीता है तथा आजीवन प्रयास करता है।


मूल्य की परिभाषायें


सी.वी. गुड के अनुसार - "मूल्य वह चारित्रिक विशेषता है, जो मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। लगभग सभी विचार गल्यों के अभीष्ट-चरित्र को स्वीकार करते हैं।'

ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश के अनुसार - 'इसमें मूल्य को महत्ता, उपयोगिता, पांछनीयता तथा उन गुणों के रूप में परिभाषित किया गया है, जिन पर ये निर्भर हैं।' मिल्टन का मानना है कि 'जीवन मूल्य ओस की बूंदों के सदृश नहीं हैं, जो मौसम के अनुसार दिखलाई दें। इनकी जड़ें प्रत्येक प्राणी में बहुत गहरी होती हैं तथा इनका वास्तविकता से घनिष्ठ सम्बन्ध है।'

__पारसन्स के अनुसार - 'मूल्य किसी सामाजिक व्यवस्था में कई अनुस्थापनों में से किसी एक अनुस्थापन को चुनने का एक मानक है।

ह, आर.बी. पसी के अनुसार - 'किसी व्यक्ति के लिए रुचिकर वस्तुएं मूल्य कही जा सकती हैं, जिनके आधार पर व्यक्ति की रुचि एक वस्तु में एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।'

मरफी व न्युकाम्ब के अनुसार - 'मूल्य का अर्थ है लक्ष्य प्राप्ति की ओर उन्मुख होना।'

फ्लिक के अनुसार - “मूल्य वह प्रमापीकृत मानक है, जिससे व्यक्ति अपने साथियों से प्रभावित होता है और अपने प्रत्यक्षीकरण के अनुरूप विभिन्न क्रियाओं का चयन करता है।

आर. के. मुखर्जी. के अनुसार - "मूल्यों को सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत उन इच्छाओं और लक्ष्यों के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिन्हें अनुबन्धन, अधिगम या समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आभ्यन्तरीकृत किया।

अर्वन के अनुसार - "मूल्य वह है, जो इच्छाओं की तुष्टि करे।'

रथ व अन्य - मूल्य तीन प्रक्रियाओं पर आधारित होते हैं - चुनना, महत्त्व देना व क्रिया करना। व्यक्ति प्रत्येक विकल्प के परिणामों के बारे में स्वतन्त्रतापूर्वक सुविचारित चर्चा करने के बाद अनेक विकल्पों में से कुछ को चुनता है। वह अपने चयन को महत्त्व देता है अर्थात् उससे प्रसन्न होता है तथा उसकी कद्र करता है। वह अपने चयन के आधार पर क्रिया करता है। यह क्रिया एक जीवन-प्रतिमान के रूप में बार-बार होती है। ये सभी प्रक्रियाएँ सामूहिक रूप से मूल्य निर्धारण को परिभाषित करती हैं। मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया के परिणामों को ही मूल्य कहा जाता है।

जेम्स पी.शेवर तथा विलियम स्ट्राँग के अनुसार - "मूल्य महत्त्व के बारे में निर्णय के मानदण्ड तथा नियम हैं। ये वे मानदण्ड हैं, जिनसे हम चीजों (लोगों, वस्तुओं, विचारों, क्रियाओं तथा परिस्थितियों) के अच्छा, महत्त्वपूर्ण व वांछनीय होने अथवा खराब, महत्त्वहीन व तिरस्करणीय होने के बारे में निर्णय करते हैं।'

रिचर्ड एल. मॉरिस के अनुसार - 'मूल्यों को चयन के उन मापदण्डों तथा प्रतिमानों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो व्यक्तियों के समूहों को सन्तोष, परितोष तथा अर्थ की ओर निर्देशित करें।' इस परिभाषा में मानकीय विमा निहित है।

मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया


स्थ, हर्मिन व साइमन (1966) के अनुसार, जब तक कोई बात निम्न सात मानदण्डों पर खरी नहीं उतरती, तब तक हम उसे मूल्य की संज्ञा नहीं दे सकते हैं। ये सात मानदण्ड मूल्य निर्धारण प्रक्रिया का वर्णन करते हैं -

1. स्वतन्त्र चयन - 

जब व्यक्ति मूल्यों को स्वयं चुनता है, तब वह उन्हें महत्त्वपूर्ण मानने के लिए अधिक प्रयत्नशील रहता है। वह शक्ति-सम्पन्न व्यक्तियों की अनुपस्थिति में भी मूल्य आधारित आचरण करता रहता है। अत: व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करने वाले मूल्य व्यक्ति के स्वतन्त्र चयन के परिणामस्वरूप स्थापित होने चाहिये।

2. विकल्पों में से चयन - 

व्यक्ति मूल्य स्वयं चुनता है। यदि चुनने के लिए व्यक्ति के सम्मुख विकल्प न हों तो कुछ भी सार्थक चयन सम्भव नहीं है। मूल्य तब निर्मित होते हैं, जब व्यक्ति के सामने एक से अधिक विकल्प होते हैं तथा वह उनमें से किसी को चुनने के लिए स्वतन्त्र होता है।

3. प्रत्येक विकल्प के परिणामों के बारे में विचारपूर्ण मनन के बाद चयन - 

अनेक बार हम क्षणिक, आवेग में आकर या चिन्तन-मनन किये बिना मूल्य चुन लेते हैं। इस चयन को विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता। वही बात हमारे जीवन को सही ढंग से निर्देशन प्रदान कर सकती है, जिसके महत्त्व के बारे में चिन्तन व विचार-विमर्श किया गया हो और तब जिसे चुना गया हो। अत: चयन से पूर्व व्यक्ति को प्रत्येक विकल्प के परिणामों को स्पष्ट रूप से समझने की कोशिश करनी चाहिए।

4. महत्त्व देना, कद्र करना- 

जब हम किसी वस्तु, विचार आदि को महत्त्व देते हैं, तब हमें प्रसन्नता होती है, सुखद भाव उत्पन्न होते हैं। हम उसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं, उससे अत्यधिक लगाव महसूस करते हैं तथा उसका आदर व सम्मान करते हैं। मूल्य उन चयनों से उत्पन्न होते हैं, जिन्हें करने में हमें कोई परिस्थितिजन्य विवशता महसूस नहीं होती तथा हमें खुशी होती है। हम मूल्यों की कद्र करते हैं तथा मूल्य आधारित व्यवहार करने में हमें खुशी होती है।

5. दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना - 

जब हम अनेक विकल्पों पर पर्याप्त विचार करने के बाद स्वतन्त्रतापूर्वक चयन करते हैं तथा अपने आदर्श के चयन पर हमें गर्व होता है, तब आवश्यकता पड़ने पर हम दृढ़तापूर्वक अपने चयन की पुष्टि कर सकते हैं। यदि हम किसी चयनित आदर्श को सभी के सामने कहने में शर्म अनुभव करते हैं तो हमारा चयन मूल्यों का द्योतक नहीं हो सकता। मूल्यों के विकास हेतु आवश्यक है कि हम अपने मूल्यों को दृढ़तापूर्वक सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें व फिर उन्हीं के लिए जीना पसन्द करें।

6.चयन की क्रियान्विति - 

मुल्य जीवन को प्रभावित करते हैं। हमारे विभिन्न दैनिक व्यवहारों में मूल्य परिलक्षित होते हैं। हम प्रतिकूल परिस्थिति में भी स्वयं के द्वारा महत्त्वपूर्ण मानी गयी बातों के बारे में अध्ययन करते हैं तथा उन पर समय, धन व शक्ति खर्च करते हैं। हमें उन समूहों व संगठनों का सदस्य बनना अच्छा लगता है, जिनमें हमारे मूल्य पोषित होते हों।

7. पुनरावृत्ति - 

मूल्यों में स्थायित्व होता है। इनसे एक जीवन प्रतिमान बनता है। जब मूल्य चयनित व निर्धारित हो जाते हैं, तब जीवन में अनेक विविध परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न समयों पर उनकी अभिव्यक्ति होती है।

मूल्यों के लक्षण 


1. मूल्य का गुणात्मक और परिमाणात्मक आकलन सम्भव है।

2. मूल्य प्रत्यय, अमूर्तिकरण व भावनायें हैं तथा उनके संज्ञानात्मक, अनुभावात्मक व क्रियात्मक पक्ष हैं।

3. मूल्य सामान्यत: व्यक्ति की इच्छाओं को सन्तुष्टि प्रदान करते हैं, किन्तु कभी कभी मूल्य और इच्छाओं में संघर्ष भी पाया जाता है।

4. मूल्य में भावात्मक तत्त्व के साथ ज्ञानात्मक तत्त्व भी निहित रहता है। 5. सभी विचारों की तरह मूल्यों का अस्तित्त्व अनुभव के क्षेत्र में नहीं, अपितु व्यक्तियों के मन में है।

6. मूल्य सशक्त संवेगिक वचनबद्धता हैं। व्यक्ति जिस वस्तु को मूल्यवान मानता है, उसे अत्यधिक पसन्द करता है, उसकी बहुत चिन्ता करता है। समान . मूल्य जीवन के अंश हैं। ये अधिक जटिल परिस्थितियों में कार्यशील होते हैं। इसमें प्राय: सही या गलत, अच्छे या बुरे, सत्य या असत्य, उचित या अनुचित जैसी स्थितियाँ निहित होती हैं।

8. मूल्य अहं-संरक्षक, समायोजनात्मक ज्ञान व आत्मानुभूति भूमिकाओं का निवर्हन करते हैं।

9. मूल्य निरन्तर अनुभवों से सम्बोधित होते रहते हैं, और अनुभव ही उन्हें रूप देते हैं व उनका परीक्षण करते हैं।

10. मूल्य भावनायें या संवेग नहीं हैं. तथापि उनमें इच्छायें व भाव निहित हैं। वे स्वयं विश्वास या निर्णय नहीं है, लेकिन वे चिन्तन में तथा उसके माध्यम से प्रकट होते।

11. मूल्यों का पालन करने में व्यक्ति को सन्तोष प्राप्त होता है। इनकी रक्षा के लिए यह अपने प्राणों तक का उत्सर्ग कर देता है।

12. वस्तुओं के महत्त्व की जाँच के लिए मूल्यों को स्पष्ट मानदण्ड के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।

13. सभी मूल्य सभी व्यक्तियों के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं होते।

14. विभिन्न जातियों, धर्मों, संस्कृतियों, समाजों और राष्ट्रों के मूल्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं, वस्तुतः मूल्यों से ही उनकी पहचान होती है।


मूल्य की प्रकृति के सिद्धान्त 

मूल्य का विचार मनुष्य के निर्णय में विद्यमान है, जिसको मूल्य-निर्णय कहते हैं। 
1. मूल्य को परिभाषा नहीं हो सकती 
2. मूल्य मनुष्य के संवेगकी अभिव्यक्ति है 
3. मूल्य इच्छा की पूर्ति है।
4. मूल्य वस्तु का गुण है
5. मूल्य तत्व है 
6. मूल्य सम्बन्ध है

मूल्यों को प्रकृति के विषय में उपरोक्त विभिन्न सिद्धान्तों के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मूल्य का सम्बन्ध मनुष्य (प्रशंसक) तथा वस्तु के गुण दोनों से है। मूल्य स्वतन्त्र सम्बन्ध हैं, जो हमारे मूल्य-निर्णय के आधार हैं। मूल्य का यह अर्थी उसके सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं बनाता। प्रत्येक मूल्य-निर्णय में एक आदर्श का भाव विद्यमान है कि जो कुछ वस्तु में है, वह पूर्ण नहीं, वह आदर्श नहीं, वह कम है और उसका आदर्श एक ऐसा मापदण्ड बन जाता है, जिसके अनुसार मूल्य का निर्णय किया जाता है। जैसे इस पुष्प की सुन्दरता पूर्ण नहीं। इस निर्णय में पूर्ण सुन्दरता का विचार विद्यमान है। पूर्ण सुन्दरता एक आदर्श है और यही इस पुष्प के सुन्दर होने के निर्णय का आधार है। अत: जहाँ मूल्य वस्तुओं के गुणात्मक संविधान हैं, वहां आदर्श भी हैं। गुण का मापदण्ड | आदर्श है।

मूल्यों का महत्व


विभिन्न व्यक्तियों के लिए विभिन्न मूल्यों के महत्त्व में अन्तर होता है। किसी एक व्यक्ति के लिए एक मूल्य अन्य मूल्यों से अधिक या कम महत्वपूर्ण हो सकता है। सभी यक्ति कुछ मूल्यों का समर्थन नहीं कर सकते। मूल्यों के महत्त्व की केवल दो विचारधारायें

1. सापेक्ष महत्त्व 

(i) सापेक्षवादियों के मतानुसार, मूल्य-स्थितियों में अनेकता सम्भव है। 

(ii) समकालीन मानदण्डों को भूतकालीन मानदण्डों से श्रेष्ठ या निम्न नहीं माना

(iii) सापेक्षवादी मानते हैं कि मूल्य निर्णयों से हमें एक व्यक्ति के वरीयता प्राप्त पिचारों व कार्यों का पता चलता है। जब मूल्यों के सम्बन्ध में असहमति उभरती है, तब लोग प्राय: एक-दूसरे की मूल्य प्राथमिकताओं से सहमत नहीं हो पाते।

(iv) कुछ मूल्यों को दूसरे मूल्यों की अपेक्षा अधिक महत्त्व देते हैं। मूल्य संकट न असमंजस की स्थिति में मूल्य प्राथमिकताओं में परिवर्तन लाकर उनके समाधान को चोरी की जाती है।

2. निरपेक्ष और शाश्वत महत्त्व - 

(i) कुछ लोग मूल्यों की निरपेक्ष व शाश्वत प्रकृति में विश्वास रखते हैं। 

(ii) कुछ मूल्य पूरे विश्व में सभी कालों में वांछनीय होते हैं।

(iii) कुछ कार्य स्वभावतया बुरे या दोषपूर्ण होते हैं, जबकि कुछ मानव कार्य प्रत्येक परिस्थिति में सदैव सही होते हैं।

(iv) मूल्यों की निरपेक्ष प्रकृति सतही तौर पर उचित लगती है, परन्तु कोई भी मूल्य ऐसा नहीं है, जिसके किसी समय उल्लंघन के लिए व्यक्ति कोई न कोई औचित्यपूर्ण बहाना न खोज ले।

(v) मूल्य प्रतिमान की निरपेक्ष स्थिति किसी भी व्यक्ति द्वारा एक भी अपवाद खोज लेने पर समाप्त हो जाती है।

मूल्य शिक्षा का अर्थ


मूल्य शिक्षा का अर्थ- 

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास अर्धात उसके जीवन के सभी पक्षों-शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक आदि का विकास करना है, इसलिए शिक्षा के विभिन्न रूप एवं यक्ष होते है। शिक्षा का वह रूप जो व्यक्ति के नैतिक व आध्यात्मिक पक्ष एवं जीवन सम्बन्धी मूल्यों के विकास के लिए प्रयास करता है तथा उसमें योगदान देता है, मूल्य शिक्षा कहलाता है। इस प्रकार मूल्य शिक्षा मूल्यों की शिक्षा है, जो व्यक्ति को मूल्यों के प्रति प्रशिक्षित करती है। मूल्य शिक्षा वह शिक्षा है, जो व्यक्ति को उचित एवं नैतिक संकल्प करने में सहायक होती है, उसके आचरण एवं व्यवहार को मूल्य सम्मत स्वरूप प्रदान करती है। मूल्य शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया अग्रसित होती है, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता है और व्यक्तित्व का विकास होता है मुल्य शिक्षा के विषय में एस.पी. रूहेला का मत है कि 
(1) मूल्य शिक्षा न तो एक अलग विषय के रूप में पाठ्यक्रम में सम्मिलित की जा सकती है और न ही सैद्धांतिक रूप में इसका शिक्षण हो सकता है। वह एक व्यावहारिक विषय है, जो विद्यालय के अन्दर और बाहर अनौपचारिक रूप से पढ़ाया जायेगा, जिससे विद्यार्थियों के व्यवहार और आचरण को उचित और सही दिशा मिल सके।

(2) मूल्य शिक्षा को नैतिक शिक्षा के कालांश में नहीं पढ़ाना चाहिए।

(3) मूल्य शिक्षा प्रदान करने के पश्चात् अन्य शिक्षण विषयों की तरह उसका मूल्यांकन किया जाना सम्भव नहीं है।

(4) मूल्य शिक्षा को मूल्य विहीन, निराश, कुण्ठाग्रस्त और असमर्पित शिक्षकों के अवहेलनात्मक दृष्टिकोण से नहीं पढ़ाया जाना चाहिए।

(5) मूल्य शिक्षा को धार्मिक प्रार्थनाओं, मन्त्रों, सूत्रों और सन्तों की गाथाओं आदि के रूप में भी नहीं पढ़ाया जाना चाहिए।

(6) मूल्य शिक्षा को केवल औपचारिक शिक्षा संस्थाओं में ही नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, वरन् अनौपचारिक रूप में भी इसका शिक्षण किया जाना चाहिए।

(7) मूल्य शिक्षा को अन्य विषयों की तरह व्याख्यान देकर, नोट्स देकर या लिखकर नहीं पढ़ाया जा सकता।

(8) मूल्य शिक्षा को मानव निर्माण के एक सशक्त व व्यावहारिक विज्ञान का रूप ग्रहण करना है, जिसमें आध्यात्मिकता, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सामाजिक कार्य, अन्तर्राष्ट्रीयता, वैज्ञानिक मानववाद, भविष्य विज्ञान के कार्यात्मक तत्वों को सम्मिलित होना चाहिए। सभी अभिभावकों और नागरिकों को अपने सम्पर्क में आने वाले सभी विद्यार्थियों और नागरिकों को मूल्यों के प्रति सचेत करना चाहिए और स्वयं को भी सचेत रहना चाहिए।
Kkr Kishan Regar

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